प्रदीप द्विवेदी. एक छोटा सा छेद बड़े-से-बड़े बांध का अभिमान तोड़ने के लिए काफी होता है?
कुछ ऐसा ही हो रहा है, इन दिनों देश की पत्रकारिता में, जब बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल पर स्वतंत्र पत्रकार भारी पड़ रहे हैं!
इन स्वतंत्र पत्रकारों के कारण जनता के सामने ऐसे-ऐसे बड़े तथ्य, बड़े-बड़े मुद्दे सामने आ रहे हैं, जो देश के प्रमुख न्यूज़ चैनल गोल कर रहे हैं, गायब कर रहे हैं.
ऐसे तथ्य, ऐसे मुद्दे- वेब साइट, यू-ट्यूब, सोशल मीडिया आदि के माध्यम से सामने आ रहे हैं और नतीजे बता रहे हैं कि जनता को पसंद भी आ रहे हैं, समझ भी आ रहे हैं.
याद रहे, आपातकाल के दौरान भी ऐसी ही तस्वीर उभरी थी जब सरकारी मीडिया के अलावा तमाम अन्य मीडिया की आवाज़ को दबा देने के प्रयास किए गए थे, लेकिन तब भी चिंगारी जैसे साइक्लोस्टाइल पेपर ने मीडिया पर सरकारी एकाधिकार के सपने ढेर कर दिए थे.
आज भी पुण्य प्रसून वाजपेयी, अजीत अंजुम, अभिमनोज, राजेन्द्र बोड़ा, अजित वडनेरकर, प्रतुल सिन्हा, उग्रसेन राव, जयप्रकाश पाराशर, राजेन्द्र कासलीवाल, कीर्ति राणा, प्रदीप भटनागर, शकील अख्तर, राकेश नारायण माथुर, कमलेश पारे, देवेन्द्र शास्त्री जैसे अनेक ऐसे स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो विभिन्न तथ्य, विभिन्न जानकारियां, विभिन्न सूचनाएं अपनी टिप्पणियों सहित बेखौफ सामने रखते रहे हैं, जिन्हें प्रमुख न्यूज़ चैनल नज़रअंदाज़ कर रहे हैं.
यही नहीं, प्रमुख मीडिया हाउस से जुड़े कई पत्रकार भी अपनी अलग राय, सोशल मीडिया पर व्यक्त करते रहे हैं, तो देश के लोकप्रिय कई कार्टुनिस्ट भी सियासी विसंगतियों को एक्सपोज करते रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि ऐसी सारी खबरें, सारी टिप्पणियां सरकार विरोधी ही हों, यह भी जरूरी नहीं कि सारी सूचनाओं से आप सहमत हों, लेकिन इनमें ज्यादातर ऐसी सूचनाएं होती हैं, जिन्हें बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल दबा देते हैं और जो जनता के सामने आना जरूरी हैं.
आपातकाल के समय सीधे तौर पर प्रेस सेंसरशिप थी, लेकिन इस अघोषित आपातकाल में बेहद सियासी चतुराई से यह है. वैसे भी वैचारिक 20वीं सदी विदा हो चुकी है और व्यावसायिक 21वीं सदी चल रही है!
आज के समय में पत्रकारों की भूमिका बढ़ती जा रही है. ऐसी सूचनाएं, जानकारियां जिन्हें सरकारी तंत्र समर्थक मीडिया दबाने की कोशिश करता है, सामने आनी ही चाहिएं, क्या सही है और क्या गलत है? इसका फैसला जनता पर छोड़ देना चाहिए!