न्यूज-व्यूज. किसान आंदोलन के दौरान गणतंत्र दिवस पर जो कुछ हुआ, उसके सहारे किसान आंदोलन को बदनाम करने में मिली आंशिक सफलता के मद्देनजर मोदी सरकार भले ही जीत का भ्रम पाल ले, लेकिन हकीकत में यह सरकार की हार की शुरूआत है. ऐसे उतार-चढ़ाव तो आपातकाल के विभिन्न आंदोलनों के दौरान भी कई बार आए थे और तब भी सरकार समर्थक ऐसे ही इतराते थे, जैसे आज इतरा रहे हैं.

अब तक के आंदोलन के असर को देखें तो....

एक- भले ही हिंसा को लेकर एक-दो संगठनों ने आगे आंदोलन से इंकार कर दिया हो, किन्तु नए कृषि कानूनों को तो स्वीकार नहीं किया है, मतलब- मुद्दे तो कायम हैं.

दो- अब तक किसान आंदोलन किसी दल के खिलाफ नहीं था, गैर-राजनीतिक था, परन्तु अब मजबूरन किसानों को सियासी दलों का साथ लेना पड़ेगा, क्योंकि अब मोदी टीम ने आंदोलन तोड़ने की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कोशिशें शुरू कर दी हैं.

तीन- किसान आंदोलन सफल हो या असफल, किन्तु इससे जुड़े लाखों परिवार क्या मोदी सरकार पर भविष्य में भरोसा कर पाएंगे, क्योंकि वे सरकार की सियासी चालाकियों को तो समझ ही रहे हैं.

चार- यदि इस आंदोलन के कारण भविष्य में होने वाले विभिन्न चुनावों में दो-पांच प्रतिशत वोट का भी फर्क पड़ा तो बीजेपी को बड़ा सियासी नुकसान होगा.

पांच- मोदी सरकार के पास एक बेहतर मौका था, वह चाहती तो किसानों के सम्मान की रक्षा करके किसानों में अपने भरोसे का विस्तार कर सकती थी, परन्तु आंदोलन की आपदा में सरकार ने यह अवसर गंवा दिया है!

बड़े-बड़े न्यूज चैनल पर स्वतंत्र पत्रकार भारी पड़ रहे हैं!

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