अजय कुमार,लखनऊ. नया कृषि कानून वापस कराने के लिए अड़े और गाजीपुर बार्डर पर लाव-लश्कर के साथ जमंे भारतीय किसान यूनियन के नेता और प्रवक्ता राकेश टिकैत भले ही मोदी सरकार को कानून वापस लेने के लिए नहीं झुका पाएं हों,लेकिन जिस तरह से टिकैत ने आंदोलन का नेतृत्व किया और इस दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनको जो समर्थन मिला, उसके चलते किसान नेता राकेश टिकैत का पश्चिमी यूपी में कद काफी बढ़ गया है. किसानों के बीच तो उनकी धमक बढ़ी ही है सियासी मोर्चे पर भी राकेश टिकैत तेजी से उभर कर आए हैं.

यह सच है कि इस समय टिकैत, मोदी सरकार से दो-दो हाथ कर रहे हैं और इसी के चलते टिकैत विपक्षी दलों के नेताओं के चहेते बन गए हैं. तमाम दलों के नेता राकेश टिकैत की परिक्रमा में लगे हैं.इसमें समाजवादी नेता अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमों मायावती,राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चैधरी, भीम आर्मी के चन्द्रशेखर रावण जैसे तमाम नेता शामिल हैैं. सभी को 2022 के विधान सभा चुनाव जीतने के लिए राकेश टिकैत तुरूप का इक्का लगते हैं.

उधर, उत्तर प्रदेश में किसानों की नाराजगी पूर्व कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी बहन एवं कांगे्रस की प्रदेश प्रभारी प्रियंका वाड्रा को भी काफी रास आ रही है. प्रियंका लगातार पश्चिमी यूपी का दौरा कर रही हैं. हाल ही में प्रियंका वाड्रा 26 जनवरी को किसान आंदोलन के दौरान टैªक्टर पलटने के कारण मारे गए एक युवक के घर मातम मनाने के लिए रामपुर पहुंच गई थीं तो आज प्रियंका सहारनपुर में किसानों की पंचायत के बीच हैं. इसके बाद 13 फरवरी को प्रियंका मेरठ में, 16 फरवरी को बिजनौर में और 19 को मथुरा की पंचायत में शामिल होंगी.

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कांगे्रस महासचिव और उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका वाड्रा ने उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की आहट सुनते ही सोशल मीडिया से निकलकर जिलों-जिलों मेें दौड़ लगाना शुरू कर दिया है. प्रियंका ठीक वैसे ही दौड़-भाग कर रही हैं जैसी लोकसभा चुनाव के समय कर रही थीं. बस मुद्दे बदल गए हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव के समय प्रियंका ने सोनभद्र नरसंहार, दलित उत्पीड़न, राफेल लड़ाकू विमान मंे कमीशनखोरी जैसे मसलों को हवा दी थी तो अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए प्रियंका किसानों की नाराजगी के सहारे कांगे्रस का बेड़ा पार करने की कोशिश मंे हैं. कोरोना महामारी के चलते बढ़ी बेरोजगारी को भी कांगे्रस सियासी मुद्दा बना रही हैं.

खैर, किसान आंदोलन के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत ठीक वैसे ही रंग बदलती दिख रही है,जैसे 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पश्चिम यूपी के सियासी समीकरणों में  बदलाव आया था. तब चैधरी अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल बिल्कुल हाशिए पर पहुंच गई थी. जाट समाज, जो एक वक्त चैधरी चरण सिंह परिवार की राजनीतिक ताकत हुआ करता था, वह मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बीजेपी का वोट बैक बन गया था. इसी वजह से चैधरी अजित सिंह तक चुनाव हार गए थे, पार्टी को भी लोकसभा चुनाव में कोई भी सीट नहीं मिल पा रही है. अजित सिंह से जाट बिरादरी इस लिए नाराज थी क्योंकि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के समय तुष्टिकरण की सियासत के चलते भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर किसी भी पार्टी के नेता ने जाट उत्पीड़न के खिलाफ आवाज नहीं उठाई थी. भाजपा वाले जरूर जाट बिरादरी के साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़े रहे थे.जबकि अन्य दलों के नेता मुसलमानों के साथ खड़े थे. जाट लोगों की सबसे अधिक नाराजगी समाजवादी पार्टी से थी,क्यांेकि उस समय अखिलेश की सरकार थी और उनके मंत्री आजम खान ने खुलकर मुसलमानों का साथ देते हुए जाट लोगों का पुलिस के माध्यम से काफी उत्पीड़न कराया था. तब मुख्यधारा में वापसी के लिए अजित सिंह ने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया, लेकिन उसके जरिए भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली. बस एक ही उम्मीद थी कि कभी तो बीजेपी कमजोर होगी. अब उन्हें ऐसा होता नजर आ रहा है लेकिन, अब इस उम्मीद पर उनके मुकाबले राकेश टिकैत भारी पड़ते दिख रहे हैं. राकेश टिकैत अपनी बिरादरी के सर्वमान्य नेता बनना चाहते हैं,इस लिए इस बात की उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह अपने सामने किसी दूसरे जाट नेता चाहें वह कद्दावर किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चैधरी  चरण सिह के पुत्र अजित सिंह ही क्यों न हों उन्हें उभरने का मौका देंगे.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत को करीब से जानने वाले तो यही कहते हैं कि किसान आंदोलन के जरिए राकेश टिकैत का जिस तरह से उभार हुआ है, वह इन दिनों जाट समाज के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे हैं. अजित के लिए यह सबसे बड़ी परेशानी है. टिकैत के नेता बनकर उभरने से अजित सिंह की वापसी और मुश्किल हो जाएगी. अजित सिंह इस बात को बखूबी समझते हैं, यही वजह है कि एक तरफ वह किसान आंदोलन के बीच राकेश टिकैत से पार पाने की जुगत में हैं तो दूसरी तरफ टिकैत के साथ दिखने के लिए वह बेटे जयंत चैधरी को टिकैत की पंचायत में भी भेजने से गुरेज नहीं करते हैं .

वैसे अजित सिंह के बारे में एक चर्चा यह भी आम रहती है    कि वह सियासी पलड़ा देखकर पाला बदलने में देरी नहीं करते हैं. इसी लिए अजित सिंह को भाजपा से भी गुरेज नहीं रहता है. अजित की पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी तब ही रहा था जब वे बीजेपी के साथ गठबंधन में थे, लेकिन अब बीजेपी को उनकी जरूरत नहीं रह गई है. यही अजित सिंह की सबसे बड़ी मुश्किल है. वैसे, बदले हालात में 2022 के यूपी चुनाव में अगर बीजेपी को लगा कि टिकैत से पार पाना मुश्किल है, तो जरूर अजित सिंह उसकी मजबूरी हो बन सकते हैं,लेकिन यह काफी दूर की कौड़ी है.