दाईं सूंड :- जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति या दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं. यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा या दाईं बाजू (सीधा हाथ) . दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली व दाईं बाजू सूर्य नाड़ी की है. जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है व जिसकी सूर्य नाड़ी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है.*
*इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड वाले गणपति को 'जागृत' माना जाता है. ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांड के अंतर्गत पूजा विधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन करना आवश्यक है. उससे सात्विकता बढ़ती है व दक्षिण दिशा से प्रसारित होने वाली रज लहरियों से कष्ट नहीं होता.*
*दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती, क्योंकि तिर्य्क (रज) लहरियां दक्षिण दिशा से आती हैं. दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप-पुण्य का हिसाब रखा जाता है. इसलिए यह बाजू अप्रिय है.*
*_यदि दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें या सोते समय दक्षिण की ओर पैर रखें_*
तो जैसी अनुभूति मृत्यु के पश्चात अथवा मृत्यु पूर्व जीवित अवस्था में होती है*
, वैसी ही स्थिति दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा करने से होने लगती है._* इसलिए ऐसी मूर्ति की पूजा करने का मन नहीं करता.*
*जिस गणेश मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ बाईं ओर (उल्टे हाथ) हो, उसे वाममुखी कहते हैं. वाम यानी बाईं ओर या उत्तर दिशा. बाई ओर चंद्र नाड़ी होती है. यह शीतलता प्रदान करती है एवं उत्तर दिशा अध्यात्म के लिए पूरक है, आनंददायक है. इसलिए पूजा में अधिकतर वाममुखी गणपति की मूर्ति रखी जाती है. इसकी पूजा प्रायिक पद्धति से की जाती है.*
*सिंहासन पर बैठे हुए गणेशजी की प्रतिमा जिनकी सूंड बाईं ओर मुड़ी होती है, पूजा घर में रखी जानी चाहिए. इनकी पूजा से घर में सुख-शांति व समृद्धि आती है.*
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-5 राज्यों में चुनाव प्रभारियों का बीजेपी ने किया ऐलान, यूपी में धर्मेंद्र प्रधान, पंजाब का शेखावत
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