दिल्ली-एनसीआर समेत देश के तमाम हिस्सों में कोरोना संक्रमण के जितने मामले सामने आ रहे हैं, उससे तीसरी लहर की आशंका गहरा रही है. अभी दीपावली, कालीपूजा और छठ जैसे सामूहिक आयोजन वाले पर्वों का आना बाकी ही है. जाहिर है कि हम अपनी लापरवाहियों के खिलाफ सजग नहीं हुए तो इस सदी की यह सबसे खतरनाक महामारी जाने कौन-सा रूप ले ले.
नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी ने कोरोना की पहली लहर के शुरू होने के बाद और दूसरी लहर की संभावित आशंकाओं के बीच इसके खतरों को लेकर हमें आगाह किया था. उन्होंने कहा था कोविड-19 का संकट महज स्वास्थ्य का संकट नहीं है, बल्कि यह संकट ‘सभ्यता का संकट’ है.
कैलाश सत्यार्थी की यह बात उनकी नई किताब ‘कोविड-19 : सभ्यता का संकट और समाधान‘ में दर्ज है. सत्यार्थी की यह किताब दो खंडों में है. पहले खंड में उन्होंने कोविड-19 की वजह से सभ्यता पर छाए संभावित संकटों को रेखांकित किया है और दूसरे खंड में उन्होंने इसके समाधान सुझाए हैं.
पहले खंड में कैलाश सत्यार्थी लिखते हैं ‘हम आशा और अपेक्षा कर रहे थे कि इतिहास की सबसे बड़ी साझा त्रासदी से सबक लेकर पूरे विश्व समुदाय में साझेपन की सोच जन्म लेगी, लेकिन इस बात के संकेत अभी तक नजर नहीं आ रहे. असलियत तो यह है कि दुनिया में पहले से चली आ रही दरारें, भेदभाव, विषमताएं और बिखराव उजागर होने के साथ-साथ और ज्यादा बढ़ रहे हैं. महामारी खत्म होने और आर्थिक संकट से उबर जाने के बाद भी दुनिया पहले की तरह नहीं रहेगी. मैं कई कारणों से इस त्रासदी को सिर्फ स्वास्थ्य और आर्थिक संकट न मानकर सभ्यता के संकट की तरह देख रहा हूं.’
कोरोना महामारी को सभ्यता पर संकट की तरह देखते हुए कैलाश सत्यार्थी याद करते हैं मानवीय रिश्ते और सामाजिक दायित्वों के क्षरण से उपजे उन दृश्यों को, जिनकी वजह से असंगठित क्षेत्र के मजदूर भुखमरी की हालत में अपने-अपने गांव लौट रहे थे.
महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास रेल पटरियों पर रोटियों के साथ मजदूरों की लाशों की तस्वीर उनके जेहन से नहीं उतरती. वे याद करते हैं चीन के 16 साल के विकलांग शख्स चैंग को, जो हुवेई शहर के अपने घर में व्हीलचेहर पर भूख-प्यास से मृत पड़े मिले थे. चैंग की देखभाल करने वाले पिता जब बीमार पड़े तो उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया गया था. तब घर में चैंग की देखभाल करनेवाला कोई नहीं रह गया. पड़ोसियों ने भी चैंग की कोई सुध नहीं ली और वह व्हीलचेयर पर बैठ-बैठे मर गए. सत्यार्थी मानते हैं कि चैंग को किसी बीमारी ने नहीं मारा, बल्कि समाज की संवेदनहीनता, एहसान-फरामोशी और मतलबपरस्ती ने उनकी हत्या की. सत्यार्थी याद करते हैं दक्षिण अफ्रीका के उन सैकड़ों बाल मजदूरों को जो सोने की एक खदान में फंसे पड़े थे, जिनके मालिक उन्हें उनके हाल पर छोड़कर भाग गए थे. वे याद करते हैं थाईलैंड की उस खबर को जिसके मुताबिक, तीन लाख से ज्यादा सेक्स वर्कर लॉकडाउन के दौरान दाने-दाने की मोहताज हो गई थीं और दस्तावेज न होने के कारण वे मजदूरों को मिल सकनेवाली सरकारी सहायता से भी वंचित थीं.
इन तमाम दुखद दृश्यों को याद करते-करते कैलाश सत्यार्थी अपनी इस किताब में लॉकडाउन के दौरान घरों में बंद लोगों की स्थितियों की चर्चा करते हैं. वे बताते हैं कि लोगों में मानसिक तनाव, अवसाद, निराशा, एकाकीपन, घरेलू हिंसा और तलाक के मामले बढ़े हैं. दोस्तों, शिक्षकों, रिश्तेदारों, खेल के मैदानों से दूर हुए बच्चों में झुंझलाहट, गुस्सा और जिद बढ़े हैं और एकाग्रता में कमी आई है.
वे उस एक साल के बच्चे का उदाहरण देते हैं, जिसके माता-पिता कोरोनाकाल में घर से ही काम कर रहे थे और बच्चे को भी घर में ही रख रहे थे. इस दौरान बच्चे को टीका लगवाने के लिए बस दो बार वे अस्पताल गए. फिर जब बच्चे ने थोड़ा-थोड़ा बोलना शुरू किया तो उसने बाहर निकलने से इनकार कर दिया यह कहते हुए कि बाहर लोग उसे सुई चुभो देते हैं.
इन स्थितियों की चर्चा करते हुए सत्यार्थी बताते हैं कि ये स्थितियां सभ्यता के संकट के लक्षण हैं. किसी भी सभ्यता की बुनियाद सामूहिकता होती है. सामूहिक अनुभव, सामूहिक मान्यता-परंपरा, सामूहिक विचार, व्यवहार और परस्पर समर्पण से ही सभ्यता का निर्माण होता है. लेकिन लॉकडाउन के दौरान समाज में इन चीजों की कमी साफ तौर पर दिखी, बल्कि वीभत्स रूप में ये कमियां और बढ़ीं.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-
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