यूरोपीय संघ (ईयू) के कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (सीबीएएम) वैश्विक व्यापार को नया आकार दे रहा है और दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं, खास तौर से विकासशील देशों के लिए नई जटिलताएँ भी पेश कर रहा है. अन्य जी7 देशों द्वारा इसी तरह के उपायों पर विचार किए जाने के साथ हम इस बारे में कई अहम सवालों का भी सामना कर रहे हैं. यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है कि जलवायु लक्ष्यों को आर्थिक वास्तविकताओं के साथ कैसे संतुलित किया जाए.
जलवायु थिंक टैंक ‘क्लाइमेट ट्रेंड्स’ ने वैश्विक व्यापार, आपूर्ति श्रृंखलाओं और जलवायु के प्रति अनुकूलता पर सीबीएएम के दूरगामी परिणामों का पता लगाने और सीमाओं के पार समान जलवायु कार्रवाई की जरूरत पर चर्चा करने के लिए एक वेबिनार आयोजित किया. ‘फ्रॉम ट्रेड वॉर्स टू क्लाईमेट वॉर्स वॉर्स : सीबीएएम्स रोल इन द न्यू ग्लोबल इकॉनमी’ विषय पर आधारित इस वेबिनार के जरिये व्यापार, अर्थशास्त्र और जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रों के प्रतिष्ठित विशेषज्ञों को कॉप29 और जी20 में प्रमुख बहुपक्षीय चर्चाओं से पहले अपने विचार देने के लिए एक मंच पर लाया गया.
इस्पात मंत्रालय की पूर्व सचिव श्रीमती अरुणा शर्मा ने एक स्वीकार्य ‘नार्म्स ऑफ़ एमिशन’ बनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा, ‘‘जब हम विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर सीबीएएम के प्रभाव की चर्चा करते हैं तो हमें कॉप से शुरू करना होगा, जब दुनिया कुछ सिद्धांतों पर सहमत हुई थी. यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि उस वक्त सभी देशों की चिंताओं और सरोकारों पर गौर किया गया था. उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि कार्बन उत्सर्जन की कितनी मात्रा स्वीकार्य है एक स्वीकार्य नार्म्स ऑफ़ एमिशन बनाने की जरूरत है.’’
उन्होंने कहा, ‘‘हर देश को यह तय करना होगा कि उसके स्वीकार्य नॉर्म्स आफ एमिशंस क्या है. इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं हो सकती. ऐसा इसलिए है क्योंकि उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों के लिए यह अलग-अलग बात होगी कि वे किस रफ्तार से कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करते हैं, क्योंकि इसके लिए वित्त का प्रवाह और इसे नापने के तंत्र की आवश्यकता होगी.
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज में सीनियर रिसर्च फेलो अमितेंदु पालित ने सीबीएएम के क्रियान्वयन में उत्पन्न होने वाली मुश्किलों और विसंगतियों का जिक्र करते हुए कहा,‘‘एल्यूमीनियम, उर्वरक, सीमेंट इत्यादि जैसे कुछ ऐसे उद्योग हैं, जिन्हें यूरोपीय निर्यात के मामले में संभवतः अपेक्षाकृत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है. अगर आप शिपिंग और विमानन जैसी सेवाओं पर गौर करें तो स्पष्ट रूप से आपूर्ति श्रृंखलाओं पर सीबीएएम जैसे विनियमन का विस्तारित प्रभाव काफी व्यापक है. मुझे लगता है कि एक विशेष बिंदु पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि सीबीएएम के त्वरित कार्यान्वयन की संभावना है और उम्मीद है कि सीबीएएम को उसकी तयशुदा तारीख पर लागू कर दिया जाएगा. इससे आपूर्ति श्रृंखलाओं में कम से कम अल्पकाल से मध्यम अवधि का प्रभाव हो सकता है.’’
उन्होंने कहा, ‘‘बुनियादी तौर पर मेरा मतलब यह है कि आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े निर्यातक के नजरिये से, जिसके लिये सीबीएएम के नियमों का पालन करना जरूरी है, यह मानकों के एक सेट के संबंध में एक ही बात हो सकती है, लेकिन यहाँ एक चुनौती यह है कि सभी उद्यमों में एक मानक के संदर्भ में अपने उत्पादन को अलग करने की क्षमता नहीं होगी. अब उस स्थिति में कुछ राज्यों और देशों पर उनके नियमों को देखने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं. मुझे नहीं लगता कि मध्यम अवधि में कोई भी राज्य वास्तव में दो अलग-अलग विनियमनों का पालन करने और उन्हें प्रोत्साहित करने में सहज होगा.
यूरोप जैक्स डेलॉर्स इंस्टीट्यूट की पॉलिसी एनालिस्ट क्लॉडिया एजवेदो ने विकासशील देशों को सीबीएएम के दायरे में कैसे शामिल किया जाए, इस विषय पर अपने विचार रखते हुए कहा, ‘‘हम विकासशील देशों के लिहाज से इन उपायों (सीबीएएम व अन्य) के प्रभावों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और यूरोपीय संघ को नीतिगत सिफारिशें प्रदान कर रहे हैं कि इन उपायों का अनुपालन करने वाले साझेदार देशों को सर्वोत्तम तरीके से कैसे शामिल किया जाए और कैसे उनका समर्थन किया जाए. निश्चित रूप से इन उपायों में सीबीएएम भी एक है. यह एक महत्वपूर्ण उपाय है और यूरोपीय संघ के दृष्टिकोण से यह एक जलवायु उपकरण है. यह कुछ ऐसा है जिसका उद्देश्य दक्षिण को प्रतिबिंबित करना है.’’
उन्होंने कहा, ‘‘यूरोपीय संघ उत्सर्जन व्यापार प्रणाली की कल्पना करता है और अब कार्बन के जोखिम से बचने के लिए वास्तविकता सीबीएएम वैयक्तिकरण है, जिसे अलग-थलग नहीं देखना चाहिएक्योंकि एक जलवायु उपकरण के रूप में इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली कीमतों से निपटना है. तो यह वह जगह है जहां जलवायु न्याय से जुड़ी ये सभी चिंताएं सामने आती हैं, लेकिन इसमें एक विभेदित सिद्धांत लागू होता है. यह एक चिंता का विषय है जिसका समाधान करने की कोशिश की जा रही है और मुख्य रूप से विकासशील देशों की तरफ से यह चिंता बड़ी शिद्दत से जाहिर की जा रही है. ’’
उन्होंने कहा, ‘‘वास्तविकता यह है कि सीबीएएम पहली बार बड़े पैमाने पर सीमा कार्बन समायोजन है और इसलिए भविष्य में कई देशों के लिए यह इम्तेहान की कसौटी बन सकता है जो विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करते हैं. इनमें से कुछ चिंताओं पर चर्चा की गई है. हालांकि यूरोपीय संघ ने भागीदार देशों को समर्थन देने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी है लेकिन इसे अब भी व्यावहारिक तरीके से लागू किया जाना है. इस समय जैसा कि मैंने कहा कि संक्रमण काल 2025 के अंत में समाप्त हो जाएगा और कुछ चीजें पहले से ही लागू हैं, लेकिन कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें अभी भी लागू करने की जरूरत है. उदाहरण के लिए, एक राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन का निर्माण करें और निश्चित रूप से इसका उद्देश्य केवल हरित हाइड्रोजन का उत्पादन करना और यूरोपीय संघ को निर्यात करना नहीं होना चाहिए.’’
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में फेलो आनंदिता गुप्ता ने सीबीएएम को लेकर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के नजरिये का जिक्र करते हुए कहा कि यह मामला कुछ हद तक जलवायु न्याय के मुद्दे से जुड़ा है. दरअसल, उस तर्क पर गौर किया जाना चाहिये जिसके आधार पर सीबीएएम वास्तव में कार्यान्वित या शुरू किया गया था. हमारे पास जलवायु का एक बहुत उच्च स्तर है, जिसे हम यूरोपीय संघ के भीतर हासिल करना चाहते हैं, जबकि आपके पास गैर यूरोपीय संघ के देश भी हैं जो सही मानक रखते हैं और इससे कार्बन रिसाव का खतरा पैदा होता है. यहां मुद्दा यह है कि हमने पर्यावरणीय संकेतों में इस अंतर को एक मुद्दे के रूप में पहचाना है जिसके कारण हम एक व्यापक समायोजन बनाना चाहते हैं और हम इसे करने के लिए एक सीमा तक लागू करना चाहते हैं.
उन्होंने कहा, ‘‘विडंबना यह है कि बहुत सारे ब्रिक देश और विकासशील अर्थव्यवस्थाएं इसे व्यापार में बाधा के रूप में देखने के दूसरे दृष्टिकोण से संरक्षणवादी उपाय के रूप में अधिक देखती हैं. लेकिन जब आप इसे जलवायु डिस्कोर्स के नजरिए से देखना चाहते हैं तो हमें यह समझना होगा कि अपनी जरूरतों के आधार पर अपने अल्पकालिक और दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित किए हैं और हम एक व्यापक समायोजन तंत्र के माध्यम से इसे प्रबंधित करना शुरू करेंगे. एक तथ्य यह भी है कि दोनों सिरे आपस में नहीं मिल पा रहे हैं. यह ‘मिस अलाइनमेंट’ है क्योंकि पेरिस समझौता कुछ और हासिल करने की कोशिश कर रहा था और यूरोपीय संघ यहाँ क्या करने की कोशिश कर रहा है. हम देखते हैं कि उसी तर्क का प्रतिनिधित्व किया जा रहा है या आगे बढ़ाया जा रहा है.’’
सस्टेनेबल ग्रोथ, ट्रेड एंड इंडस्ट्रियल पॉलिसी स्ट्रैटेजीज में अर्थशास्त्री सूटेम मामाले ने सीबीएएम को लेकर अफ्रीकी देशों में जागरूकता की कमी का जिक्र करते हुए कहा कि अफ्रीकी महाद्वीप के देशों में जागरूकता की कमी है. इस समय अन्य महाद्वीप औद्योगिकीकरण करने में सक्षम हैं, अफ्रीकी महाद्वीप औद्योगिकीकरण से जूझ रहा है. यह प्रकाश में आया था कि वास्तव में एक अंतरराष्ट्रीय मूल्य निर्धारण प्रणाली के संदर्भ में तंत्र की तलाश की जा रही है, जो कि अधिकांश अफ्रीकी देशों के लिए एक समाधान हो सकता है.
वेबिनार का संचालन क्लाइमेट ट्रेंड्स की असोसिएट डायरेक्टर अर्चना चौधरी ने किया. उन्होंने बताया कि सीबीएएम दरअसलनियमों का एक समूह है जिसका उद्देश्य ईयू में प्रवेश करने वाले सामान के लिए कार्बन उत्सर्जन पर उचित मूल्य निर्धारण सुनिश्चित करना है. सीबीएएम का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आयात का कार्बन मूल्य घरेलू उत्पादन के कार्बन मूल्य के समान हो. साथ ही कार्बन उत्सर्जन पर कमज़ोर विनियमन वाले गैर-ईयू देशों में उत्पादन स्थानांतरित करने से कंपनियों को हतोत्साहित किया जाए. इसके अलावा गैर-ईयूदेशों में स्वच्छ औद्योगिक उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाए.
गहन वस्तुओं के उत्पादन के दौरान उत्सर्जित कार्बन पर उचित मूल्य निर्धारित करता है, और गैर-ईयू देशों में स्वच्छ औद्योगिक उत्पादन को प्रोत्साहित करता है.
सीबीएएम इस बात की पुष्टि करते हुए कि ईयू में आयातित कुछ वस्तुओं के उत्पादन में उत्पन्न अंतर्निहित कार्बन उत्सर्जन के लिए एक मूल्य का भुगतान किया गया है, यह भी सुनिश्चित करेगा कि आयात का कार्बन मूल्य घरेलू उत्पादन के कार्बन मूल्य के बराबर है, और ईयू के जलवायु उद्देश्यों से समझौता नहीं किया जाता है. सीबीएएम को डब्ल्यूटीओ-नियमों के अनुकूल बनाया गया है.
सीबीएएम का यह क्रमिक परिचय ईयू उद्योग के डीकार्बनाइजेशन में मदद करने के लिए ईयू उत्सर्जन व्यापार प्रणाली (ईटीएस) के तहत मुफ्त अनुमतियों के आवंटन के चरणबद्ध ढंग से समापन के अनुरूप है.
सीबीएएम वर्ष 2026 से लागू होगा. इसमें 2023 से 2025 तक एक संक्रमणकालीन चरण होगा. सीबीएएमसीमेंट, लोहा, एल्युमीनियम और स्टील जैसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन से बनने वाले सामानों पर लागू होगा. सीबीएएम की वजह से यूरोपीय संघ के देशों में भारत द्वारा होने वाले निर्यात पर असर पड़ेगा. खासतौर से लोहा, स्टील और एल्युमीनियम जैसी धातुओं पर. इन वस्तुओं पर कार्बन शुल्क 19.8% से 52.7% तक है.
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