दीयों से मने दीवाली, मिट्टी के दीये जलाएँ

दीयों से मने दीवाली, मिट्टी के दीये जलाएँ

प्रेषित समय :20:05:26 PM / Wed, Oct 30th, 2024
Reporter : पलपल रिपोर्टर

-प्रियंका सौरभ

आज की भागती दौड़ती ज़िन्दगी में लोग अपनी परंपरा को भूलते जा रहे हैं. इसका परिणाम है कि आज देश में पर्यावरण संकट के साथ-साथ कई तरह की समस्या उत्पन्न हो रही है. जिसके चलते सभी लोग और जीव-जंतु के जीवन पर संकट है. इस परंपरा में एक दीपावली पर्व पर मिट्टी के दीये जलाना भी है. जिसको आज लोग भूलते जा रहे हैं और उसकी जगह पर इलेक्ट्रानिक लाइटों का उपयोग कर रहे हैं. लेकिन जो सुंदरता मिट्टी के दीये जलने पर दिखती है वह इलेक्ट्रानिक लाइटों के जलने से नहीं. इस बात को स्वयं लोग भी स्वीकार कर रहे हैं और इस परंपरा को लोगों के भूलने पर चिंता भी व्यक्त कर रहे हैं. मिट्टी के दीये जलाना परंपरा के साथ हमारी संस्कृति है. अपनी संस्कृति को कोई कैसे भूल सकता है. इसका सभी लोगों को ध्यान रखना चाहिए. मिट्टी के दीये जलाने के कई लाभ है. जिसका उल्लेख कई जगहों पर देखने और सुनने को मिलता है. इसलिए सभी लोग मिट्टी के दीयें जलाएँ.

दीपावली का त्यौहार मिट्टी के दीये से जुड़ा हुआ है. यह हमारी संस्कृति में रचा-बसा हुआ है. दीया जलाने की परंपरा आदि काल से रही है. भगवान राम की अयोध्या वापसी की ख़ुशी में अयोध्यावासियों ने घर-घर दीप जलाया था, तब से ही कार्तिक महीने में दीपों का यह त्यौहार मनाये जाने की परंपरा रही है. पिछले दो दशक के दौरान कृत्रिम लाइटों का क्रेज बढ़ा है. आधुनिकता की आंधी में हम अपनी पौराणिक परंपरा को छोड़कर दीपावली पर बिजली की लाइटिंग के साथ तेज ध्वनि वाले पटाखे चलाने लगे हैं. इससे एक तरफ़ मिट्टी के कारोबार से जुड़े कुम्हारों के घरों में अँधेरा रहने लगा, तो ध्वनि और वायु प्रदूषण फैलानेवाले पटाखों को अपना कर अपनी सांसों को ही खतरे में डाल दिया. अपनी परंपराओं से दूर होने की वज़ह से ही कुम्हार समाज अपने पुश्तैनी धंधे से दूर होता जा रहा है. दूसरे रोजगार पर निर्भर होने लगे हैं.एक समय था जब दीपावली पर्व को लेकर लोग मिट्टी के दीये खरीदने के लिए पहले ही कुम्हार को आर्डर कर देते थे. तब गाँव या अन्य किसी गाँव के कुम्हार के घर के सभी सदस्य काम में व्यस्त होते थे.

दीपावली पर्व पर कई लोगों के आर्डर को पूरा करने में दिन रात एक कर मेहनत करते थे. हालांकि उस समय उतनी आमदनी नहीं होती थी, लेकिन कुम्हारों को भी एक रुचि रहती थी कि इस परंपरा को जीवंत रखना है. लेकिन आज लोग मिट्टी के दीये जलाना धीरे-धीरे कम कर दिए हैं, इससे अब कुम्हार भी इसमें रुचि नहीं ले रहे. जिसका नतीजा है कि आज दीपावली पर्व में लोग घर में दो-चार मिट्टी के दीये जला कर सिर्फ़ एक परंपरा को किसी तरह निर्वहन कर रहे हैं. ज्यादातर लोग इलेक्ट्रानिक लाइटों, झालर और अन्य लाइटों को जला कर ही दीपावली पर्व में अपने घर को रोशनी से जगमग करने की कोशिश कर रहे हैं. हम सभी अब दीपावली के नाम पर पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं. अब हमें पुनः अपनी परंपरा को समझना होगा. हमें मिट्टी के दिये जलाने की परंपरा की पुन: शुरुआत करनी होगी. इससे कीड़े मकोड़े मरते हैं. झालर और लाइट से कीड़े नहीं मरते. हमारी संस्कृति सरसों के तेल के दिये जलाना है, अच्छे पकवान बनाना, मिठाइयाँ खाना और पड़ोसी को भी खिलाना, लोगों को उपहार देना आदि है. लेकिन लोग अब उतने समझदार नहीं हैं इसलिए पटाखे छूटेंगे.

लोग मिट्टी के दीये जलाएँ. इससे प्रदूषण भी नहीं होगा और परंपरा भी जीवंत रहेगी. दीपावली पर्व पर मिट्टी के दीये जलाना पूर्वजों के द्वारा बनाई गई परंपरा है. इसे हम सभी लोगों को बरकरार रखना चाहिए. दिवाली में मिट्टी के दीये जलाना हमारी संस्कृति और प्रकृति से जुड़ने का बहुत ही सुगम साधन है. यह भारतीय संस्कृति में बहुत ही शुभ और पवित्र माना जाता है. मिट्टी के दीये प्रेम, समरसता और ज्ञान के प्रतीक हैं. सामाजिक व आर्थिक आधार पर भी दीयों की खूबसूरती जगजाहिर है. इस बार दीपावली के दिन मिट्टी के दीये जलाने का संकल्प लेकर संस्कृति का बचाव करना है. सभी लोग मिट्टी के दिये ही जलाएँ. आज की युवा पीढ़ी इलेक्ट्रानिक लाइटों के प्रति अधिक रुचि रख रही है. घरों को सजाने से लेकर दीये जलाने में इलेक्ट्रानिक लाइटों का ही उपयोग कर रही है. जबकि यह सोचना चाहिए कि हमारी संस्कृति और परंपरा का निर्वहन करना युवाओं के कंधे पर ही है. गाँव या किसी शहर में जो कुम्हार है वह आज भी मिट्टी के दीये बनाते हैं. इसमें उन्हें सिर्फ़ आमदनी का लालच नहीं होता बल्कि उनमें अपनी संस्कृति और परंपरा को बरकरार रखने का उत्साह होता है. लेकिन लोग इसे भूलते जा रहे हैं.

पंरपरा व पर्यावरण के संरक्षण के लिए मिट्टी के दीये जलाना है. इनसे कोई प्रदूषण नहीं होता. कृत्रिम रोशनी आंखों और त्वचा के लिए हानिकारक होती है. मिट्टी के दीये की रोशनी आंखों को आराम पहुँचाती है. मिट्टी के दीये हमारी संस्कृति के एक अहम अंग हैं. दिवाली पर इसे जलाकर हम अपनी परंपराओं को याद रखते हैं. मिट्टी के दीये बनाने वाले कारीगरों को प्रोत्साहित करने का भी यह अच्छा मौका है. आइये, इस दीपावली, हम सभी मिलकर मिट्टी के दीये जलाएँ और एक स्वच्छ और हरा-भरा पर्यावरण बनाने में अपना योगदान दें. लोगों को इस पर विचार करना चाहिए. वर्तमान में अपनी परंपरा को बरकरार रखने और पर्यावरण बचाने के लिए इस दीपावली मिट्टी की दीये जलाने के प्रति लोगों ख़ास कर बच्चों व युवाओं काे जागरूक करने के लिए अभियान भी चलाएँ.

सबके पास उजाले हो

मानवता का संदेश फैलाते,  
मस्जिद और शिवाले हो.  
नीर प्रेम का भरा हो सब में,  
ऐसे सब के प्याले हो..

होली जैसे रंग हो बिखरे,  
दीपों की बारात सजी हो,  
अंधियारे का नाम न हो,  
सबके पास उजाले हो..

हो श्रद्धा और विश्वास सभी में,  
नैतिक मूल्य पाले हो.  
संस्कृति का करे सब पूजन,  
संस्कारों के रखवाले हो..

चौराहें न लुटे अस्मत,  
दु:शासन न फिर बढ़ पाए,  
भूख, गरीबी, आतंक मिटे,  
न देश में धंधे काले हो..

सच्चाई को मिले आजादी,  
लगे झूठ पर ताले हो.  
तन को कपड़ा, सिर को साया,  
सबके पास निवाले हो..

दर्द किसी को छू न पाए,  
न किसी आंख से आंसू आए,  
झोंपड़ियों के आंगन में भी,  
खुशियों की फैली डाले हो..

‘जिए और जीने दे’ सब  
न चलते बरछी भाले हो.  
हर दिल में हो भाईचारा  
नाग न पलते काले हो..

नगमों-सा हो जाए जीवन,  
फूलों से भर जाए आंगन,  
सुख ही सुख मिले सभी को,  
एक दूजे को संभाले हो..

-प्रियंका सौरभ 
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045
(मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) 

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-