उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, कोर्ट राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकती है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था राष्ट्रपति 3 माह में बिल पर फैसला करें

उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, कोर्ट राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकती है

प्रेषित समय :15:12:01 PM / Thu, Apr 17th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते राष्ट्रपति व राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय-सीमा तय की थी. इस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नाराजगी जताई है. उन्होंने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं.

उपराष्ट्रपति ने कहा कि हम ऐसे हालात नहीं बना सकते जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें. संविधान का अनुच्छेद 142 के तहत मिले कोर्ट को विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24-7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है. लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार सबसे अहम होती है. सभी संस्थाओं को अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करना चाहिए. उन्होंने साफ कहा कि कोई भी संस्था संविधान से ऊपर नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा.

दरअसल 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार व राज्यपाल के मामले में ऐतिहासिक फैसला लिया था. अदालत ने कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर एक महीने के भीतर फैसला लेना होगा. इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की. यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया. 11 अप्रैल की रात वेबसाइट पर अपलोड किए गए ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपालों की ओर से भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है. उनके फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला न्यायपालिका करेगी.

लेना होगा फैसला-

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 201 कहता है कि जब विधानसभा किसी बिल को पास कर दे. उसे राज्यपाल के पास भेजा जाए और राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे. इस स्थिति में राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देनी होगी या फिर बताना होगा कि मंजूरी नहीं दे रहे हैं.

ज्यूडिशियल रिव्यू-
 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 201 के तहत राष्ट्रपति का निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. यदि बिल में केंद्र सरकार के निर्णय को प्राथमिकता दी गई हो तो कोर्ट मनमानी या दुर्भावना के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा. अदालत ने कहा कि बिल में राज्य की कैबिनेट को प्राथमिकता दी गई हो और राज्यपाल ने विधेयक को मंत्रिपरिषद की सहायता व सलाह के विपरीत जाकर फैसला किया हो तो कोर्ट के पास बिल की कानूनी रूप से जांच करने का अधिकार होगा.

राज्य को बताने होगें कारण-
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब कोई समय-सीमा तय हो तो वाजिब टाइम लाइन के भीतर फैसला करना चाहिए. राष्ट्रपति को बिल मिलने के 3 महीने के भीतर फैसला लेना अनिवार्य होगा. यदि देरी होती है तो देरी के कारण बताने होंगे.

बार बार वापस नहीं भेज सकते बिल-
कोर्ट ने कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं. विधानसभा उसे फिर से पास करती है तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा. बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी.

राज्यपालों के लिए भी समय सीमा तय की थी-
8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के मामले पर गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी. जस्टिस जेबी पारदीवाला व जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया. कोर्ट ने कहा कि यह मनमाना कदम है और कानून के नजरिए से सही नहीं. राज्यपाल को राज्य की विधानसभा को मदद व सलाह देनी चाहिए थी. अदालत ने कहा था कि विधानसभा से पास बिल पर राज्यपाल एक महीने के भीतर कदम उठाएं.

कपिल सिब्बल ने की फैसले की सराहना-
पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सराहना करते हुए  कहा कि अब केन्द्र सरकार जानबूझ कर राज्यों के बिलों पर फैसला लेने में देरी नहीं करा सकेगी. उन्होंने कहा कि अटार्नी जनरल ने समय-सीमा निर्धारित करने के निर्णय का विरोध किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के विपरीत रुख को खारिज कर दिया.
नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते राष्ट्रपति व राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय-सीमा तय की थी. इस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नाराजगी जताई है. उन्होंने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं.

उपराष्ट्रपति ने कहा कि हम ऐसे हालात नहीं बना सकते जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें. संविधान का अनुच्छेद 142 के तहत मिले कोर्ट को विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24-7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है. लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार सबसे अहम होती है. सभी संस्थाओं को अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करना चाहिए. उन्होंने साफ कहा कि कोई भी संस्था संविधान से ऊपर नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा. दरअसल 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार व राज्यपाल के मामले में ऐतिहासिक फैसला लिया था.

अदालत ने कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर एक महीने के भीतर फैसला लेना होगा. इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की. यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया. 11 अप्रैल की रात वेबसाइट पर अपलोड किए गए ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपालों की ओर से भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है. उनके फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला न्यायपालिका करेगी.

लेना होगा फैसला-
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 201 कहता है कि जब विधानसभा किसी बिल को पास कर दे. उसे राज्यपाल के पास भेजा जाए और राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे. इस स्थिति में राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देनी होगी या फिर बताना होगा कि मंजूरी नहीं दे रहे हैं.

ज्यूडिशियल रिव्यू-
 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 201 के तहत राष्ट्रपति का निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है. यदि बिल में केंद्र सरकार के निर्णय को प्राथमिकता दी गई हो तो कोर्ट मनमानी या दुर्भावना के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा. अदालत ने कहा कि बिल में राज्य की कैबिनेट को प्राथमिकता दी गई हो और राज्यपाल ने विधेयक को मंत्रिपरिषद की सहायता व सलाह के विपरीत जाकर फैसला किया हो तो कोर्ट के पास बिल की कानूनी रूप से जांच करने का अधिकार होगा.

राज्य को बताने होगें कारण-
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब कोई समय-सीमा तय हो तो वाजिब टाइम लाइन के भीतर फैसला करना चाहिए. राष्ट्रपति को बिल मिलने के 3 महीने के भीतर फैसला लेना अनिवार्य होगा. यदि देरी होती है तो देरी के कारण बताने होंगे.

बार बार वापस नहीं भेज सकते बिल-
कोर्ट ने कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं. विधानसभा उसे फिर से पास करती है तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा. बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी.

राज्यपालों के लिए भी समय सीमा तय की थी-
8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के मामले पर गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी. जस्टिस जेबी पारदीवाला व जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया. कोर्ट ने कहा कि यह मनमाना कदम है और कानून के नजरिए से सही नहीं. राज्यपाल को राज्य की विधानसभा को मदद व सलाह देनी चाहिए थी. अदालत ने कहा था कि विधानसभा से पास बिल पर राज्यपाल एक महीने के भीतर कदम उठाएं.

कपिल सिब्बल ने की फैसले की सराहना-
पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सराहना करते हुए  कहा कि अब केन्द्र सरकार जानबूझ कर राज्यों के बिलों पर फैसला लेने में देरी नहीं करा सकेगी. उन्होंने कहा कि अटार्नी जनरल ने समय-सीमा निर्धारित करने के निर्णय का विरोध किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के विपरीत रुख को खारिज कर दिया.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-