-- डॉ सत्यवान सौरभ
भारत एक कृषि प्रधान देश है. यह वाक्य हम स्कूलों में पहली कक्षा से पढ़ते आ रहे हैं, पर सवाल यह है कि क्या वाकई भारत का दिल किसानों के साथ धड़कता है? क्या सरकारें, बैंकिंग संस्थाएं, और आर्थिक नीति निर्माता इस कृषि प्रधानता का सम्मान करते हैं? हाल ही में राजस्थान के एक वीडियो ने इस सवाल को फिर से जीवंत कर दिया, जहाँ एक पढ़ा-लिखा किसान एक्सिस बैंक की उस चाल को बेनक़ाब करता है, जो उसके जैसे लाखों भोले किसानों के साथ हो रही है—बिना बताये उनके किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) खाते से बीमा और पॉलिसियों के नाम पर पैसे काट लिए जाते हैं. यह घटना केवल एक राज्य की नहीं, बल्कि एक पूरे आर्थिक शोषण तंत्र का हिस्सा है.
किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) योजना को सरकार ने किसानों को सस्ती दर पर ऋण सुविधा उपलब्ध कराने के लिए शुरू किया था ताकि वह अपनी खेती की लागत को बिना साहूकारों के जाल में फंसे, पूरा कर सके. इस योजना की आत्मा थी – आसान, पारदर्शी और भरोसेमंद वित्तीय सहायता. परन्तु जब यही योजना निजी बैंकों के हाथ में जाती है, तो वह इसे एक बेचने योग्य उत्पाद बना देते हैं. किसानों को केसीसी के नाम पर जबरन जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा, और कभी-कभी तो मोबाइल सिम या अन्य सेवाएं भी थमा दी जाती हैं. इन सबकी कीमत सीधे उनके खाते से काट ली जाती है—बिना उनकी सहमति, बिना जानकारी.
राजस्थान में एक किसान द्वारा रिकॉर्ड किया गया वीडियो इस पूरे तंत्र की परतें खोलता है. किसान एक्सिस बैंक से पूछता है कि उसके खाते से पैसे किस अधिकार से काटे गए? बैंक कर्मियों के पास कोई स्पष्ट उत्तर नहीं. वह पॉलिसी की बात करते हैं, मगर सहमति के कोई दस्तावेज नहीं दिखा पाते. वीडियो में साफ झलकता है कि यह "नीति" नहीं, बल्कि नीचता है. किसान की भाषा, आत्मविश्वास और तथ्यात्मक तैयारी यह बताती है कि यदि किसान जागरूक हो जाए, तो यह तंत्र ज्यादा दिन नहीं टिकेगा.
ऐसा नहीं है कि केवल एक्सिस बैंक इस तरह की गतिविधियों में लिप्त है. कई अन्य निजी बैंक – ICICI, HDFC, IDFC और यहाँ तक कि कुछ सहकारी बैंकों पर भी किसान संगठनों ने ऐसे आरोप लगाए हैं. किसानों के खातों से बीमा के नाम पर सालाना हज़ारों रुपये काट लिए जाते हैं. कई बार तो उन्हें यह भी नहीं पता होता कि उनके नाम पर कोई पॉलिसी चालू की गई है. जब वे शिकायत करने बैंक जाते हैं, तो उन्हें या तो चुप करा दिया जाता है, या कहा जाता है – “यह नियम है”, “यह सिस्टम से कटता है”, या “आपने फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर किए थे”. यहाँ हस्ताक्षर का मतलब जबरन भरवाया गया फार्म होता है, जिसे किसान समझ ही नहीं पाता.
यह सवाल बेहद जरूरी है कि सरकारें इस पर क्या कर रही हैं? क्या उनके पास इस बात की जानकारी नहीं है कि बैंकों द्वारा किसानों के साथ धोखाधड़ी की जा रही है? अगर है, तो क्या अब तक कोई कठोर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि हो या ऋण माफी योजनाएं, यह सब किसानों के नाम पर चलती हैं. पर जब उनके ही पैसे चुपचाप काटे जाते हैं, तब वही सरकारें मौन क्यों हो जाती हैं? क्या सरकार निजी बैंकों की इस ‘अनैतिक कमाई’ में मौन साझेदार बन चुकी है?
हाल के वर्षों में किसानों ने कई बार इस विषय पर जनहित याचिकाएँ दायर की हैं. कुछ राज्यों की उच्च न्यायालयों ने इस पर ध्यान भी दिया है, पर कोई राष्ट्रीय स्तर पर एक ठोस नीति सामने नहीं आई. भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने कुछ दिशा-निर्देश ज़रूर जारी किए हैं, जैसे बीमा या कोई अन्य उत्पाद ग्राहक की स्पष्ट अनुमति से ही जोड़ा जाए, परंतु जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है.
शहरों में रहने वाला पढ़ा-लिखा ग्राहक जब बैंक में जाता है, तो उसे बीमा, पॉलिसी और ट्रांजेक्शन से जुड़ी हर बात बताई जाती है. लेकिन वही बैंक जब गाँव में शाखा खोलता है, तो वहाँ नियमों की किताबें गायब हो जाती हैं. ग्रामीण ग्राहक को ‘कमज़ोर, अनपढ़ और भोला’ मानकर बैंकों का रवैया ‘लूट और डराने’ वाला हो जाता है. इसे ही हम आर्थिक असमानता कहते हैं—जहाँ सुविधा नहीं, सिर्फ़ ‘शोषण’ पहुँचता है.
सरकार को चाहिए कि वह हर पंचायत स्तर पर डिजिटल और बैंकिंग साक्षरता शिविर आयोजित करे. किसान को यह समझाना जरूरी है कि वह क्या साइन कर रहा है और उसका क्या असर होगा. साथ ही RBI को एक ऐसा ऑनलाइन पोर्टल बनाना चाहिए जहाँ किसान अपने खाते से कटे हर रुपये का कारण जान सके, और बिना बैंक के पास जाए उसे शिकायत दर्ज कराने की सुविधा मिले. यदि किसी बैंक की कई शाखाओं से ऐसी शिकायतें आती हैं, तो उस बैंक पर किसान ऋण से जुड़ी सेवाओं पर रोक लगाई जाए. गाँव स्तर पर किसान जागरूकता समितियाँ बनें, जो बैंकिंग धोखाधड़ी की निगरानी करें और ज़रूरत पड़ने पर बैंक का बहिष्कार करें.
आज भारत का किसान न केवल मौसम से, ज़मीन से, और बाजार से लड़ रहा है, बल्कि बैंकों के दोगलेपन से भी जूझ रहा है. वो बैंक, जो कभी उसकी आर्थिक रीढ़ बनने का वादा करते हैं, अब उसकी पीठ में छुरा घोंपने लगे हैं. ऐसे में यह ज़रूरी है कि हम सिर्फ़ वीडियो देखकर हैरान न हों, बल्कि उस किसान की चेतना को अपनाएँ, जो सवाल करता है, जवाब मांगता है और अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाता है.
किसान को सिर्फ़ अनाज उगाने वाली मशीन न समझा जाए. वो भी एक सजग नागरिक है. जिस देश में उसके नाम पर बजट तैयार होता है, वहाँ उसकी जेब खाली करने वालों को माफ़ नहीं किया जा सकता. "संस्कारों ने झुकना सिखाया है, पर किसी की अकड़ के सामने नहीं"—इस वाक्य को केवल एक तस्वीर की सीमा में न रखें. यह किसानों के संघर्ष की असल कहानी है. अब समय आ गया है कि हर किसान, हर नागरिक, हर पत्रकार और हर नीति निर्माता यह समझे — अगर किसान की आवाज़ नहीं सुनी गई, तो कल खेत भी चुप हो जाएगा और थाली भी.
- डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148,01255281381