नई दिल्ली. एक समय था जब जलवायु संकट की बातें सिर्फ़ वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलनों या पर्यावरण संगठनों की याचिकाओं तक ही सीमित थीं. यह मुद्दा विशेषज्ञ मंडली और नीति-निर्माताओं के बीच चर्चा का विषय हुआ करता था, आम जनमानस के लिए शायद यह उतना सुलभ नहीं था. लेकिन, अब यह तस्वीर तेज़ी से बदल रही है. जलवायु संकट का मुद्दा अब अकादमिक हलकों से निकलकर सीधे अदालतों की चौखट पर दस्तक दे रहा है. कोर्टरूम, जो कभी सिर्फ़ न्याय के पारंपरिक मंच थे, अब जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अगली बड़ी लड़ाई के अखाड़े बन चुके हैं. ग्रैंथम रिसर्च इंस्टीट्यूट (लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स) के एक ताज़ा विश्लेषण ने इस बदलाव को पूरी तरह से उजागर किया है, जिसमें दुनिया भर में जलवायु मुकदमों की संख्या और प्रकृति में अभूतपूर्व परिवर्तन देखा गया है.
वैश्विक स्तर पर जलवायु मुकदमों में उछाल
रिपोर्ट के अनुसार, 2015 से 2024 के अंत तक दुनिया भर में कुल 276 जलवायु मामले उच्चतम न्यायालयों तक पहुंचे हैं. इनमें सुप्रीम कोर्ट और संवैधानिक अदालतें शामिल हैं, जो अपने-अपने देशों में कानून की अंतिम व्याख्या करने वाली सर्वोच्च संस्थाएं हैं. यह सिर्फ़ आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि यह एक नई वैश्विक चेतना का प्रतीक है. यह दर्शाता है कि आम लोग, स्थानीय समुदाय और विभिन्न संस्थाएं अब जलवायु परिवर्तन के लिए जवाबदेही की मांग कर रही हैं. वे अब सिर्फ़ सरकारों या बड़ी कंपनियों की नीतियों पर निर्भर नहीं रहना चाहते, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से ठोस कार्रवाई करवाना चाहते हैं.
इस बदलाव के कई उदाहरण दुनिया भर में देखने को मिल रहे हैं:
अमेरिका में, दो प्रमुख मामलों में राज्य सरकारों को अदालतों ने आदेश दिया है कि वे अपनी जलवायु कार्रवाई को और अधिक महत्वाकांक्षी बनाएं. यह एक महत्वपूर्ण कदम है जो दर्शाता है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका पर जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने का दबाव बना रही है.
यूरोप में, खासकर नॉर्वे और ब्रिटेन की सर्वोच्च अदालतें, नए जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को रोकने के पक्ष में खड़ी दिखी हैं. नॉर्वे ने तो नॉर्थ सी के एक नए तेल क्षेत्र के अनुमोदन पर ही रोक लगा दी, जो कि ऊर्जा कंपनियों के लिए एक बड़ा झटका है. यह दिखाता है कि कैसे अदालतें अब आर्थिक हितों पर पर्यावरणीय चिंताओं को प्राथमिकता दे रही हैं.
"दोतरफा सड़क": केवल संरक्षण ही नहीं, विरोध के मुकदमे भी
हालांकि, यह पूरी तस्वीर नहीं है. हर मुकदमा जलवायु संरक्षण के लिए नहीं लड़ा जा रहा है. ग्रैंथम इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है कि 2024 में दर्ज किए गए कुल 226 मामलों में से 60 ऐसे थे जो सरकार की मौजूदा जलवायु नीतियों के खिलाफ थे. इनमें से कई मामले तथाकथित "ESG (Environmental, Social, Governance) बैकलेश" का हिस्सा हैं. ये वे शक्तियां हैं जो जलवायु नीतियों को आर्थिक विकास या राजनीतिक स्वतंत्रता में बाधा मानती हैं. इस रिपोर्ट में यह भी आशंका व्यक्त की गई है कि अमेरिका में ट्रंप-वैन्स प्रशासन के तहत ऐसे मुकदमों में और तेज़ी आ सकती है, जिनका उद्देश्य मौजूदा जलवायु नीतियों को पलटना होगा. यह दर्शाता है कि जलवायु मुकदमेबाजी अब एक "दोतरफा सड़क" बन चुकी है, जहां दोनों पक्ष, यानी जलवायु समर्थक और विरोधी, अदालतों का रुख कर रहे हैं.
कंपनियों की बढ़ती जवाबदेही: "प्रदूषक भुगतान करे" और "ग्रीनवॉशिंग"
जलवायु मुकदमेबाजी की प्रकृति में एक और महत्वपूर्ण बदलाव आया है. अब यह सिर्फ़ सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों की जवाबदेही भी तय की जा रही है.
2015 से 2024 के बीच 80 से अधिक "प्रदूषक भुगतान करे" (polluter pays) मुकदमे दायर किए गए हैं, जिनमें प्रदूषण के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार संस्थाओं से आर्थिक मुआवज़े की मांग की गई है. इनमें से कई मामलों में कंपनियों को हर्जाना देने का आदेश मिला है, खासकर ब्राजील में अवैध जंगल कटाई से जुड़े मुकदमों में.
जर्मनी का चर्चित Lliuya बनाम RWE मामला इसका एक बेहतरीन उदाहरण है. भले ही यह मुकदमा सबूतों के अभाव में खारिज हो गया हो, लेकिन अदालत ने इसमें स्पष्ट रूप से कहा कि कंपनियों को उनके ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. यह न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है.
2024 में दर्ज किए गए कुल मुकदमों में से लगभग 20% कंपनियों के खिलाफ थे. इनमें से कई मुकदमे तथाकथित "ग्रीनवॉशिंग" पर केंद्रित थे. ग्रीनवॉशिंग तब होती है जब कंपनियां पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का झूठा दावा करती हैं, लेकिन वास्तव में उनके उत्पाद या प्रक्रियाएं टिकाऊ नहीं होतीं. ये मुकदमे अब सिर्फ़ तेल और गैस कंपनियों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि फैशन, खाद्य और वित्तीय क्षेत्रों के बड़े ब्रांड भी इसकी चपेट में आ रहे हैं, जो उनकी पर्यावरणीय दावों की सत्यता पर सवाल उठाते हैं.
भारत में जलवायु न्याय की पहली दस्तक
भारत में जलवायु मुकदमेबाजी अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण मामलों ने संकेत दिया है कि यह क्षेत्र जल्द ही तेज़ी से बढ़ सकता है. भारतीय न्यायपालिका ने हाल के वर्षों में पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभाई है, और अब जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को भी मौलिक अधिकारों से जोड़कर देखा जा रहा है.
ऋद्धिमा पांडे बनाम भारत सरकार (2017): यह एक ऐतिहासिक मामला है जहाँ महज़ 9 साल की ऋद्धिमा पांडे ने जलवायु न्याय के लिए आवाज़ उठाई. उन्होंने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) में याचिका दायर की थी कि भारत सरकार की जलवायु नीति पेरिस समझौते के तहत की गई प्रतिबद्धताओं के अनुरूप नहीं है. हालांकि NGT ने इस याचिका को खारिज कर दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लिया है और यह अब भी लंबित है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कई मंत्रालयों को नोटिस जारी कर जवाबदेही मांगी है. यह एक निर्णायक मोड़ है जो भारतीय न्यायपालिका को जलवायु न्याय की दिशा में आगे बढ़ा रहा है.
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड केस (एम.के. रणजीतसिंह बनाम भारत सरकार, 2024): यह मामला बेशक एक पक्षी, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की रक्षा के नाम पर शुरू हुआ था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहीं अधिक व्यापक और दूरगामी था. अदालत ने अपने ऐतिहासिक फैसले में साफ शब्दों में कहा कि "जलवायु परिवर्तन से मुक्त रहने का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार है." यह भारतीय संवैधानिक सोच में जलवायु को पहली बार इतनी स्पष्ट रूप से जगह देने जैसा है. यह अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) के दायरे को जलवायु सुरक्षा तक विस्तारित करता है, जो भविष्य के जलवायु मुकदमों के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है.
इन दो प्रमुख मामलों के अलावा, भारत में कई पर्यावरणीय याचिकाओं में जलवायु परिवर्तन का ज़िक्र ज़रूर आता है, लेकिन अदालतें अब तक इन मुद्दों को सहायक तर्क के रूप में ही देखती रही हैं, न कि मुकदमे की मूल भावना के रूप में.
भारत के लिए सबक और आगे की राह
दुनिया भर में जलवायु मुकदमों का बढ़ता चलन भारत के लिए कई महत्वपूर्ण सबक लेकर आता है. भारत में जलवायु नीति का ज़िक्र ज़रूर होता है, लेकिन अब समय आ गया है कि जलवायु न्याय एक स्पष्ट विधिक ढांचे में तब्दील हो. भारत के पास अभी तक कोई समर्पित जलवायु कानून नहीं है. ऐसे में, अदालतें मौजूदा पर्यावरण कानूनों और संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) के तहत ही जलवायु मामलों को सुन रही हैं. लेकिन जिस तेज़ी से जलवायु संकट गहराता जा रहा है, इस स्तर की कानूनी अस्पष्टता अब पर्याप्त नहीं रह गई है. एक विशिष्ट जलवायु कानून न केवल न्यायिक प्रक्रिया को सुगम बनाएगा बल्कि सरकारों और कंपनियों के लिए भी स्पष्ट दिशा-निर्देश तय करेगा.
जो दुनिया की अदालतें कर रही हैं, वह केवल न्याय नहीं दे रही हैं—वे वास्तव में बदलाव की राह खोल रही हैं. भारत में भी ऋद्धिमा और ग्रेट इंडियन बस्टर्ड जैसे मामले इस बात का स्पष्ट आह्वान कर रहे हैं कि जलवायु अब केवल पर्यावरणविदों का विषय नहीं, बल्कि जीवन, मानवाधिकार और संविधान का मूल विषय है.
जैसा कि ग्रैंथम इंस्टीट्यूट की विशेषज्ञ जोआना सेत्जर कहती हैं, "मुकदमेबाजी अब एक दोतरफा सड़क है." इसका मतलब है कि अदालतें अब जलवायु कार्रवाई को तेज़ करने और उसे रोकने – दोनों तरह के मुकदमों की जमीन बन चुकी हैं. भारत को यह तय करना है कि वह इस सड़क पर किस दिशा में आगे बढ़ना चाहता है. क्योंकि अगर हम जलवायु संकट से वाकई जूझना चाहते हैं, तो अदालत की डेस्क भी उतनी ही अहम होगी जितनी कोई नीति-निर्माण की मेज. न्यायिक सक्रियता और मजबूत कानूनी ढांचा ही हमें इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करने में मदद करेगा.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

