कहना मना है... जब कानून बोलने लगे और पत्रकार चुप हो जाएं

कहना मना है... जब कानून बोलने लगे और पत्रकार चुप हो जाएं

प्रेषित समय :20:17:10 PM / Wed, Jul 2nd, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

अभिमनोज 
डिजिटल मीडिया की तेज़ी से बढ़ती पहुंच  ने जहां अभिव्यक्ति को नया आकाश दिया, वहीं उसकी उड़ान पर अब कानून की बंदूकें तनी नज़र आती हैं. एक ओर सूचना का विस्फोट है, दूसरी ओर उस पर नियंत्रण का संकल्प. एक ओर लोकतंत्र की आत्मा है — विचारों की खुली अभिव्यक्ति, तो दूसरी ओर कानून की सख़्त धार है, जो ‘गलत’ और ‘असंगत’ के नाम पर बहुत कुछ रोकने का अधिकार मांग रही है. यह बहस अब किसी एक देश की नहीं रही. यह वैश्विक है. हर वह समाज जो डिजिटल हुआ है, अब साइबर विधियों और मीडिया की स्वतंत्रता के द्वंद्व से गुजर रहा है.

19 जून 2025 को मलेशिया की सरकार ने टेलीग्राम के दो समाचार चैनलों — Edisi Siasat और Edisi Khas — पर अदालत से प्रतिबंध लगवाया. आरोप था कि ये चैनल “अशोभनीय और भ्रामक” सामग्री का प्रकाशन कर रहे थे, जिससे जनता का भरोसा सरकारी संस्थाओं से डगमगा सकता था. अदालत ने तत्काल रोक लगाई — न कोई नया कंटेंट, न पुराना री-पब्लिश. प्रश्न यह है कि क्या यह सचमुच फेक न्यूज़ पर नियंत्रण था, या विचार की स्वतंत्रता पर एक सधा हुआ हमला?

20 जून 2025 को ब्रिटेन में BBC ने एक अमेरिकी AI स्टार्टअप Perplexity AI को कानूनी नोटिस भेजा. स्टार्टअप ने बीबीसी के लेखों को स्क्रैप कर अपने एआई मॉडल को ट्रेन किया. यह सिर्फ साइबर कानून का नहीं, बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) और पत्रकारिता की स्वतंत्रता से जुड़ा गंभीर मामला है. सवाल है कि जब जनरेटिव एआई पूरी दुनिया की सामग्री को निगल रहा है, तो क्या पत्रकारों का श्रम और विश्लेषण मशीनों की खुराक बनकर रह जाएगा?

22 जून 2025 को भारत में कर्नाटक सरकार ने एक प्रस्तावित विधेयक की घोषणा की, जिसके अंतर्गत सोशल मीडिया पर फेक न्यूज़ फैलाने पर सात साल की सजा और आर्थिक दंड का प्रावधान होगा. एक नियामक समिति डिजिटल कंटेंट पर निगरानी रखेगी. नागरिक समूहों ने इसे सेंसरशिप की आशंका बताया है. तर्क यह है कि जो कानून फेक न्यूज़ पर बने हैं, वे कहीं विचारों और असहमति की आवाज पर भी न लग जाएं.

तो क्या यह सब सेंसरशिप नहीं है? क्या अभिव्यक्ति पर नियंत्रण अब नया ‘नैतिक सुधार’ बन चुका है? दुनिया भर में सरकारें तकनीक के नाम पर मीडिया को नियंत्रित करना चाहती हैं, लेकिन वही सरकारें कभी-कभी स्वयं सूचना के सबसे बड़े ‘विवादास्पद स्रोत’ भी बन जाती हैं.

इसी बीच मीडिया भी निर्दोष नहीं है. डिजिटल दौड़ में, वायरल हेडलाइन और क्लिक के लालच में कई बार पत्रकारिता अपनी आत्मा खो बैठती है. सनसनी, फर्जी थंबनेल, निजता का अतिक्रमण और बिना सत्यापन के प्रकाशित खबरें — यह सब मीडिया की विश्वसनीयता को अंदर से खोखला कर रहे हैं. जब पत्रकार खुद ही ‘भ्रम’ फैलाएं, तो कानून की सख्ती को भी कोई नैतिक आधार मिल जाता है.

इसलिए यह संघर्ष सिर्फ सरकार बनाम मीडिया का नहीं है. यह एक त्रिकोणीय युद्ध है — कानून, नैतिकता और अभिव्यक्ति के बीच. भारत में आईटी अधिनियम 2000 और 2021 के नए नियम डिजिटल मीडिया को आचार संहिता में बांधने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं, प्रस्तावित डिजिटल इंडिया एक्ट आने वाले वर्षों में एक बड़ा बदलाव ला सकता है, जिसमें AI जनित कंटेंट, साइबर क्राइम, और डिजिटल निजता से जुड़े अनेक पहलू शामिल होंगे.

दूसरी ओर, यूरोपीय संघ अपने DSA और GDPR जैसे नियमों से प्लेटफॉर्म्स की जवाबदेही सुनिश्चित कर रहा है. अमेरिका अभी भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोच्च मानता है, जबकि चीन, रूस और खाड़ी देशों में सोशल मीडिया सीधे सरकारी निगरानी के अधीन है. भारत को इस द्वंद्व में संतुलन की राह तलाशनी है — न ज्यादा ढील, न अंधी सख्ती.

इस संपूर्ण परिदृश्य में एक बात स्पष्ट है — कानून अगर जरूरी हैं, तो सवाल भी ज़रूरी हैं. कौन तय करेगा कि क्या भ्रामक है? कौन गारंटी देगा कि नियंत्रण केवल अपराध रोकने तक सीमित रहेगा? और सबसे जरूरी — क्या सरकारें खुद अपने विरोध को सुनने को तैयार हैं?

मीडिया को भी खुद से सवाल पूछने होंगे. क्या हम सत्य के रक्षक हैं या ट्रेंडिंग टॉपिक के व्यापारी? क्या हम लोकतंत्र के प्रहरी हैं या एल्गोरिद्म के गुलाम?

यह लड़ाई कानूनी धाराओं से नहीं, बल्कि विवेक, शिक्षा और जवाबदेही से लड़ी जा सकती है. मीडिया को जिम्मेदारी के साथ बोलना होगा, और सरकारों को संयम के साथ सुनना होगा. अभिव्यक्ति पर कानून की लाठी नहीं, संवाद की ज़मीन चाहिए.

क्योंकि जब कानून बोलने लगे और पत्रकार चुप हो जाएं — तब लोकतंत्र की साँसें रुकने लगती हैं. 

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-