अभिमनोज
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में यह स्पष्ट किया है कि पिता की यह न केवल कानूनी बल्कि नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वह अपनी संतान का भरण-पोषण सुनिश्चित करे, चाहे वैवाहिक संबंध जैसे भी हों। यह फैसला ऐसे समय आया है जब अनेक पुरुष, खासकर पारिवारिक विवादों में उलझे हुए, बच्चों की जिम्मेदारियों से बचने के लिए अजीबो-गरीब तर्कों का सहारा लेते हैं।
इस मामले में, कांस्टेबल द्वारा यह दावा करना कि बच्ची उसकी संतान नहीं है और वह स्वयं एचआईवी संक्रमित है, इस आधार पर उसे भरण-पोषण से मुक्त नहीं किया जा सकता—यह कहते हुए हाईकोर्ट ने उसकी याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक बच्ची का जन्म वैवाहिक जीवन के दौरान हुआ है, तब तक उसकी संतान होने का presumption (कानूनी अनुमान) पिता के विरुद्ध जाएगा, जब तक कि इसका प्रतिवाद ठोस प्रमाणों से न किया जाए।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के उस स्थायी सिद्धांत के अनुरूप है जिसमें पूर्ववर्ती धारा 125 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत यह माना गया था कि पत्नी और नाबालिग संतान को भरण-पोषण मिलना उनका मौलिक अधिकार है, और इस जिम्मेदारी से पिता केवल बीमारी या आय के अभाव का प्रमाण देकर नहीं बच सकता, जब तक कि उसके पास कोई ठोस वैकल्पिक उपाय न हो। अब यह सिद्धांत भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अंतर्गत भी समान रूप से लागू रहेगा, जिससे यह स्पष्ट होता है कि कानून की दृष्टि में संतान का भरण-पोषण टालने योग्य उत्तरदायित्व नहीं बल्कि एक बाध्यकारी सामाजिक और संवैधानिक कर्तव्य है।
मीडिया रिपोर्ट्स हैं कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक कांस्टेबल की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने अपनी पत्नी और बेटी द्वारा दायर भरण-पोषण आदेश को चुनौती दी थी और कहा कि- फैमिली कोर्ट का आदेश पूरी तरह वैध है और इसमें हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है.
याचिकाकर्ता कांस्टेबल की ओर से अदालत में तर्क दिया गया था कि- बच्ची उसकी पुत्री नहीं है और वह स्वयं एचआईवी संक्रमित है, जिसके इलाज में भारी खर्च आता है, लिहाजा भरण-पोषण देना उसके लिए आर्थिक बोझ होगा.
इस मामले में कांस्टेबल, जोकि अभी कोण्डागांव जिला पुलिस बल में पदस्थ है, उसकी पत्नी ने फैमिली कोर्ट में धारा 125 सीआरपीसी के तहत पति पर शारीरिक प्रताड़ना, छोड़ देने और बेटी की देखरेख न करने जैसे आरोप लगाते हुए तीस हजार रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण की मांग की थी.
फैमिली कोर्ट अम्बिकापुर ने कुछ समय पहले अपना फैसला सुनाते हुए पत्नी की भरण-पोषण की मांग को अस्वीकार कर दिया, लेकिन छह वर्षीय बेटी के पक्ष में यह कहते हुए कि- बच्ची की परवरिश और शिक्षा के लिए सहायता जरूरी है, पांच हजार रुपये प्रतिमाह भरण-पोषण देने का आदेश पारित किया था.
इसके बाद, कांस्टेबल ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, जहां उसकी ओर से कहा गया था कि- बच्ची उसकी संतान नहीं है, वह एचआईवी संक्रमित है और इलाज में भारी खर्च आता है, इसलिए भरण-पोषण देना संभव नहीं है.
दोनों पक्षों को सुनने के बाद मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा की एकलपीठ ने कहा कि- फैमिली कोर्ट का आदेश दोनों पक्षों के साक्ष्यों पर आधारित है, आदेश में कोई त्रुटि नहीं है और याचिकाकर्ता के आरोप प्रमाणित नहीं हुए, बेटी को भरण-पोषण देना पिता की नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी है.
इसके साथ ही, हाईकोर्ट ने कांस्टेबल की पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए फैमिली कोर्ट का आदेश बरकरार रखा!
समान प्रकृति का एक महत्वपूर्ण मामला Supreme Court के Rajnesh v. Neha (2020) में सामने आया था, जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा कि पति भरण-पोषण के आदेश से बचने के लिए केवल "आर्थिक अक्षमता" का बहाना नहीं बना सकता, जब तक कि वह ईमानदारी से यह न साबित करे कि उसके पास कोई साधन नहीं है। कोर्ट ने उस मामले में maintenance guidelines भी जारी की थीं ताकि इस तरह के मुकदमे जल्द और न्यायसंगत तरीके से सुलझाए जा सकें।
इसी तरह, Delhi High Court ने Smt. Sunita Kachwaha v. Anil Kachwaha (2015) मामले में कहा था कि यदि पति पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी से भागता है, तो इसे cruelty (क्रूरता) माना जाएगा और ऐसे पति को न केवल भरण-पोषण देना होगा बल्कि उसके विरुद्ध वैधानिक कार्रवाई भी की जा सकती है।
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का यह निर्णय इस बड़ी संवैधानिक भावना की पुष्टि करता है कि बच्चों की जिम्मेदारी से कोई भी व्यक्ति केवल इस आधार पर नहीं भाग सकता कि उसका निजी जीवन असहज हो गया है। संतान का अधिकार सर्वोपरि है—और इसी से समाज में जवाबदेही और करुणा के मूल्य जीवित रहते हैं।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

