- अभिमनोज
जब हिंदी साहित्य ग्लैमर और गैजेट के बीच अपनी आत्मा को ढूँढने में व्यस्त है, तब बेगूसराय से निकलती एक त्रैमासिक पत्रिका "समय सुरभि अनंत" बिना शोर किए हिंदी के मूल स्वभाव, उसकी गरिमा, गहराई और गंध को अक्षुण्ण बनाए हुए है. यह एक पत्रिका नहीं, वह साँस है जो तब भी चलती रहती है जब हिंदी को "मार्केट" में वेंटिलेटर पर डाल दिया जाता है.
इसका संचालन और संपादन नरेंद्र कुमार सिंह जैसे जुझारू साहित्यसेवी कर रहे हैं, जो न किसी ग्रांट से चलते हैं, न किसी “क्लिकबाज़” साहित्यिक दल से जुड़ते हैं. यह एक व्यक्ति की सामूहिक साहित्यिक ज़िद है, जो बाज़ार से विमुख होकर विचार की मशाल थामे हुए है. बिहार के बेगूसराय से, जहां राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की हुंकार अब भी मिट्टी में गूंजती है, वहाँ से एक गंभीर, मूल्यपरक और समकालीन पत्रिका का बिना रुके प्रकाशित होते रहना, हिंदी साहित्य की उस आत्मा को जीवित रखने का प्रयास है, जिसे अब भी कुछ लोग अपने अंतःकरण में थामे हुए हैं.
यह पत्रिका किसी फंडिंग या संस्थागत संरचना की देन नहीं, बल्कि नरेंद्र कुमार सिंह जैसे साहित्य–सेवक की तपस्या है. वह इसके केवल संयोजक नहीं, बल्कि वह संकल्प शक्ति हैं जिन्होंने इसे एक नाम से आगे, एक मूल्य में बदल दिया है. मासिम गोर्की ने कहा था कि “हम कलम को हथियार की तरह नहीं, मशाल की तरह उठाते हैं.” यह पत्रिका उसी मशाल की चमक है, जो बाजार की कृत्रिम रोशनी के सामने खड़ी नहीं होती, बल्कि अपनी आंतरिक ज्योति से आलोक फैलाती है.
हमारे साहित्यिक इतिहास में कुछ पत्रिकाएँ केवल मंच नहीं रहीं, वे परंपरा बन गईं. धर्मयुग की आत्मा धर्मवीर भारती की दृष्टि में रची-बसी थी, हंस में प्रेमचंद का स्वप्न बोलता था. पश्चिमी साहित्यिक परंपरा में La Nouvelle Revue Française या The Partisan Review जैसी पत्रिकाएँ विचारों के दमन के विरुद्ध साहित्यिक स्वतंत्रता की गुंजाइश बनी रहीं. ऐसी पत्रिकाएं किसी 'सेंटर' से संचालित नहीं होतीं, वे हाशिए से नए केंद्र गढ़ती हैं. समय सुरभि अनंत उसी परंपरा की भारतीय अनुगूँज है - जहाँ न ग्लैमर है, न गुटबाजी, केवल रचनाशीलता की जिद है.
अप्रैल–जून 2025 अंक : एक वैचारिक दस्तावेज़
इस विशेषांक का केंद्रीय स्वर "सजल" नामक नव्य विधा है, जो हिंदी कविता की सहजता, शुद्धता और लघुता को एक सांकेतिक अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रस्तुत करती है. यह अंक डॉ. महेश 'दिवाकर' के अतिथि संपादन में प्रकाशित हुआ है, जिसमें सहयोग दिया है कस्तूरी झा 'कोकिल', ई. कन्हाई पंडित, ई. सुरेन्द्र कुमार 'विवेक' और स्वाती गोदर ने. परामर्श मंडल में डॉ. अमरसिंह वधान, डॉ. सिद्धेश्वर काश्यप और विजय कुमार जैसे साहित्यसेवी शामिल हैं. रेखांकन राजेंद्र परदेसी, सिद्धेश्वर और अरुण कुमार द्वारा संयोजित हैं.
संपादकीय "वृक्ष की आत्मा और भाषा की परछाईं" समसामयिक राष्ट्रीय–अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर वैचारिक टिप्पणी करता है. इसमें जम्मू–कश्मीर के पहलगाम में हिंदू यात्रियों पर हुए हमले, ऑपरेशन सिंदूर, अमेरिका की मध्यस्थता और भारत की राजनीतिक संप्रभुता पर चिन्ताजनक विमर्श शामिल है. यह केवल भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि साहित्यिक समाज की ज़िम्मेदार भागीदारी का दस्तावेज है.
अतिथि संपादक डॉ. महेश 'दिवाकर' ने "सजल" विधा पर विस्तृत प्रकाश डाला है, जो हिंदी गीतिकाव्य की एक सद्यः जन्मी विधा है. सजल का प्रवर्तन 5 सितंबर, 2016 को मथुरा में हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार डॉ. अनिल गहलौत द्वारा किया गया. डॉ. गहलौत ने अपनी श्रम साधना और अकूत हिंदी प्रेम के वशीभूत होकर हिंदी जगत् में सजल को प्रतिष्ठित किया और इसके विस्तृत मानकों का संचयन भी किया.
सजल को केंद्र में रखकर इस अंक में विविध रचनाओं का समावेश किया गया है. यह विधा दो पंक्तियों में एक बिंब, एक संकेत या एक कथ्य को इस प्रकार रचती है कि पाठक उसमें अर्थ की कई परतें महसूस कर सके.
जहाँ मिखाइल बाख्तिन ने भाषा को संप्रेषण से अधिक, एक विचार-संघर्ष का क्षेत्र माना था. साइमन द बोउवार की तरह जो मानती थीं कि “शब्द केवल वस्तुओं के लिए नहीं होते, वे संभावनाओं के लिए होते हैं”, समय सुरभि अनंत भी भाषा को संभावनाओं के विस्तार के रूप में रचती है.
रूप और आत्मा का संतुलन
इस पत्रिका में रूप और आत्मा का संतुलन सहज है. कविता, आलोचना - सभी विधाएँ केवल विधा नहीं, संवेदना के संवाहक हैं. कोई क्लिष्टता का बोझ नहीं ढोती, न ही सरलता के नाम पर सतही बनती है. यही संतुलन इसे अज्ञेय की ‘तारसप्तक’ परंपरा से जोड़ता है और निर्मल वर्मा की ‘नई संवेदना’ के निकट लाता है. यह पत्रिका साहित्य को केवल विषय नहीं, एक वैचारिक सन्निधान मानती है - जहाँ पाठक पाठक भर नहीं रहता, वह सह-लेखक बनता है.
एक पत्रिका, एक चेतना
समय सुरभि अनंत धर्मयुग या दिनमान की छाया में नहीं खड़ी, वह उन्हीं जैसी साहित्यिक गरिमा वाली परंपरा को अपने ढंग से आगे बढ़ाने वाली एक स्वतंत्र राह है , जिसकी जड़ें महानगरों की चमक में नहीं, बेगूसराय की मिट्टी की सोंधी जिद में धँसी हैं. यह पत्रिका किसी संस्थान की छत्रछाया में नहीं, एक आंतरिक साहित्यिक संकल्प से विकसित हुई है. यह अंक सिद्ध करता है कि हिंदी में अब भी संयमित, गहन और सुसंस्कारित साहित्य संभव है, यदि उसमें केवल प्रकाशन नहीं, प्रकाश की आकांक्षा हो.
यह अंक हिंदी साहित्य के लिए एक सजल उपलब्धि है. इसकी प्रत्येक रचना न केवल पाठक को भीतर से भिगोती है, बल्कि उसमें विचार और विवेक की आग भी सुलगाती है. यह महज़ कुछ रचनाओं का संकलन नहीं, बल्कि हिंदी भाषा की जड़ों तक पहुँचने और उन्हें पुनः सींचने का एक गहन प्रयास है. यह एक ऐसी आंतरिक ऊर्जा से ओतप्रोत है, जो आज के शोरगुल भरे समय में भी मौन रहकर अपनी बात कहती है- साफ़, सधी और सत्य के करीब.
इस पत्रिका को पढ़ना केवल एक अंक का पठन नहीं है, यह उस साहित्यिक प्रक्रिया का हिस्सा बनना है जहाँ भाषा केवल शब्दों का विन्यास नहीं, एक जीवित संवेदना बन जाती है. यहाँ साहित्य ‘उत्पादन’ नहीं, ‘अनुभव’ बनता है; लेखक और पाठक के बीच की दूरी घटती है, और संवाद एक साझा साधना का रूप ले लेता है.
यह हिंदी के भविष्य पर भरोसा करने जैसा है ,उस भविष्य पर, जहाँ साहित्य सत्ता का उपकरण नहीं, समाज की आत्मा का संवाहक होगा; जहाँ शब्दों का मूल्य उनकी संवेदना से मापा जाएगा, न कि उनकी बाज़ारी ताकत से.
समय सुरभि अनंत का समर्थन केवल एक पत्रिका का समर्थन नहीं है, बल्कि उन मूल्यों का समर्थन है जो हिंदी को जीवित, जागरूक और ज़रूरी बनाए रखते हैं. यह समर्थन उस रचनात्मक उजास के साथ खड़े होने जैसा है, जो अपने समय की सच्चाइयों को जटिलताओं में उलझाए बिना कहने का साहस रखती है. यह पत्रिका हमें याद दिलाती है कि साहित्य न तो तात्कालिक चर्चा से बनता है और न ही ग्लैमर से टिकता है. साहित्य का जीवन उसकी निर्भीकता, उसकी आत्मीयता और उसकी वैचारिक निरंतरता में निहित होता है और यही सब कुछ समय सुरभि अनंत में विद्यमान है.
इस पत्रिका को पढ़ना केवल एक अंक पढ़ना नहीं है , यह हिंदी के भविष्य पर भरोसा करना है. यह हमें यह यक़ीन दिलाता है कि साहित्य सिर्फ लिखा ही नहीं जाता, जिया भी जाता है और जब वह जिया जाता है, तो भाषा अपनी पूरी गरिमा में लौटती है.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-



