जब प्रतिक्रियाएँ दम तोड़ रही हों, तब सृजनिका जैसी पत्रिका किसी दीपक की तरह जलती दिखाई देती है,एक साहित्यिक भरोसा, एक आत्मा की पुकार, एक शब्द में जिंदा जिजीविषा. यह केवल एक पत्रिका नहीं, एक सृजनशील प्रतिरोध है. इसे पढ़ना मानो किसी बूढ़े पीपल के नीचे बैठकर उसकी कहानियाँ सुनना हो-धीमे, लेकिन गहराई तक उतर जाने वाला अनुभव.
अल्बेर कामू ने कहा था, The purpose of a writer is to keep civilization from destroying itself.
‘सृजनिका’ यही कार्य कर रही है-संवेदना के क्षय होते कालखंड में शब्दों को मनुष्यता का अंतिम आश्रय बना रही है.
यह छठा अंक (अप्रैल–जून 2025) केवल कविता, कहानी और व्यंग्य का संग्रह नहीं है, बल्कि अपने समय के विरुद्ध एक सर्जनात्मक हस्तक्षेप है. जब हिंदी साहित्य का विमर्श “ब्रांड” और “बाजार” के इर्द-गिर्द सिमटता जा रहा है, तब ‘सृजनिका’ सीमित संसाधनों और गहरी प्रतिबद्धता के साथ साहित्य की आत्मा को बचा लेने की चुपचाप लड़ाई लड़ रही है.
इस अंक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह केवल प्रकाशन नहीं है, बल्कि एक संवाद है-संवेदना और समर्पण के बीच. यह संवाद सिर्फ लेखनी का नहीं, दृष्टि और दायित्व का है.
टोनी मॉरिसन ने कहा था: If there is a book that you want to read, but it hasn't been written yet, then you must write it.
‘सृजनिका’ उन अनकहे अनुभवों को रचती है, जिन्हें मुख्यधारा साहित्य ने अनदेखा किया.
पत्रिका का मूल आधार उसका संपादकीय परिवार है. संतोष कुमार झा का अग्रलेख सामाजिक यथार्थ, मिट्टी की उर्वरता और साहित्य की ज़िम्मेदारी को बड़ी ईमानदारी से छूता है. वे लेखनी से पहले जीवन में साहित्य रचते हैं.
डॉ. अमरीश सिन्हा का सम्पादकीय कविता को केवल रस या लय नहीं, बल्कि एक वैचारिक साधना के रूप में प्रस्तुत करता है. उनका चिंतन आज की कविता की भीड़ में मौन की भाषा ढूंढता है-यह मौन शांति का नहीं, बल्कि आत्म-प्रतिबिंब का मौन है.T. S. Eliot की यह पंक्ति यहाँ बिल्कुल सटीक बैठती है:Genuine poetry can communicate before it is understood. सिन्हा जी की कविता की दृष्टि इसी पूर्व-समझ की परिधि में हमारी चेतना को स्पर्श करती है.
राजेश कुमार सिन्हा की भूमिका पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए. मैं उन्हें उस समय से जानता हूँ जब साहित्य उनके लिए प्रेम से बढ़कर एक सामाजिक जिम्मेदारी था. बेगूसराय और बरौनी की गलियों से लेकर साहित्यिक गलियारों तक, उनकी उपस्थिति हमेशा गंभीर, सृजनशील और संकल्पशील रही है. वे छात्र जीवन में ही वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद की मासिक पत्रिका ‘विज्ञान प्रगति’ के विज्ञान संवाददाता रह चुके हैं. शायद इसी कारण उनकी लेखनी में वैज्ञानिक संतुलन और मानवीय संवेदना का विलक्षण समन्वय दिखाई देता है.
अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने कहा था, There is nothing noble in being superior to your fellow man; true nobility is being superior to your former self. राजेश जी की लेखनी और उनकी भूमिका इसी आत्म-अनुशासन और सृजनशील विनम्रता की मिसाल है.
राजेश जी केवल एक पदनाम नहीं, एक प्रवाह हैं. वे मुख्य उप-संपादक हैं, लेकिन उनका योगदान ‘मुख्य’ से कहीं आगे और ‘उप’ से कहीं अधिक है. उनका नाम भले ही संपादन सूची में पीछे लिखा हो, लेकिन विचार और संगठन की दृष्टि से वे अग्रपंक्ति में खड़े हैं,वे उस जलवाहक की तरह हैं जो निर्झरिणी को निरंतर बनाए रखता है, बिना आवाज़ किए, बिना श्रेय माँगे, बिना थके.
अब यदि पत्रिका की साहित्यिक सामग्री की बात करें, तो इसकी कहानियाँ—जैसे ‘भला आदमी’ और ‘भजूम वाली बहू’—सिर्फ कथानक नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज की थरथराती नब्ज हैं. हर पात्र पाठक को अपना-सा लगता है, जैसे किसी खो चुकी संवेदना को पुनः स्पर्श कर रहे हों. इन रचनाओं की ताक़त यह है कि ये हमें चौंकाती नहीं, बल्कि भीतर तक बदल देती हैं.
फ्रांज काफ्का ने कहा था: A book must be the axe for the frozen sea inside us. ‘सृजनिका’ की ये कहानियाँ इसी तरह जमी हुई संवेदनाओं को तोड़ने का काम करती हैं.
कविताएँ- ‘अर्थ’, ‘प्रेम’, ‘विरह’, ‘शब्द’ – ऐसी हैं जैसे किसी शांत झील में भावनाओं का पत्थर गिरा हो. इनमें शोर नहीं है, लेकिन गहराई है; इनमें नाटकीयता नहीं, बल्कि आत्मावलोकन है.
व्यंग्य–जैसे ‘कविता सम्मेलन बनाम चुटकुलेबाज़ी’ या ‘सोने में निवेश के हिंट’–अपनी ठंडी, सधी हुई व्यंग्य भाषा के साथ न केवल हँसाते हैं, बल्कि पाठक को सोचने पर विवश करते हैं.
यह पत्रिका कोई कॉस्मेटिक प्रकाशन नहीं है. इसमें ‘फोंट’ की जगह ‘स्वर’ ज्यादा उभरते हैं. यह उस ‘पुरानी हिंदी’ की याद दिलाती है जिसमें भाव ही ब्रांड था, और जहाँ आत्मा की सच्चाई को कोई ग्राफिक नहीं छुपा सकता था.
जॉर्ज ऑरवेल ने एक बार लिखा था: Good prose is like a window pane. ‘सृजनिका’ के पन्ने इसी पारदर्शिता और स्पष्टता से भरे हुए हैं.
‘सृजनिका’ उन लेखकों को प्रस्तुत करती है जो ज़िंदा हैं लेकिन दिखाए नहीं जाते. उन कवियों को जगह देती है जो मंच पर नहीं, अकेलेपन में चेतना को झकझोरने वाला शोर रचते हैं. और उन पाठकों को आमंत्रित करती है जो बेस्टसेलर नहीं, बल्कि ‘सत्य’ और ‘सौंदर्य’ पढ़ना चाहते हैं.
भले ही यह त्रैमासिक हो, इसकी गूंज सतत है. प्रतिक्रियाओं के शून्य में यह एक जीवित प्रतिरोध है. जब अधिकांश कुछ 'छपने' के लिए नहीं, 'बिकने' के लिए रचा जा रहा हो, तब ‘सृजनिका’ जैसे प्रयास एक सांस्कृतिक शरण्य बन जाते हैं.अंततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जब सब ओर साहित्यिक नैराश्य है, तब ‘सृजनिका’ जैसे प्रयास हिंदी साहित्य की आत्मा को बचा रहे हैं. इस हिम्मत, इस आत्म-संयम, इस समर्पण और इस असंभव से लगते यत्न को मेरा आत्मीय व वैचारिक नमन.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

