मंदिर, तनाव और पर्यटन ने कैसे बदला थाईलैंड और कंबोडिया का यात्रा परिदृश्य

मंदिर, तनाव और पर्यटन ने कैसे बदला थाईलैंड और कंबोडिया का यात्रा परिदृश्य

प्रेषित समय :15:01:50 PM / Wed, Jul 30th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

थाईलैंड और कंबोडिया जैसे दक्षिण–पूर्व एशियाई देशों की पहचान ऐतिहासिक मंदिरों, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और पर्यटक–आकर्षण केंद्रों के रूप में रही है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन दोनों देशों में पर्यटन की प्रकृति जिस प्रकार से बदली है, वह केवल वैश्विक ट्रेंड या स्थानीय प्रचार से नहीं, बल्कि सीमा विवाद, सांस्कृतिक विरासत पर दावा, और बुनियादी ढांचे में भारी बदलाव के कारण भी है. विशेष रूप से मंदिरों को लेकर चल रही कूटनीतिक खींचतान ने पर्यटन पर वैचारिक, भौगोलिक और प्रशासनिक स्तर पर नई परतें जोड़ दी हैं.

थाईलैंड और कंबोडिया के बीच तनाव का एक प्रमुख बिंदु रहा है — प्रीह विहेयर मंदिर. यह 11वीं सदी का खमेर मंदिर दोनों देशों की सीमा पर स्थित है और युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया है. यद्यपि 1962 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने इस मंदिर पर कंबोडिया के स्वामित्व को मान्यता दी, लेकिन थाईलैंड लगातार इसके आसपास के क्षेत्र पर अपना दावा करता रहा है. समय–समय पर यह विवाद हिंसक झड़पों में भी तब्दील हुआ है, जिससे दोनों देशों के सीमावर्ती इलाकों में सुरक्षा बढ़ाई गई और पर्यटकों की आवाजाही प्रभावित हुई.

प्रीह विहेयर के अलावा अंगकोर वाट और थाईलैंड के फाएट मंदिर जैसे ऐतिहासिक स्थलों को लेकर भी सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा का माहौल रहा है. दोनों देश खमेर साम्राज्य की सांस्कृतिक विरासत के उत्तराधिकारी होने का दावा करते रहे हैं. इस द्वंद्व ने अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की रुचि को भी प्रभावित किया है, जहां एक ओर वे इन भव्य मंदिरों को देखना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर वे ऐसे स्थलों से बचना भी चाहते हैं जहां राजनीतिक अस्थिरता की आशंका हो.

पर्यटन पर प्रभाव केवल सीमाओं तक सीमित नहीं है. इन तनावों ने दोनों देशों को अपनी संस्कृति को एक रणनीतिक पूंजी के रूप में देखने पर विवश किया है. कंबोडिया ने जहां अंगकोर के संरक्षण और प्रचार के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाया, वहीं थाईलैंड ने अपने मंदिरों और बौद्ध विरासत को समसामयिक पर्यटन के अनुरूप डिजिटल और आभासी माध्यमों में ढाला है. इन प्रयासों ने उन पर्यटकों को आकर्षित किया है जो ऐतिहासिक स्थलों के साथ–साथ स्थिरता और समावेशी अनुभव भी चाहते हैं.

कोविड–19 महामारी ने भी इस परिवर्तन को तेज किया. महामारी के दौरान जब अंतरराष्ट्रीय पर्यटन थम गया, तब थाईलैंड और कंबोडिया दोनों ने आंतरिक पर्यटन को प्रोत्साहित करने के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों को नये ढंग से प्रस्तुत किया. इसने मंदिरों को केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि ‘रील–योग्य’ डिजिटल स्पेस, वेलनेस रिट्रीट और आध्यात्मिक टूरिज़्म हब के रूप में बदला. मंदिरों के आसपास स्थानीय कारीगरी, खाद्य संस्कृति और सांस्कृतिक उत्सवों को संजोया गया, जिससे पर्यटन अनुभव बहुआयामी बन सका.

हालाँकि, यह भी सच है कि इस बदलाव के साथ कई पर्यावरणीय और सामाजिक सवाल भी उठ खड़े हुए हैं. खासकर अंगकोर वाट परिसर में अत्यधिक निर्माण और पर्यटकों की भीड़ ने पुरातत्विक संरचना पर प्रभाव डाला है. युनेस्को और स्थानीय प्रशासन को हस्तक्षेप करना पड़ा, जिससे पर्यटन गतिविधियों को सीमित किया गया और संरक्षित क्षेत्रों में जाने के नियम कड़े किए गए. इसी तरह थाईलैंड में भी कई लोकप्रिय मंदिरों में ‘डिजिटल व्यवहार संहिता’ लागू की गई, जिसमें तीर्थस्थलों पर सोशल मीडिया के लिए वीडियो या तस्वीरें लेने की सीमाएँ तय की गईं.

इन तमाम घटनाओं और उपायों के बीच यह स्पष्ट है कि मंदिर अब केवल धार्मिक या पर्यटन स्थलों तक सीमित नहीं हैं. वे एक सांस्कृतिक पहचान, राजनयिक रणनीति और आर्थिक विकास का माध्यम बन चुके हैं. थाईलैंड और कंबोडिया में यह परिवर्तन तेज़ी से हुआ है, लेकिन इसके परिणाम दीर्घकालिक हैं.

जहाँ पहले पर्यटक केवल मंदिरों की भव्यता देखने आते थे, अब वे उनके पीछे की कहानी, संघर्ष, संरक्षण की प्रक्रिया और स्थानीय समुदाय के योगदान को भी जानने लगे हैं. यह पर्यटन की नई प्रवृत्ति है — जहाँ केवल दृश्य नहीं, संदर्भ भी महत्वपूर्ण हो गया है.

संक्षेप में कहा जा सकता है कि थाईलैंड और कंबोडिया के मंदिरों ने पर्यटन को बदला है, लेकिन साथ ही खुद भी बदल गए हैं. वे अब केवल इतिहास की प्रतिकृतियाँ नहीं, बल्कि समकालीन चेतना, कूटनीति और सांस्कृतिक पुनर्रचना के जीवित प्रतीक हैं. इन्हीं तनावों और प्रयासों के बीच एक नया पर्यटन उभरा है — अधिक संवेदनशील, अधिक जागरूक और अधिक जुड़ा हुआ.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-