विशेष संवाददाता, हैदराबाद. सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम आदेश जारी करते हुए तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष को निर्देश दिया है कि वे भारत राष्ट्र समिति (BRS) के 10 विधायकों के दलबदल (defection) से संबंधित याचिकाओं पर तीन महीने के भीतर निर्णय लें. यह निर्देश संविधान की दसवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले एंटी-डिफेक्शन कानून की समयबद्धता और प्रासंगिकता को पुनः स्थापित करता है. राजनीतिक विमर्श और दलगत नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में यह निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा रहा है.
गौरतलब है कि ये दस विधायक कथित रूप से भारतीय जनता पार्टी (BJP) में शामिल हो गए थे, लेकिन उन्होंने अपनी मूल पार्टी BRS से इस्तीफा नहीं दिया और न ही विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष स्वयं को अयोग्य घोषित करने की मांग की. इसके बाद BRS ने इन विधायकों के विरुद्ध दल बदल कानून के तहत अयोग्यता की याचिका दायर की थी, जिस पर महीनों से कोई निर्णय नहीं लिया गया था. अब सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद विधानसभा अध्यक्ष को तीन महीने की समयसीमा दी गई है, जिसके भीतर उन्हें इन याचिकाओं का निस्तारण करना होगा.
यह निर्देश भारत के संवैधानिक ढांचे में विधायिका की निष्पक्षता और उत्तरदायित्व की आवश्यकता को रेखांकित करता है. अतीत में कई राज्यों में देखा गया है कि अध्यक्षों द्वारा दल बदल से जुड़ी याचिकाओं पर निर्णय लेने में देरी की जाती रही है, जिससे सत्ताधारी दलों को राजनीतिक लाभ प्राप्त होता है. यह देरी अक्सर सत्ता समीकरणों के अनुरूप निर्णय लेने के लिए की जाती है. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश न केवल तेलंगाना बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी राजनीतिक शुचिता की दिशा में एक उदाहरण प्रस्तुत करता है.
राजनीतिक दृष्टि से भी यह फैसला BRS और BJP दोनों के लिए महत्व रखता है. BRS ने जहां इस फैसले को लोकतंत्र की जीत बताया है, वहीं BJP ने भी इस पर सहमति जताते हुए कहा है कि दोषियों को जवाबदेह ठहराना आवश्यक है. हालांकि दोनों दलों की प्रतिक्रिया अलग-अलग दृष्टिकोण से प्रेरित हो सकती है, लेकिन यह निर्विवाद है कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश एक आवश्यक चेतावनी के रूप में कार्य करेगा.
यह मामला एंटी-डिफेक्शन कानून की व्यावहारिक चुनौतियों को भी उजागर करता है. इस कानून की मंशा विधायकों को अनुशासित रखना और दलगत स्थिरता सुनिश्चित करना रही है, लेकिन अध्यक्ष की भूमिका निष्पक्ष नहीं होने की स्थिति में यह कानून अक्सर निष्प्रभावी हो जाता है. कोर्ट के इस निर्णय ने यह संकेत दिया है कि अब इस कानून के तहत मामलों को अनिश्चितकाल तक लटकाया नहीं जा सकेगा.
इस निर्देश के बाद BRS ने भी राजनीतिक रूप से सक्रियता बढ़ा दी है और बाय-इलेक्शन की तैयारियाँ आरंभ कर दी हैं. पार्टी सूत्रों के अनुसार, नेतृत्व ने संभावित प्रत्याशियों की सूची तैयार करना शुरू कर दिया है और चुनाव क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं को पुनर्गठित किया जा रहा है. दूसरी ओर, BJP इस निर्णय को अपनी वैधता की पुष्टि के रूप में देख रही है और उसे उम्मीद है कि ये विधायक विधानसभा में उनकी संख्या बढ़ाएंगे. हालांकि यह तभी संभव होगा जब अध्यक्ष उन्हें अयोग्य नहीं ठहराते.
इस पूरे प्रकरण से एक गहरी संवैधानिक बहस भी जन्म लेती है. क्या विधानसभा अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से दलगत तटस्थता की आशा की जा सकती है? बार-बार यह सिद्ध हुआ है कि अध्यक्ष का पद, चाहे वह किसी भी दल से क्यों न आया हो, राजनीतिक दबावों से अछूता नहीं रहता. सुप्रीम कोर्ट पहले भी कह चुका है कि अध्यक्ष का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत आता है, लेकिन निर्णय में विलंब रोकने के लिए कोई स्पष्ट दंडात्मक प्रावधान नहीं है.
वर्तमान घटनाक्रम भविष्य में दल बदल कानून में संशोधन की आवश्यकता की ओर संकेत करता है. कई विशेषज्ञों का मत है कि अध्यक्ष की भूमिका को न्यायिक या अर्ध-न्यायिक संस्था को सौंपा जाना चाहिए ताकि निष्पक्षता और समयबद्धता सुनिश्चित हो सके.
तेलंगाना की राजनीति में यह मामला विधानसभा चुनावों से पूर्व राजनीतिक समीकरणों को भी प्रभावित कर सकता है. यदि ये विधायक अयोग्य घोषित किए जाते हैं और उपचुनाव होते हैं, तो यह BRS के लिए जनमत संग्रह जैसा होगा. वहीं BJP के लिए यह एक अवसर होगा यह दिखाने का कि उसके पास ज़मीनी समर्थन है.
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश सिर्फ कानूनी प्रक्रिया नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक नैतिकता का पुनः सशक्तिकरण है. यह विधायकों को यह संदेश देता है कि यदि वे जनादेश को धोखा देकर पार्टी बदलते हैं, तो उन्हें कानूनी और नैतिक जवाबदेही से गुजरना पड़ेगा.
संक्षेप में कहा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश न केवल तेलंगाना के राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करेगा, बल्कि देश भर में एंटी-डिफेक्शन कानून के क्रियान्वयन की दिशा में एक निर्णायक मोड़ भी प्रस्तुत करेगा. यदि इस आदेश का प्रभावी ढंग से पालन किया गया, तो यह भारतीय लोकतंत्र को अधिक उत्तरदायी, पारदर्शी और जनोन्मुख बनाने की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

