भारत और अमेरिका की साइबर सुरक्षा नीति में व्यापक अंतर, विशेषज्ञता और रणनीतिक सोच पर टकराव

भारत और अमेरिका की साइबर सुरक्षा नीति में व्यापक अंतर, विशेषज्ञता और रणनीतिक सोच पर टकराव

प्रेषित समय :21:57:15 PM / Mon, Aug 4th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

नई दिल्ली . साइबर सुरक्षा वैश्विक भू-राजनीतिक विमर्श का अनिवार्य हिस्सा बन चुकी है। हाल ही में अमेरिकी सीनेट ने ट्रंप के करीबी माने जाने वाले शॉन केयर्नक्रॉस को राष्ट्रीय साइबर निदेशक नियुक्त कर यह स्पष्ट कर दिया है कि अमेरिका अब साइबर नीति को अधिक आक्रामक राजनीतिक और रणनीतिक दृष्टिकोण से संचालित करेगा। वहीं, भारत अभी भी अपनी राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति को अपडेट करने के इंतज़ार में है, जिससे देश की डिजिटल संरचना पर नए खतरों का प्रभाव साफ महसूस हो रहा है।शॉन केयर्नक्रॉस की नियुक्ति अमेरिका में साइबर नीति के राजनीतिकरण की ओर इशारा करती है, लेकिन इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वहां साइबर नीति को राष्ट्रीय सुरक्षा और वैश्विक प्रतिस्पर्धा का केंद्र मान लिया गया है। भारत को भी अपनी साइबर नीति को तकनीकी सुधार से ऊपर उठाकर रणनीतिक और वैचारिक ढांचे में बदलने की आवश्यकता है, जिसमें राजकीय प्राथमिकता, कानूनी समर्थन और निजी क्षेत्र की भागीदारी शामिल हो।

यदि भारत इस दिशा में कदम नहीं बढ़ाता, तो उसकी डिजिटल संप्रभुता विदेशी ताकतों के हाथों कमजोर पड़ सकती है। अब समय है कि भारत अपनी साइबर सुरक्षा नीति को केवल दस्तावेज नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का अभिन्न अंग बनाए।

अमेरिका का साइबर नेतृत्व और राजनीतिक नियंत्रण

शॉन केयर्नक्रॉस की नियुक्ति कई मायनों में महत्वपूर्ण है। उनके पास तकनीकी विशेषज्ञता भले ही नहीं है, लेकिन ट्रंप प्रशासन के साथ उनके गहरे संबंध अमेरिका की साइबर नीति में राजनीतिक दखल को दर्शाते हैं। इससे यह संकेत भी मिलता है कि व्हाइट हाउस अब साइबर रणनीति को महज़ तकनीकी क्षेत्र नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति और वैश्विक प्रभुत्व के महत्वपूर्ण साधन के रूप में देख रहा है।

केयर्नक्रॉस ने पुष्टि के दौरान कहा कि साइबर रणनीतिक वातावरण लगातार बदल रहा है और उनके नेतृत्व में अमेरिका साइबर नीतियों को ठोस परिणामों में बदलने की कोशिश करेगा।

भारत की साइबर रणनीति अब भी अधूरी और अस्थिर

वहीं भारत की बात करें तो उसकी राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति अब भी 2013 की पुरानी रूपरेखा पर टिकी हुई है। नया मसौदा 2020 से लंबित है और इसके अभाव में देश डिजिटल खतरों से मुकाबले में पीछे दिखाई देता है। CERT-In (Indian Computer Emergency Response Team) देश की प्रमुख साइबर निगरानी संस्था है, लेकिन उसके पास कानूनी अधिकार और संसाधनों की भारी कमी है।

इसके परिणामस्वरूप AIIMS जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों पर साइबर हमले, क्रिप्टो फ्रॉड, और डेटा लीक की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं। बावजूद इसके, भारत में अब तक साइबर इन्फ्रास्ट्रक्चर को रणनीतिक संपत्ति के रूप में नहीं देखा गया है, जैसा अमेरिका में होता है।

संरचनात्मक तुलना और साझेदारी में अंतर

अमेरिका में ONCD (Office of the National Cyber Director) के अंतर्गत निजी कंपनियों, सुरक्षा एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय साझेदारों के साथ गहरा समन्वय है। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी टेक कंपनियाँ सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा संवाद में भागीदार हैं। वहीं भारत में यह साझेदारी अभी भी संवाद की सीमाओं में बंधी हुई है, जहां निजी क्षेत्र को पूर्णतः विश्वास में लेना बाकी है।

भारत में डेटा संरक्षण कानून (DPDP Act 2023) लागू तो हुआ है, लेकिन वह भी केवल व्यक्तिगत डेटा के इर्दगिर्द घूमता है, जबकि आक्रामक साइबर हमलों, क्रिटिकल इंफ्रास्ट्रक्चर सुरक्षा और रणनीतिक साइबर जवाबी हमलों के लिए कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं है।

क्या भारत को अमेरिकी मॉडल अपनाना चाहिए

अमेरिका ने जहां “Defend Forward” नीति के तहत साइबर खतरों को सीमा पार ही निष्क्रिय करने की रणनीति अपनाई है, वहीं भारत अब तक केवल रक्षात्मक रुख अपनाता रहा है। भारत को इस सोच से बाहर निकलकर राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा को एक आक्रामक और पूर्व-सक्रिय रणनीति में बदलने की आवश्यकता है। इसके लिए राष्ट्रीय साइबर समन्वय केंद्र (NCCC) और CERT-In को और अधिक स्वायत्त, सशक्त और संसाधन-संपन्न बनाना होगा।

साथ ही भारत को अपने मानव संसाधन विकास पर भी जोर देना होगा। अमेरिका में साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों की एक समर्पित टीम है, जिसे ‘Cyber Corps’ के रूप में प्रशिक्षित किया जाता है, जबकि भारत में राज्य स्तर पर भी साइबर विशेषज्ञों की भारी कमी है।

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-