SSC घोटाले पर सन्नाटा क्यों: जब युवाओं की आवाज़ भी राजनीतिक मुद्दा नहीं बनती

SSC घोटाले पर सन्नाटा क्यों: जब युवाओं की आवाज़ भी राजनीतिक मुद्दा नहीं बनती

प्रेषित समय :22:47:12 PM / Tue, Aug 5th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

SSC (Staff Selection Commission) परीक्षाओं में बार-बार हो रही गड़बड़ियों और धांधली ने जिस तरह लाखों युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ किया है, वह भारत के लोकतांत्रिक और प्रशासनिक चरित्र पर सीधा हमला है. सोशल मीडिया पर #SSCScam, #SSCMismanagement, #JusticeForAspirants जैसे हैशटैग समय-समय पर ट्रेंड करते हैं, लेकिन इसके बावजूद कोई बड़ी राजनीतिक पार्टी इस मुद्दे को केंद्रीय राजनीतिक विमर्श में नहीं ला पाती.

भारत में युवाओं की आकांक्षाएं सबसे बड़ा लोकतांत्रिक संसाधन हैं. हर साल करोड़ों युवा सरकारी भर्तियों, प्रतियोगी परीक्षाओं और नौकरियों के लिए कठिन परिश्रम करते हैं. लेकिन जब उन्हीं युवाओं को प्रक्रियागत लापरवाही, तकनीकी विफलताओं या घोटालों का शिकार होना पड़ता है, तब उनकी आवाज़ केवल सोशल मीडिया तक सीमित रह जाती है. हालिया SSC Phase-13 परीक्षा विवाद इसका ताज़ा उदाहरण है, जिसने फिर से यह सवाल खड़ा कर दिया है: क्या युवा अब भी इस लोकतंत्र के प्राथमिक हितधारक हैं या वे केवल चुनावी गणनाओं के लिए आंकड़ों में दर्ज एक भीड़ हैं?

24 जुलाई से 1 अगस्त तक आयोजित SSC की परीक्षा में कई बड़े पैमाने की विसंगतियाँ सामने आईं—सिस्टम क्रैश, बायोमैट्रिक सत्यापन में गड़बड़ी, छात्रों को निर्धारित केंद्रों से दूर भेजा जाना, और यहाँ तक कि परीक्षा रद्द कर दी गई. इन घटनाओं ने हजारों विद्यार्थियों को मानसिक रूप से तोड़ा, जो सालों की तैयारी के बाद केवल एक मौके की तलाश में थे. परीक्षा के बाद देशभर से छात्रों ने #SSCMisManagement और #JusticeForAspirants जैसे हैशटैग के साथ अपनी नाराज़गी जताई. ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म पर कई प्रभावशाली शिक्षक, कोचिंग संस्थानों और छात्रों ने अपनी-अपनी बात रखी, लेकिन यह शोर मुख्यधारा की राजनीति और टीवी मीडिया तक पहुँचते-पहुँचते धीमा हो गया.

दिल्ली के जंतर मंतर पर हुए शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में, शिक्षक नीतू सिंह के नेतृत्व में कई छात्रों और शिक्षकों ने SSC के चेयरमैन से मिलकर मांगपत्र सौंपा और निष्पक्ष रिटेस्ट की मांग की. लेकिन इससे पहले ही “Delhi Chalo” नाम से आयोजित मार्च को पुलिस द्वारा रोका गया, लाठीचार्ज हुआ, और कुछ विद्यार्थियों को हिरासत में लिया गया. इन घटनाओं ने स्पष्ट किया कि युवा आवाज़, विशेषकर गैर-राजनीतिक, असंगठित आवाज़ें, व्यवस्था के लिए उतनी मायने नहीं रखतीं जब तक कि वे राजनीतिक लागत नहीं बनतीं.

यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब इतना बड़ा घोटाला सामने है, तो यह राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बनता? पहली बात, आज की राजनीति में 'तुरंत लाभ' या 'वोट-बैंक क्षमता' वाली समस्याएँ ही प्राथमिकता पाती हैं. SSC की परीक्षा देने वाला वर्ग जातिगत या क्षेत्रीय पहचान की दृष्टि से स्पष्ट वोट-बैंक नहीं माना जाता, बल्कि यह वर्ग विविध, असंगठित और कभी-कभी राजनीतिक रूप से तटस्थ भी होता है. दूसरी बात, इस मुद्दे को उठाने वाले अधिकांश युवा और शिक्षक न तो किसी एक दल के साथ खड़े दिखते हैं, न ही उनके पास इतना संसाधन होता है कि वे आंदोलन को लम्बे समय तक जारी रख सकें. तीसरा पहलू यह है कि चुनावी राजनीति में शिक्षा, बेरोजगारी और प्रशासनिक पारदर्शिता जैसे मुद्दे 'नीति विमर्श' के लिए सुरक्षित रहते हैं—अर्थात् घोषणा-पत्रों में शामिल किए जाते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इनसे जुड़ी समस्याओं को लेकर कोई मजबूत राजनीतिक दबाव नहीं बनता.

एक और विडंबना यह है कि जो संस्थाएँ ऐसी परीक्षाओं के संचालन की ज़िम्मेदारी उठाती हैं, वे स्वयं किसी स्वतंत्र निगरानी के अधीन नहीं होतीं. SSC जैसे निकायों को केंद्रीय मंत्रालयों की शिथिल निगरानी में काम करना पड़ता है, जहां जवाबदेही का ढांचा बेहद धुंधला होता है. परीक्षा में गड़बड़ी हो जाने के बाद अधिकतम यही सुनने को मिलता है कि "आंतरिक जांच की जा रही है", "रिटेस्ट की संभावनाएं तलाशी जाएंगी" या "तकनीकी प्रदाता पर कार्रवाई होगी"—लेकिन शायद ही कभी किसी शीर्ष अधिकारी या नीति-निर्माता को जिम्मेदार ठहराया गया हो.

सोशल मीडिया पर यह मुद्दा जरूर ट्रेंड करता है, लेकिन वह ट्रेंड केवल कुछ दिन तक ही टिक पाता है. छात्रों की पीड़ा, परीक्षा रद्द होने का मानसिक दबाव, अभिभावकों की निराशा, और करियर का असमंजस—ये सब बेहद निजी त्रासदियां बन जाती हैं, जिनका कोई सार्वजनिक प्रतिनिधित्व नहीं होता. पत्रकारिता के अधिकांश मुख्यधारा मंच इस मुद्दे को जल्द ही छोड़ देते हैं, और राजनीति इसे 'अति प्रौद्योगिकी-निर्भरता की अस्थायी विफलता' बता कर दबा देती है.

लोकतंत्र की मूल भावना यह है कि प्रत्येक नागरिक को अवसर की समानता मिले—बिना पक्षपात, बिना भ्रष्टाचार और बिना प्रक्रिया की विफलता के. लेकिन जब युवाओं के लिए सबसे ज़रूरी अवसर—नौकरी और शिक्षा—ही असमान, अव्यवस्थित और अपारदर्शी बन जाएँ, तो यह न केवल प्रशासनिक विफलता होती है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को भी क्षति पहुँचती है.

आज आवश्यकता है कि युवाओं की आवाज़ को केवल सोशल मीडिया के 'ट्रेंड' तक सीमित न रखकर उसे संगठित जनदबाव, राजनीतिक चेतना, और संविधान-सम्मत आंदोलन के माध्यम से नीति निर्धारण के केंद्र में लाया जाए. क्योंकि यदि योग्यताधारित अवसरों की प्रक्रिया ही बार-बार असफल होती रही, तो आने वाले वर्षों में युवा न केवल व्यवस्था से बल्कि लोकतंत्र से भी अपना भरोसा खो देंगे.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-