आज की हिंदी फिल्में सिर्फ सिनेमाघरों में मनोरंजन का माध्यम नहीं रह गई हैं, बल्कि वे अब सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का ज़रिया बनती जा रही हैं. हाल ही में चर्चा में आई दो फ़िल्में—Udaipur Files और Khalid ka Shivaji—इस बात का जीवंत उदाहरण हैं कि कैसे सिनेमा अब केवल कथा या किरदार तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वह लोगों की पहचान, धार्मिक आस्था, इतिहास की व्याख्या और सार्वजनिक मत-निर्माण के केंद्र में आ गया है.
इन दोनों फिल्मों ने एक ओर दर्शकों का ध्यान खींचा है, तो दूसरी ओर विवादों, अदालती हस्तक्षेपों और राजनीतिक बहसों को भी जन्म दिया है. Udaipur Files, जिसमें 2022 में हुए कन्हैया लाल हत्याकांड को केंद्र में रखा गया है, को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसके प्रदर्शन पर अस्थायी रोक लगा दी. वहीं Khalid ka Shivaji, एक काल्पनिक ऐतिहासिक कथानक पर आधारित फिल्म है, जिसे महाराष्ट्र में भारी विरोध का सामना करना पड़ा.
इन घटनाओं के केंद्र में एक बड़ा सवाल उभरता है—क्या फिल्म अब कला मात्र है, या वह राज्य, समाज और नागरिक विमर्श की एक जिम्मेदार इकाई भी बन गई है?Udaipur Files और Khalid ka Shivaji जैसे प्रकरण हमें इस दिशा में सोचने पर मजबूर करते हैं कि फिल्मों की भूमिका अब कहानी कहने से बहुत आगे निकल चुकी है. वे अब समाज में विचारधारा, पहचान, इतिहास और न्यायिक मर्यादा के बीच संतुलन की परीक्षा बन गई हैं.
इस तरह का सिनेमाई विमर्श यह दर्शाता है कि फिल्म अब केवल एक ‘product’ नहीं, बल्कि वह एक ‘process’ है—जिसमें कला, विचार, समाज और संविधान की सभी परतें शामिल हैं.
जब कोई फिल्म पर्दे पर आती है, तो उसके पीछे केवल पटकथा और अभिनय ही नहीं, बल्कि एक पूरी वैचारिक प्रक्रिया, सामाजिक प्रतिक्रिया और कानूनी संभावना भी छिपी होती है. यही कारण है कि आज की फिल्मों को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सार्वजनिक संवाद और सामाजिक चेतना का माध्यम भी माना जाने लगा है.
Udaipur Files और साम्प्रदायिक तनाव
Udaipur Files को लेकर जो आपत्ति उठाई गई, वह केवल इसके विषयवस्तु तक सीमित नहीं थी. फिल्म में कथित रूप से कुछ ऐसे दृश्य हैं, जिन्हें लेकर मुस्लिम संगठनों ने आपत्ति जताई कि वे समुदाय विशेष के विरुद्ध नफरत फैलाने का काम करते हैं. जमीअत उलेमा-ए-हिंद ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की, जिसमें फिल्म के कुछ दृश्यों को साम्प्रदायिक और भड़काऊ बताया गया. इसमें खासतौर पर मुस्लिम पात्र द्वारा हिंदू परिवार पर मीट फेंकने वाला दृश्य और स्कूल में छात्रों की धार्मिक पहचान के आधार पर गिरफ्तारी जैसी घटनाओं को मुख्य कहानी से असंबद्ध और उत्तेजक करार दिया गया.
उच्च न्यायालय ने फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाते हुए कहा कि यह विषय गंभीर है और जब तक केंद्रीय सरकार इस पर उचित समीक्षा न कर ले, तब तक इसे जनसंचार के माध्यम से प्रसारित करना उपयुक्त नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी आपात सुनवाई से इनकार करते हुए इस मामले को सरकार पर छोड़ दिया.
CBFC (सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) ने फिल्म में 55 संशोधन के बाद इसे प्रमाणित किया था, लेकिन बावजूद इसके न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता बताई गई. यह सवाल उठता है कि क्या सेंसर बोर्ड की मंजूरी किसी फिल्म को विवाद से बचा सकती है?
Khalid ka Shivaji और ऐतिहासिक कथानकों की राजनीति
दूसरी ओर Khalid ka Shivaji ने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक बहस को हवा दी है. फिल्म के ट्रेलर में एक संवाद है जिसमें कहा गया कि "रायगढ़ पर मस्जिद थी और शिवाजी की सेना में 35% मुस्लिम सैनिक थे." महाराष्ट्र में इस कथन को शिवाजी महाराज के इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करने का प्रयास माना गया.
इतिहासकारों और राजनीतिक दलों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी और मांग की कि निर्माता इस संवाद को हटाएं. विरोध इतना तीव्र था कि फिल्म निर्माताओं को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी और विवादित संवाद को हटाने की घोषणा करनी पड़ी.
यह घटना बताती है कि ऐतिहासिक घटनाओं और महापुरुषों को लेकर सामाजिक भावनाएं कितनी प्रबल होती हैं और फिल्में उस संवेदनशीलता से कैसे टकरा जाती हैं.
फिल्मों की भूमिका का नया विमर्श
इन दोनों विवादों से एक बात स्पष्ट होती है कि अब फिल्में केवल रचनात्मक स्वतंत्रता के दायरे में नहीं देखी जा रहीं. वे एक “public policy instrument” और “identity narrative” का रूप ले रही हैं, जहां हर दृश्य, संवाद और पात्र एक सामाजिक राजनीतिक संदेश वहन करता है.
सोशल मीडिया के दौर में फिल्म की प्रतिक्रिया अब सिर्फ टिकट खिड़की तक सीमित नहीं, बल्कि वह फेसबुक पोस्ट, ट्विटर ट्रेंड, इंस्टाग्राम रील और यूट्यूब डिबेट तक फैली होती है. हर फिल्म पर लोग वैचारिक पक्ष तय करने लगते हैं—कोई उसे राष्ट्रवादी फिल्म कहता है तो कोई उसे अल्पसंख्यकों पर हमले के रूप में देखता है.
विवाद बढ़ने पर अदालतों की भूमिका, सेंसर बोर्ड की सीमाएं, और निर्माताओं की नैतिक जिम्मेदारी पर भी सवाल उठते हैं. क्या हर कहानी को कहने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, या वह सामाजिक सामंजस्य के सामने सीमित होनी चाहिए? क्या कला को हमेशा “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” के नाम पर समर्थन मिलना चाहिए, या जब वह सामुदायिक तनाव पैदा करे, तो उस पर लगाम जरूरी है?
न्यायालय और सेंसर बोर्ड के बीच की दूरी
इन विवादों से एक और अहम सवाल उठता है कि क्या सेंसर बोर्ड और न्यायपालिका के निर्णय आपस में टकरा रहे हैं? जब CBFC ने Udaipur Files को 55 कट के साथ मंजूरी दी, तो क्या यह पर्याप्त नहीं था? अगर हां, तो फिर अदालत को हस्तक्षेप क्यों करना पड़ा?
इसका जवाब शायद यह है कि समाज में हर वर्ग की भावनाएं बदलती रहती हैं, और कभी-कभी अदालतें यह तय करती हैं कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के साथ-साथ अनुच्छेद 21 (जीवन और गरिमा का अधिकार) का संतुलन भी बनाए रखना जरूरी है.
फिल्म निर्माता और दर्शकों के बीच का तनाव
इन विवादों में दर्शक भी दो हिस्सों में बंट गए हैं. एक वर्ग ऐसा है जो फिल्मों की अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करता है, चाहे वह कितनी भी विवादास्पद क्यों न हो. वहीं दूसरा वर्ग मानता है कि ऐसी फिल्मों से समाज में तनाव पैदा होता है और इन पर रोक लगनी चाहिए.
निर्माता इन दोनों के बीच फंसे होते हैं—वे चाहें तो अपना पक्ष स्पष्ट करें, लेकिन उन्हें व्यापारिक नुकसान और सामाजिक बहिष्कार दोनों का सामना करना पड़ सकता है. कई निर्माता अब खुद ही ‘sensitivity preview panel’ बनाने लगे हैं, जो यह तय करता है कि फिल्म में ऐसा कुछ तो नहीं जो किसी समुदाय को आहत कर दे.
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

