लघुकथा: सूखे धागे / डॉ. सत्यवान सौरभ

लघुकथा: सूखे धागे / डॉ. सत्यवान सौरभ

प्रेषित समय :21:26:02 PM / Thu, Aug 7th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

शहर की सबसे ऊँची इमारत के चौदहवें माले पर स्थित अपने कार्यालय में बैठा राजीव कंप्यूटर स्क्रीन पर आंखें गड़ाए बैठा था, लेकिन उसकी उंगलियाँ बेवजह कीबोर्ड पर थिरक रही थीं. एसी की ठंडी हवा और बाहर भागती ट्रैफिक की आवाज़ों के बीच सब कुछ सामान्य था—पर आज कुछ असामान्य था.

टेबल पर एक छोटा-सा पीला लिफाफा रखा था, जिस पर साफ-साफ अक्षरों में लिखा था—"भाई को — हर साल की तरह इस बार भी..." राजीव ने चौंक कर उसे देखा. जैसे लिफाफे ने कुछ याद दिला दिया हो.

यह वही राखी थी, जो हर साल की तरह इस बार भी उसकी बहन कृति ने भेजी थी. पाँच वर्षों से यह सिलसिला जारी था. कृति, उसकी छोटी बहन, जिसने बचपन में उसकी स्कूल यूनिफॉर्म पर बटन टांके थे, उसके झगड़ों में ढाल बनी थी, और जिसे वह कभी 'मोटी' कहकर चिढ़ाया करता था.

पहले साल राखी आई थी, तो राजीव ने फोन नहीं उठाया. व्यस्त था, एक जरूरी क्लाइंट मीटिंग थी. दूसरे साल ऑफिस की विदेश यात्रा पड़ गई, तो कॉल फिर टल गई. तीसरे साल कृति ने कहा था, "भाई, सिर्फ आ जाना, कोई गिफ्ट नहीं चाहिए", और उसने जवाब में सिर्फ 'देखता हूँ' कहा था, फिर भी नहीं गया. चौथे साल सिर्फ एक इमोजी भेजा—"थैंक्स ". पांचवें साल बस एक '

और इस बार फिर राखी आ गई थी. साथ में एक लिफाफा, जिसमें सिर्फ पाँच शब्द थे—"हर साल की तरह इस बार भी..." कोई शिकायत नहीं, कोई उलाहना नहीं, कोई उम्मीद भी नहीं. बस एक चुप्पी, जो सीधे दिल के भीतर उतर गई.

राजीव की आँखों के सामने दृश्य बदलने लगे. कृति की बचपन की खिलखिलाहटें, रसोई में माँ के साथ मिठाई बनाना, वो धागा जो राखी के बाद महीनों तक उसकी अलमारी में रखा रहता था, और वो झूले, जिन पर कृति उसकी पीठ पर बैठकर हँसती थी.

आज उन सबकी जगह ले ली थी एक स्वचालित जीवन ने—जहाँ गूगल कैलेंडर रिमाइंडर देता है कि किस दिन किसे विश करना है, और राखियाँ ऑनलाइन ऑर्डर होकर सीधे दरवाज़े पर डिलीवर हो जाती हैं.

राजीव ने फोन उठाया. कृति का नंबर अभी भी फ़ेवरेट्स में सेव था. कॉल मिलाई… घंटी बजी, फिर रुकी.

"हाँ, बोलो…"—कृति की आवाज़ आई. धीमी, थकी हुई, और शायद एक सीमा तक उदास.

राजीव कुछ कह नहीं पाया. फिर कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद बोला, "मैं… इस बार आ रहा हूँ."

उधर से कोई शब्द नहीं आए, लेकिन राजीव को महसूस हुआ जैसे फोन की दूसरी तरफ़ एक साँस थमी थी. जैसे उस राखी की डोर में बंधा कोई रिश्ता फिर से सांस लेने लगा हो.

उसने अपने कंप्यूटर की स्क्रीन देखी, एक मीटिंग कैंसिल की, और गूगल कैलेंडर में एक नया नोट लिखा—"रक्षाबंधन — घर जाना है."

कलाई पर राखी बाँधने की रस्म तो हर साल होती रही, लेकिन इस बार पहली बार उसे उस धागे का असली अर्थ समझ में आया था. यह सिर्फ एक रिवाज नहीं था, बल्कि एक रिश्ता था जो बिना शोर के टूट भी सकता था और बिना कहे जुड़ भी सकता था.

वो जानता था, कृति कुछ नहीं कहेगी. शायद गले भी न लगे. लेकिन इस बार वह जाएगा—बस कलाई आगे बढ़ाने नहीं, बल्कि दोनों हाथों से उस रिश्ते को थामने, जो कभी अनमोल था… और अब फिर से होना चाहता था. 
-डॉ. सत्यवान सौरभ

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-