सिलिकॉन वैली की सबसे विवादास्पद शख्सियत और भारत की सबसे प्रभावशाली राजनीतिक सत्ता—जब ये आमने-सामने हों, तो सिर्फ कंपनियां नहीं, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद हिलने लगती है. आज इंटरनेट सेंसरशिप को लेकर जो टकराव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और X (पहले Twitter) के मालिक एलन मस्क के बीच सामने आया है, वह सिर्फ एक ‘कॉर्पोरेट विवाद’ नहीं, बल्कि भारत की युवा पीढ़ी के डिजिटल अधिकारों का निर्णायक मोड़ बन गया है.
यह लड़ाई X बनाम मोदी नहीं, बल्कि "नियंत्रण बनाम अभिव्यक्ति" की है. और जैसे-जैसे भारत डिजिटल सत्ता की नई संरचना गढ़ रहा है, वैसे-वैसे यह तय होगा कि आने वाले कल का इंटरनेट युवाओं का मंच रहेगा या सिर्फ एक सरकारी प्रेस रिलीज़ प्लेटफॉर्म.
क्या है पूरा मामला?
बीते कुछ महीनों से भारत सरकार की ओर से X पर यह दबाव डाला जा रहा है कि वह कुछ राजनीतिक पोस्ट, विपक्षी नेताओं के बयान, और कथित “झूठी या भ्रामक” सूचनाओं को डिलीट करे या ब्लॉक करे. सरकार का तर्क है—यह देश की संप्रभुता, कानून व्यवस्था और सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने के लिए ज़रूरी है.
वहीं, एलन मस्क ने दो टूक कहा कि उनका प्लेटफॉर्म "फ्री स्पीच" को प्रमोट करता है और लोकतंत्र में यह जरूरी है कि लोग सरकार की आलोचना भी कर सकें. X ने भारत में कुछ आदेशों का पालन तो किया, लेकिन इसके साथ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दायर कर दी.
क्यों भड़क उठा Gen G?
सोशल मीडिया की नई पीढ़ी, जिसे Gen Z या Gen G भी कहा जा रहा है, अब सिर्फ passive audience नहीं रही. इस पीढ़ी के लिए इंटरनेट सिर्फ टाइमपास नहीं, अभिव्यक्ति, विरोध, करियर और पहचान का जरिया है. जब सरकार और सोशल मीडिया कंपनी के बीच सेंसरशिप को लेकर खींचतान होती है, तो इसे यह वर्ग सीधे अपने मौलिक अधिकारों पर हमला मानता है.
X ने भारत सरकार की तरफ से मिली 300+ पोस्ट हटाने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. इसमें कहा गया है कि इस तरह की मांगें “अनुपातहीन” हैं और संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a)—अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता—का उल्लंघन करती हैं.
इंटरनेट की ‘रियल बैटलफील्ड’
यह लड़ाई केवल लॉ और ऑर्डर या टर्म्स ऑफ सर्विस की नहीं है. यह इस बात की लड़ाई है कि आने वाले वक्त में सोशल मीडिया कंपनियां जनता की आवाज़ बनेंगी या सिर्फ सरकारों के उपकरण. क्या कोई कंपनी सरकार को "ना" कह सकती है? क्या एक विदेशी कंपनी किसी लोकतंत्र की परिभाषा को चुनौती दे सकती है?
सवाल दोनों तरफ मुश्किल हैं.
भारत सरकार का पक्ष
सरकार का दावा है कि उसने केवल उन्हीं पोस्ट्स को हटाने के लिए कहा जो देश विरोधी, दंगे भड़काने वाले या झूठे सूचनाओं से भरे थे. “स्वतंत्रता अराजकता नहीं है”—यह तर्क अब तक सरकार के डिजिटल नीति के केंद्र में रहा है.
लेकिन आलोचक पूछते हैं—क्या यह "राष्ट्रीय सुरक्षा" की आड़ में राजनीतिक आलोचना को दबाने की चाल है?
X का पक्ष
एलन मस्क पहले भी कई देशों से भिड़ चुके हैं—चाहे वह ब्राज़ील हो, तुर्की या जर्मनी. उनके लिए ‘फ्री स्पीच’ केवल नैतिक मामला नहीं, ब्रांड आइडेंटिटी भी है. लेकिन भारत एक बड़ा और सख्त कानून वाला बाज़ार है. यहाँ की आईटी एक्ट और नए डिजिटल नियम बहुत स्पष्ट हैं—अगर कोई कंपनी अनुपालन नहीं करती, तो उस पर भारी जुर्माना और ब्लॉकिंग जैसी सजा हो सकती है.
युवाओं के लिए क्या मायने?
यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट यूज़र बेस बन चुका है—और सबसे बड़ा युवा मतदाता समूह भी. आज जिस सूचना को सरकार "भ्रामक" मानती है, वह किसी युवा के लिए "खुलासा" हो सकता है. इसीलिए सेंसरशिप की हर कोशिश को संदेह की निगाह से देखा जा रहा है.
आगे क्या?
सुप्रीम कोर्ट इस मामले में जो भी फैसला देगा, वह डिजिटल भारत के भविष्य की दिशा तय करेगा. क्या इंटरनेट को लोकतंत्र की खुली किताब बने रहने दिया जाएगा, या वह भी सरकारी नियमों की कठोर सेंसरशिप के अधीन हो जाएगा?
और सबसे बड़ा सवाल—क्या युवाओं की आवाज़ स्क्रीन के उस पार भी सुनी जाएगी?
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

