चुनाव आयोग का कहना: जरूरी नहीं कि ड्राफ्ट रोल से बाहर नामों की सूची भी प्रकाशित की जाए

चुनाव आयोग का कहना: जरूरी नहीं कि ड्राफ्ट रोल से बाहर नामों की सूची भी प्रकाशित की जाए

प्रेषित समय :21:45:41 PM / Sun, Aug 10th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

अभिमनोज
देश की चुनावी पारदर्शिता को लेकर एक महत्वपूर्ण कानूनी बहस सामने आई है, जब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग (ECI) ने स्पष्ट कहा कि उसे “वोटर लिस्ट के ड्राफ्ट रोल में शामिल न होने वाले नामों की सूची प्रकाशित करने का कोई कानूनी दायित्व नहीं है”. यह दलील ADR की उस याचिका के जवाब में दी गई, जिसमें 1 अगस्त, 2025 को प्रकाशित ड्राफ्ट रोल से बाहर हुए लगभग 65 लाख मतदाताओं के नामों की सूची और हटाए जाने के कारण सार्वजनिक करने की मांग की गई थी.

ADR ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि चुनाव आयोग को ड्राफ्ट वोटर लिस्ट में किए गए सभी संशोधनों की पूरी जानकारी जनता के लिए उपलब्ध करानी चाहिए. विशेष रूप से, जिन मतदाताओं के नाम हटाए गए हैं या जिनका नाम ड्राफ्ट रोल में नहीं है, उनकी सूची भी सार्वजनिक रूप से जारी की जानी चाहिए. ADR का कहना है कि यह कदम मतदाता अधिकारों की रक्षा और चुनावी पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए बेहद ज़रूरी है. उनके अनुसार, “जब तक हटाए गए नामों की सूची सार्वजनिक नहीं होगी, तब तक यह जांचना मुश्किल होगा कि नाम सही कारणों से हटाए गए हैं या किसी प्रशासनिक/राजनीतिक दबाव में.”

चुनाव आयोग का पक्ष
सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने अदालत को बताया कि मौजूदा कानून — जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और संबंधित नियम — आयोग को केवल ड्राफ्ट रोल प्रकाशित करने के लिए बाध्य करते हैं. जिन नामों का ड्राफ्ट रोल में समावेश नहीं है, उनकी सूची अलग से प्रकाशित करने का कानूनी प्रावधान नहीं है. आयोग का मानना है कि ऐसी सूची सार्वजनिक करने से गोपनीयता और डेटा सुरक्षा से जुड़े सवाल खड़े हो सकते हैं. ECI के वकील ने कहा — “हम पारदर्शिता के पक्षधर हैं, लेकिन कानूनी ढांचे से बाहर जाकर कोई नया प्रावधान नहीं बनाया जा सकता.”

मामला अदालत में कैसे पहुंचा
ADR को 2024 के आम चुनाव और उसके बाद कई राज्यों में वोटर नाम कटने की शिकायतें मिलीं. आंकड़ों के अनुसार, कुल 7.89 करोड़ पंजीकृत मतदाताओं में से लगभग 65 लाख नाम अंतिम सूची में नहीं थे, जो पिछले ड्राफ्ट से हटाए गए थे. इन मामलों में पारदर्शिता की कमी के आरोप लगे, क्योंकि हटाए गए नामों की कोई अलग सूची जनता को नहीं दी गई.

ADR का कानूनी तर्क
ADR ने कहा कि —

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना है, जिसके लिए पारदर्शिता अनिवार्य है.

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भी नागरिकों को सार्वजनिक रिकॉर्ड तक पहुंच का अधिकार देता है.

हटाए गए नामों की सूची उपलब्ध कराना जनहित का मामला है, क्योंकि यह सीधे तौर पर मतदान के मौलिक अधिकार से जुड़ा है.

ADR के वकील ने तर्क दिया — “यदि नाम हटाने के कारण सही और वैध हैं तो उन्हें छिपाने का कोई औचित्य नहीं है. सूची छिपाना अवैध हटाव के संदेह को और गहरा करता है.”

मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणियाँ
सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह मसला कानून की व्याख्या और लोकतांत्रिक अधिकारों दोनों से जुड़ा है. अदालत को यह तय करना होगा कि क्या हटाए गए नामों की सूची प्रकाशित करना संवैधानिक रूप से आवश्यक है या नहीं. अदालत ने ECI से कहा कि वह डेटा गोपनीयता और पारदर्शिता के बीच संतुलन बनाने के तरीकों पर भी विचार करे.

कानूनी पृष्ठभूमि
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 के तहत चुनाव आयोग को प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के लिए ड्राफ्ट वोटर लिस्ट प्रकाशित करनी होती है. नागरिक इस ड्राफ्ट पर आपत्तियां दर्ज कर सकते हैं, जिसके बाद संशोधित अंतिम वोटर लिस्ट जारी होती है. वर्तमान कानून में हटाए गए नामों की अलग सूची जारी करने का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, लेकिन कानून इसे रोकता भी नहीं है. यही वह कानूनी खिड़की है जिस पर ADR का जोर है — यानी आयोग चाहकर भी यह सूची जारी कर सकता है, पर उसने अभी तक ऐसा नहीं किया.

अंतरराष्ट्रीय संदर्भ
कई लोकतांत्रिक देशों में चुनावी पारदर्शिता बढ़ाने के लिए ड्राफ्ट रोल, नए जोड़े गए नाम और हटाए गए नामों की सूची सार्वजनिक पोर्टल पर उपलब्ध कराई जाती है. इनका उद्देश्य नागरिकों को समय रहते सुधार का मौका देना और अवैध मतदाता विलोपन रोकना है.

चुनाव आयोग द्वारा साझा किए गए आँकड़े
आयोग ने बताया कि बिहार में कुल 7.89 करोड़ पंजीकृत मतदाताओं में से 7.24 करोड़ यानी 92% नाम को ड्राफ्ट लिस्ट में शामिल किया गया है. बाकी 65 लाख मतदाताओं की स्थिति इस प्रकार है:

22 लाख की मृत्यु हो चुकी है

7 लाख एक से अधिक स्थानों पर पंजीकृत पाए गए

लगभग 35 लाख स्थायी रूप से बिहार छोड़ चुके हैं या ट्रेस नहीं किए जा सके

चुनाव आयोग का कहना था कि ड्राफ्ट रोल केवल उपलब्ध मतगणना फ़ॉर्म और डेटा के आधार पर तैयार किया गया और इस चरण में व्यापक जांच नहीं की गई है. इन नामों की सूची राजनीतिक दलों के साथ साझा की गई है, लेकिन जनता को प्रकाशित करना जरूरी नहीं है.

मीडिया की प्रतिक्रियाएँ

द टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को 9 अगस्त तक जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया था, साथ ही 12 अगस्त की सुनवाई भी तय की गई.

इकोनॉमिक टाइम्स ने बताया कि अदालत ने विस्तृत स्पष्टीकरण मांगा है कि इतने बड़े पैमाने पर मतदाताओं को ड्राफ्ट लिस्ट से बाहर क्यों किया गया.

हिंदुस्तान टाइम्स ने उल्लेख किया कि आयोग ने कोर्ट को आश्वस्त किया है कि हटाए गए नामों के मामलों में नियमों का पालन और सुनवाई की प्रक्रिया पूरी की गई है, ताकि पारदर्शिता बनी रहे.

पटना से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में कहा गया कि ड्राफ्ट रोल से बाहर हुए लगभग 65 लाख मतदाताओं की संख्या में “अप्राप्य या मृत” 57 लाख की श्रेणी प्रमुख है.

ECI का बचाव और ADR का विरोध
ECI का कहना है कि सूची तैयार करते समय उपलब्ध सूचनाओं और प्रक्रियाओं का पालन किया गया है और राजनीतिक दलों को आवश्यक सूचनाएं दे दी गई हैं. ADR का कहना है कि केवल राजनीतिक दलों को सूचनाएँ देना पर्याप्त नहीं है; सार्वजनिक प्रकटीकरण और बूथ-स्तर सत्यापन की आवश्यकता है ताकि त्रुटियों और मनमानी कटौतियों का भंडाफोड़ हो सके.

कानूनी और नीतिगत विश्लेषण
यह मामला भारत में लोकतांत्रिक पारदर्शिता और चुनावी प्रक्रिया में स्पष्टता का केन्द्र बन गया है. ECI निम्न तर्कों पर जोर दे रहा है: नियमों में ड्राफ्ट से बाहर नामों की सूची प्रकाशित करना अनिवार्य नहीं है; व्यक्तिगत डेटा और गोपनीयता से जुड़े जोखिमों को नियंत्रित रखना आवश्यक है; राजनीतिक दलों को जानकारी दी जा चुकी है और यह एक मान्य प्रक्रिया है. ADR का तर्क है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पारदर्शिता अनिवार्य है; मतदाता सूची के कट-ऑफ से नागरिकों का मौलिक अधिकार प्रभावित हो सकता है; जनता की व्यापक पहुंच और सत्यापन के बिना प्रक्रिया अधूरी है.

सामाजिक और लोकतांत्रिक महत्व
यह विवाद केवल तकनीकी प्रक्रिया का मामला नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ से जुड़ा प्रश्न है: क्या राज्य की पारदर्शिता, प्रक्रियात्मक जवाबदेही और नागरिक अधिकार नियम के आगे महत्वपूर्ण नहीं? विपक्षी दल और नागरिक समूह का कहना है कि ऐसी जानकारी का खुलासा लोकतंत्र की मजबूती में मदद करेगा. छात्र संगठन और नागरिक अभियानों ने सोशल मीडिया पर #Right2Know और #VoterAccess जैसे हैशटैग के जरिए मुद्दा उठाया है, यह संदेश देते हुए कि “ज्ञान ही लोकतंत्र का वास्तविक अधिकार है”.

यह विवाद चुनावी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता और गोपनीयता के बीच संतुलन का प्रश्न खड़ा करता है. सुप्रीम कोर्ट के अगले आदेश से यह स्पष्ट होगा कि मतदाता सूची के डेटा के सार्वजनिककरण की सीमा और स्वरूप क्या होंगे, और भविष्य में चुनावी सूची-प्रक्रिया में किस प्रकार की पारदर्शिता लागू रहेगी.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-