मानसून की बेकाबू बारिश उत्तराखंड हिमाचल और उत्तर प्रदेश में भूस्खलन और बाढ़ से जनजीवन प्रभावित

मानसून की बेकाबू बारिश उत्तराखंड हिमाचल और उत्तर प्रदेश में भूस्खलन और बाढ़ से जनजीवन प्रभावित

प्रेषित समय :21:31:19 PM / Tue, Aug 19th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

मानसून भारत के जीवन का अभिन्न हिस्सा है. हर साल किसान इसका इंतजार करते हैं, जलस्रोत इससे भरते हैं और देश की आधी से अधिक अर्थव्यवस्था इस पर निर्भर करती है. लेकिन जब यही मानसून अपने चरम पर पहुँचता है, तो वरदान से अभिशाप बनने में देर नहीं लगती. इस वर्ष 2025 का मानसून उत्तर भारत में कहर बरपा रहा है. उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में लगातार हो रही तेज बारिश ने न केवल जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है बल्कि लोगों की सुरक्षा, आजीविका और भविष्य पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं.2025 का यह मानसून फिर साबित करता है कि हम चाहे कितनी भी तकनीकी प्रगति कर लें, प्रकृति के सामने इंसान छोटा ही रहता है. उत्तराखंड, हिमाचल और उत्तर प्रदेश में फैली यह आपदा केवल एक चेतावनी है. यह हमें याद दिलाती है कि अगर हम प्रकृति का सम्मान नहीं करेंगे और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता नहीं देंगे तो आने वाले समय में संकट और भी गहरा सकता है.

आज जरूरत है कि सरकार, समाज और नागरिक मिलकर ऐसे स्थायी समाधान खोजें, जिससे मानसून फिर से किसानों और समाज के लिए वरदान बने, अभिशाप नहीं.

आपदा का विस्तार और मौजूदा हालात
उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भारी बारिश के कारण अनेक जगहों पर भूस्खलन हुआ है. पहाड़ों से चट्टानें खिसकने लगी हैं, जिससे राष्ट्रीय राजमार्ग कई दिनों तक बाधित रहते हैं. बद्रीनाथ, केदारनाथ और गंगोत्री जैसे धार्मिक स्थलों की ओर जाने वाले मार्ग कई-कई बार बंद हो गए, जिससे न केवल स्थानीय लोगों बल्कि तीर्थयात्रियों को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है.

हिमाचल प्रदेश में भी हालात कम गंभीर नहीं हैं. शिमला, कांगड़ा, कुल्लू और मंडी जिलों में नदियाँ उफान पर हैं. व्यास और सतलुज जैसी नदियाँ खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं, जिससे निचले इलाकों में बाढ़ का पानी घुस चुका है. कई गांवों का संपर्क जिला मुख्यालयों से टूट गया है. वहीं, उत्तर प्रदेश के तराई और पूर्वी जिलों में गंगा और घाघरा नदी का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है. खेत जलमग्न हैं, घरों में पानी घुस चुका है और लोग राहत शिविरों में शरण लेने को मजबूर हैं.

जन-धन की हानि
आपदा प्रबंधन विभाग की ताजा रिपोर्टों के अनुसार इन तीन राज्यों में अब तक सैकड़ों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. हजारों लोग घायल हैं और लाखों लोग बेघर हो गए हैं. पुल टूटने से यातायात प्रभावित है, बिजली के खंभे गिर गए हैं और कई क्षेत्रों में संचार व्यवस्था ठप हो गई है. जिन परिवारों ने जीवन भर की कमाई से मकान बनाए थे, वे कुछ ही घंटों की बारिश में जमींदोज हो गए.

किसानों के लिए यह आपदा और भी मारक साबित हो रही है. खरीफ की फसल पूरी तरह पानी में डूब चुकी है. धान और मक्का जैसी फसलें खराब हो गई हैं. इससे न केवल वर्तमान में बल्कि आने वाले महीनों में खाद्यान्न संकट और महंगाई की समस्या खड़ी हो सकती है.

प्रशासन और राहत कार्य
राज्य सरकारों ने सेना, एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की टीमें राहत कार्यों में लगा दी हैं. हेलीकॉप्टरों से फंसे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर लाया जा रहा है. राहत शिविरों में भोजन और दवाइयों की व्यवस्था की जा रही है, लेकिन प्रभावित इलाकों की संख्या इतनी अधिक है कि संसाधन नाकाफी पड़ रहे हैं. ग्रामीण इलाकों में अभी भी कई परिवार ऐसे हैं जिन तक न तो राहत सामग्री पहुँची है और न ही चिकित्सकीय सुविधा.

स्थानीय प्रशासन का दावा है कि वे युद्धस्तर पर काम कर रहे हैं, लेकिन प्रभावित लोगों का कहना है कि उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया है. कई जगहों पर लोग नाव बनाकर खुद ही सुरक्षित जगहों तक पहुँचने का प्रयास कर रहे हैं.

पर्यावरणीय कारण और वैज्ञानिक विश्लेषण
विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की आपदाएँ सिर्फ प्राकृतिक नहीं हैं, बल्कि मानवजनित कारणों से भी उत्पन्न होती हैं. उत्तराखंड और हिमाचल जैसे राज्यों में अनियंत्रित निर्माण, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के किनारे होटल-रेस्ट हाउस बनाने से आपदा का खतरा और बढ़ गया है.
वर्षा जल का प्राकृतिक प्रवाह बाधित हो जाता है, जिससे भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएँ बढ़ती हैं. वैज्ञानिक यह भी चेतावनी दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण मानसून का पैटर्न बदल रहा है. कभी कम बारिश होती है तो कभी कुछ दिनों में महीनों जितनी बारिश हो जाती है.

सामाजिक-आर्थिक असर
बाढ़ और भूस्खलन का सबसे बड़ा असर गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों पर पड़ता है. अमीर लोग कहीं न कहीं अपने संसाधनों से संभल जाते हैं, लेकिन जिनके पास सीमित जमीन, मवेशी या छोटी दुकान ही आय का साधन है, उनके लिए यह संकट जीवन-भर का बोझ बन जाता है.
बाढ़ग्रस्त इलाकों में स्कूल बंद हो गए हैं, बच्चे पढ़ाई से वंचित हैं. महिलाओं और बच्चों को सबसे ज्यादा परेशानी झेलनी पड़ रही है. राहत शिविरों में स्वच्छता की कमी के कारण संक्रामक बीमारियाँ फैलने लगी हैं. डायरिया, डेंगू और मलेरिया जैसे रोग पहले से ही दस्तक दे चुके हैं.

धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव
उत्तराखंड और हिमाचल धार्मिक पर्यटन के प्रमुख केंद्र हैं. मानसून में आपदा के कारण चारधाम यात्रा बार-बार बाधित हो रही है. इससे न केवल लाखों श्रद्धालुओं को असुविधा हुई है बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई है. होटल, टैक्सी और गाइड जैसे व्यवसाय पूरी तरह ठप हो गए हैं. उत्तर प्रदेश के काशी और प्रयागराज जैसे धार्मिक नगरों में भी गंगा के उफान ने घाटों को डुबो दिया है, जिससे धार्मिक गतिविधियाँ प्रभावित हुई हैं.

सरकार और नीति-निर्माताओं के लिए सबक
हर साल इस तरह की आपदा के बाद सरकारें बड़ी घोषणाएँ करती हैं लेकिन जमीनी स्तर पर बदलाव बहुत कम देखने को मिलता है. विशेषज्ञों का मानना है कि आपदा प्रबंधन को केवल राहत और बचाव तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि दीर्घकालिक योजना बनानी चाहिए.

नदियों के किनारे अतिक्रमण हटाना होगा.

पहाड़ी इलाकों में निर्माण कार्य के लिए सख्त नियम लागू करने होंगे.

वनों की अंधाधुंध कटाई रोकनी होगी.

आपदा पूर्व चेतावनी प्रणाली (Early Warning System) को और मजबूत करना होगा.

आपदा के समय सरकार पर पूरी तरह निर्भर रहना पर्याप्त नहीं है. नागरिक समाज और स्थानीय लोग भी एकजुट होकर सहयोग कर सकते हैं. कई सामाजिक संगठन और स्वयंसेवी संस्थाएँ इस समय सक्रिय हैं और राहत सामग्री वितरित कर रही हैं. स्थानीय स्तर पर आपसी सहयोग से ही लोग तेजी से संकट से उबर सकते हैं.

बार-बार होने वाली इन त्रासदियों से यह साफ हो गया है कि भारत को अपने विकास मॉडल पर पुनर्विचार करना होगा. पहाड़ों में बिना सोचे-समझे हो रहे निर्माण कार्य, नदियों में गाद जमाव और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नजरअंदाज करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता. हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चलना ही होगा.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-