-डॉ. प्रियंका सौरभ
गाँव की पगडंडी पर शाम का अँधेरा उतर रहा था. खेतों से लौटते लोग अपनी-अपनी झोपड़ियों में जा चुके थे. लेकिन मनीषा अब तक नहीं लौटी थी. माँ की आँखें बार-बार दरवाज़े की चौखट पर टिक जातीं. पिता थककर पंचायत के चौपाल तक गए, मगर जवाब मिला—
“लड़की भाग गई होगी… कल लौट आएगी.”
सुबह हुई तो खेतों की मेड़ पर गाँव हिल गया. हँसती-खिलखिलाती उन्नीस बरस की कली अब निर्जीव पड़ी थी. कपड़ों के साथ उसकी इज़्ज़त भी तार-तार की जा चुकी थी.
पुलिस आई, कागज़ी खानापूर्ति हुई. रिपोर्ट लिखने से पहले ही कहा गया—
“ये तो खुद की गलती से हुआ होगा.”
पिता ने चीखकर कहा— “क्या इंसाफ़ सिर्फ अमीरों के लिए है?”
गाँव खामोश रहा. दरिंदों की हँसी कानों में गूँजती रही.
माँ की सूखी आँखें और पिता का टूटा हुआ मन सारा सच बयाँ कर रहे थे.
रात को वही खेत हवाओं से कराह रहा था.
मनीषा की चीखें अब भी वहाँ गूंज रही थीं—
“मैं भागी नहीं थी… मुझे बचा लो…”


