राजनीति का भविष्य सड़क किनारे लगे बैनरों या रैलियों में नहीं, बल्कि हाथ में थमे स्मार्टफोन की स्क्रीन पर तय होगा

राजनीति का भविष्य सड़क किनारे लगे बैनरों या रैलियों में नहीं, बल्कि हाथ में थमे स्मार्टफोन की स्क्रीन पर तय होगा

प्रेषित समय :22:03:31 PM / Sun, Aug 31st, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

 अभिमनोज

न्यूयॉर्क में ज़ोहरान मामदानी की जीत को केवल स्थानीय चुनावी कहानी मानना भूल होगी. यह घटना वैश्विक लोकतंत्र में एक संदेश की तरह देखी जा रही है कि राजनीति का भविष्य अब सड़क किनारे लगे बैनरों, अखबारों में छपे विज्ञापनों या महंगी रैलियों में नहीं, बल्कि हाथ में थमे स्मार्टफोन की स्क्रीन पर तय होगा. और यह संदेश भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के लिए विशेष रूप से अहम है, जहाँ 2026 का  चुनाव सिर्फ़ राजनीतिक दलों के लिए ही नहीं, बल्कि पहली बार मतदान करने वाली नई पीढ़ी के लिए भी निर्णायक साबित हो सकता है.न्यूयॉर्क के चुनाव ने दिखाया है कि सोशल मीडिया केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि लोकतंत्र का नया मंच है. भारत के लिए यह सीधा संदेश है कि यदि युवा अपनी रचनात्मकता और डिजिटल शक्ति को राजनीति में झोंक देंगे तो नीतियाँ और चुनावी दिशा दोनों उन्हीं के हाथ में होंगी.

भारत की जनसंख्या संरचना बताती है कि आने वाले चुनाव में जेन-ज़ेड और मिलेनियल मतदाता मिलकर कुल मतदाता सूची का लगभग 52 प्रतिशत हिस्सा होंगे. यानी वह वर्ग, जो न्यूयॉर्क में मामदानी जैसे नेताओं की जीत का कारण बना, भारत में भी निर्णायक भूमिका निभा सकता है. सवाल यह है कि क्या भारत के राजनीतिक दल इस संकेत को पढ़ पा रहे हैं?भारत में सोशल मीडिया पहले ही राजनीतिक विमर्श का बड़ा हथियार बन चुका है. फेसबुक और व्हाट्सएप की पकड़ ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों तक है, वहीं इंस्टाग्राम, यूट्यूब और एक्स (पूर्व ट्विटर) पर शहरी और अर्धशहरी युवाओं की पैठ है. न्यूयॉर्क का उदाहरण दिखाता है कि केवल विज्ञापन और प्रचार से आगे बढ़कर यदि दल इंटरएक्टिव, भागीदारी पूर्ण और सांस्कृतिक जुड़ाव वाले कंटेंट तैयार करें तो युवा न सिर्फ़ प्रभावित होंगे बल्कि अभियान का हिस्सा भी बनेंगे.मामदानी ने अपनी रणनीति में मीम, मज़ाकिया वीडियो, पॉप-कल्चर रेफरेंस और बहुभाषीय संवाद का इस्तेमाल किया. भारत के बहुभाषीय परिदृश्य में यह प्रयोग और भी प्रभावी हो सकता है. सोचिए, यदि कोई दल हिंदी में पॉलिसी समझा रहा हो और उसी विचार को तमिल, बंगाली, मराठी या अंग्रेज़ी में मज़ेदार डिजिटल फॉर्मेट में साझा कर रहा हो, तो उसका असर एक ही समय में अलग-अलग समुदायों पर पड़ेगा.दूसरी ओर, भारत के युवाओं की चिंताएँ भी मामदानी के अभियान से मेल खाती हैं—किराया, रोज़गार, मानसिक स्वास्थ्य, शहरी जीवन का दबाव और सामाजिक असमानता. यदि कोई दल इन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से सीधे संबोधित करता है तो उसे भारी समर्थन मिल सकता है.

2026 के चुनाव के संदर्भ में सबसे बड़ा बदलाव यह होगा कि युवा सिर्फ़ दर्शक नहीं बल्कि कंटेंट क्रिएटर भी होंगे. भारत में टिकटॉक भले ही बैन है, लेकिन इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स की बाढ़ ने युवा पीढ़ी को अपने ढंग से राजनीतिक विचार व्यक्त करने की आज़ादी दी है. कई दल पहले ही युवाओं को “डिजिटल प्रचारक” बनाने की रणनीति अपना चुके हैं, लेकिन मामदानी का मॉडल बताता है कि असली ताक़त मज़ेदार और ऑर्गेनिक कंटेंट में है, न कि सिर्फ़ पेड विज्ञापनों में.मौजूदा परिदृश्य में बीजेपी, कांग्रेस और क्षेत्रीय दल सभी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. लेकिन अब यह दौड़ और तेज़ होने वाली है. 2026 में भारत का चुनाव केवल ज़मीन पर नहीं बल्कि डिजिटल युद्धभूमि पर भी लड़ा जाएगा. यहाँ जीत उसी की होगी, जो युवाओं को भावनात्मक जुड़ाव, सांस्कृतिक सटीकता और हास्य-विनोद की भाषा में अपनी नीतियाँ समझा पाए.अंततः, न्यूयॉर्क की जीत भारत के लिए चेतावनी और अवसर दोनों है. चेतावनी इसलिए कि यदि कोई दल डिजिटल लहर को नज़रअंदाज़ करेगा तो वह युवाओं के बीच अप्रासंगिक हो जाएगा. और अवसर इसलिए कि जो दल इस भाषा को समझेगा, वह राजनीति का नया चेहरा बन सकता है.भारत के युवाओं के लिए यह प्रेरणा भी है—कि लोकतंत्र में उनकी सक्रिय भागीदारी केवल वोट डालने तक सीमित नहीं है, बल्कि वे अपनी रचनात्मकता और डिजिटल शक्ति से राजनीति की दिशा तय कर सकते हैं.

भारत का परिदृश्य और पिछली डिजिटल रणनीतियाँ
भारत में सोशल मीडिया की चुनावी यात्रा नई नहीं है.

2014 का चुनाव – इसे भारत का पहला “फेसबुक इलेक्शन” कहा गया. बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया. उस समय “अबकी बार मोदी सरकार” का नारा डिजिटल रूप से हर युवा तक पहुँचाया गया.

2019 का चुनाव – इस बार डिजिटल रणनीति और आक्रामक हुई. फेसबुक और व्हाट्सऐप समूहों के अलावा इंस्टाग्राम पर कंटेंट ने बड़ी भूमिका निभाई. बीजेपी ने अपनी पकड़ मज़बूत की, वहीं कांग्रेस ने भी NYAY योजना और चौकीदार चोर है जैसे डिजिटल अभियानों से टक्कर देने की कोशिश की.

2024 का चुनाव – यहाँ पर टिकटॉक की गैरमौजूदगी के बावजूद इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स और ट्विटर ट्रेंड्स ने चुनावी माहौल को प्रभावित किया. बीजेपी ने डिजिटल प्रचार को बड़े पैमाने पर संगठित किया, जबकि विपक्षी गठबंधन ने क्षेत्रीय भाषाओं में कंटेंट पर ज़ोर दिया.

इन तीनों चरणों ने यह साफ़ किया कि डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म अब सिर्फ़ प्रचार का साधन नहीं बल्कि जनमत बनाने का निर्णायक औज़ार बन चुका है.

2026 और जेन-ज़ेड का उभार
न्यूयॉर्क का उदाहरण बताता है कि युवा मतदाता केवल दर्शक नहीं बल्कि भागीदार बनना चाहते हैं. भारत में भी 2026 का चुनाव इसी दिशा में बढ़ता दिख रहा है. जेन-ज़ेड और मिलेनियल मतदाता मिलकर कुल वोटरों का लगभग 52 प्रतिशत होंगे. इनकी चिंताएँ पारंपरिक चुनावी मुद्दों से आगे बढ़ चुकी हैं—वे नौकरी, किराया, मानसिक स्वास्थ्य, लैंगिक समानता और जलवायु संकट जैसे सवाल पूछ रहे हैं.न्यूयॉर्क में मामदानी ने इन्हीं मुद्दों को मीम्स, मज़ेदार वीडियो, पॉप-कल्चर रेफ़रेंस और बहुभाषा संवादों के जरिए पेश किया. भारत का बहुभाषीय समाज इसके लिए और भी उपयुक्त है. यदि राजनीतिक दल हिंदी, तमिल, बंगाली, मराठी और अंग्रेज़ी में एक साथ युवा-अनुकूल कंटेंट बनाएँ तो उनका असर कई गुना बढ़ सकता है.

युवाओं की डिजिटल भूमिका
2026 के चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि युवा कंटेंट क्रिएटर बनकर सामने आएँगे. 2014 और 2019 में वे मुख्यतः दर्शक और साझा करने वाले थे, लेकिन अब इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स ने उन्हें सक्रिय भागीदार बना दिया है. वे अपने राजनीतिक विचार मज़ाक, व्यंग्य, संगीत या कला के रूप में पेश कर रहे हैं.

यानी 2026 का चुनाव सिर्फ़ पार्टी बनाम पार्टी नहीं बल्कि कंटेंट बनाम कंटेंट की लड़ाई भी होगा. यहाँ वह दल आगे रहेगा जो युवाओं को भावनात्मक जुड़ाव, हास्य-विनोद और सांस्कृतिक सटीकता के साथ अपनी नीतियाँ समझा पाएगा.न्यूयॉर्क की जीत भारत के लिए चेतावनी भी है और अवसर भी. चेतावनी इसलिए कि जो दल इस डिजिटल भाषा को नहीं समझेगा वह युवाओं के बीच अप्रासंगिक हो जाएगा. और अवसर इसलिए कि जो दल युवाओं की भाषा में उनसे संवाद करेगा, वही नया राजनीतिक चेहरा बन सकता है.2026 का चुनाव भारत के लोकतंत्र में डिजिटल क्रांति का निर्णायक अध्याय साबित हो सकता है. यह चुनाव बताएगा कि क्या भारत के दल युवाओं की नई राजनीतिक भाषा—हास्य, मीम, इंटरएक्टिव संवाद और सहभागिता—को सचमुच समझ पाए हैं या नहीं.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-