अनिल मिश्र/पटना. बिहार और झारखंड प्रदेश में जीवित्पुत्रिका व्रत उर्फ जिउतिया व्रत के करने की कई कहानियां हैं. लेकिन पौराणिक कथाओं के अनुसार अश्वत्थामा द्वारा उत्तरा के गर्भ को नष्ट किया था, श्री कृष्ण जी ने रक्षा की तभी से जीवित्पुत्रिका व्रत आश्विन कृष्णपक्ष अष्टमी को किया जाता है. इसके चलते आज 13 सितम्बर शनिवार को नहाए-खाय होगा. वहीं अष्टमी तिथि 14 सितम्बर की सुबह 5बजकर 4 मिनट से लेकर 15 सितम्बर की सुबह 3 बजकर 6 मिनट तक रहेगी.
14 सितम्बर रविवार को निर्जला व्रत रखा जाएगा.
15 सितम्बर सोमवार को सूर्योदय के बाद व्रत पारण किया जाएगा.जीवित्पुत्रिका व्रत को जितिया या जिउतिया व्रत भी कहा जाता है. सुहागिन स्त्रियां इस दिन निर्जला उपवास करती हैं. महिलाएँ अपनी सन्तान की लम्बी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए इस व्रत को रखती हैं. यह व्रत मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड के कई क्षेत्रों में किया जाता है. उत्तर पूर्वी राज्यों में जीवित्पुत्रिका व्रत बहुत लोकप्रिय है. इस जीवीत्पुत्रीका (जीतिया) व्रत के नियम बेहद कठिन होते हैं. सबसे पहले स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं. उसके बाद भगवान जीमूतवाहन की पूजा करते हैं.भगवान जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि अर्पित करें. इसके बाद मिट्टी तथा गाय के गोबर से चील व सियारिन की मूर्ति बनाते हैं.
वहीं उसके बाद महिलाएं माथे पर लाल सिन्दूर का टीका लगाती हैं. तत्पश्चात जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनते हैं.माँ को 16 पेड़ा, 16 दूब की माला, 16 खड़ा चावल, 16 गांठ का धागा, 16 लौंग, 16 इलायची, 16 पान, 16 खड़ी सुपारी व श्रृंगार का सामान अर्पित करते हैं. वंश की वृद्धि और प्रगति के लिए उपवास कर बांस के पत्रों से पूजन करते हैं. एक अन्य कथाओं के अनुसार पार्वतीजी ने एक स्थान पर स्त्रियों को विलाप करते देखा तो शिवजी से उसका कारण पूछा. शिवजी ने बताया इन स्त्रियों के पुत्रों का निधन हो गया है इसलिए ये विलाप कर रही हैं.पार्वतीजी बहुत दुःखी हो गईं. उन्होंने कहा–‘हे नाथ एक माता के लिए इससे अधिक हृदय विदारक बात क्या हो सकती है कि उसके सामने उसका पुत्र मर जाए. इससे मुक्ति का कोई तो मार्ग हो, कृपया बतायें.शिवजी ने कहें हे देवी जो विधाता द्वारा रचित है उसमें हेर-फेर नहीं हो सकता किन्तु जीमूतवाहन की पूजा से माताएँ अपनी सन्तान पर आए प्राणघाती संकटों को भी टाल सकती हैं.जो माता आश्विन मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी को जीमूतवाहन की पूजा विधि-विधान से करेगी उसकी सन्तान के संकटों का नाश होगा.पार्वतीजी के अनुरोध पर शिवजी ने उन मृत बालकों को पुनः जीवित कर दिया. इस कारण ही इसे जीवितपुत्रिका व्रत कहा जाता है.जीमूतवाहन की कथा ही मुख्य रूप से सुनी जाती है किन्तु आंचलिक क्षेत्रों में कई कथाएँ प्रचलित हैं जिसमें चिल्हो-सियारो की कथा भी है. आपको जीवितपुत्रिका की संक्षिप्त व्रत कथा सुनाते हैं.
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था. वे बड़े उदार और परोपकारी थे. जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था.वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोड़कर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए. वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया.एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया–‘मैं नागवंश की स्त्री हूँ. मुझे एक ही पुत्र है. पक्षीराज गरूड़ जी के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड़ जी को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंपते हैं.आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है. आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाऊँगी. एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे.जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ. उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा-"रो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूँगा. आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढ़ककर वध्य-शिला पर लेटूँगा ताकि गरूड़ जी मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए. इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ जी को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए. नियत समय पर गरुड़ जी बडे़ वेग से आए और वे लाल कपडे में ढ़के जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए.गरूड़ जी ने अपनी कठोर चोंच का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया. इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आँखों से आँसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे.अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आँखों में से आँसू और मुँह से कराह सुनकर गरुड़ जी बडे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा.
जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं. आप मुझे खाकर भूख शांत करें.गरूड़ जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा. वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूँ जो देवों के संरक्षण में हूँ किन्तु दूसरों की सन्तान की बलि ले रहा हूँ.उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया.गरूड़ जी ने कहा"हे उत्तम मनुष्य मै, तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूँ. मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूँ. तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो.’राजा जीमूतवाहन ने कहा–हे पक्षीराज !आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें. आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें.गरुड़ जी ने सबको जीवनदान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया. इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई. गरूड़ जी ने कहा-तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा. हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी सन्तान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी. तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी. जीवित पुत्रिका के दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के बाद ऊपर बताई गई व्रत कथा भी सुननी चाहिए.पूजा शिवजी को प्रिय प्रदोषकाल में करनी चाहिए.
नर्मदा नदी के पास एक नगर था कंचनबटी. उस नगर के राजा का नाम मलयकेतु था. नर्मदा नदी के पश्चिम में बालुहटा नाम की मरुभूमि थी, जिसमें एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी. उसे पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी. दोनों पक्की सहेलियां बन गई थी. दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और दोनों ने भगवान श्री जीऊतवाहन की पूजा और व्रत करने का प्रण ले लिया. लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई और उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया. सियारिन को अब भूख लगने लगी थी. मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया. पर चील्हो ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया.
अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया. उनके पिता का नाम भास्कर था. चिल्हो बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया. शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई. सियारन, छोटी बहन के रूप में जन्मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया. उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई. अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई. भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए. पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे. कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए. वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे. कपुरावती के मन में उन्हें देख ईर्ष्या की भावना आ गयी. उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए. उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया. यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया. इससे उनमें जान आ गई. सातों युवक जिन्दा हो गए और घर लौट आए. जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए. दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी. जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी. वहाँ सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी. जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई. अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं. वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं.
कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई. जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेंड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया॥
जितिया व्रत है, गवाह ममत्व का, माँ का नमन है, जो प्रतिरुप है ईश्वर का, नमन माँ तुमको बारम्बार है ||
जितिया व्रत के साथ चील और सियार की कथा भी बड़ी श्रद्धा के साथ सुनी जाती है. यह कथा व्रत के महत्व और उसके सही पालन के परिणाम को दर्शाती है.प्राचीन काल में एक जंगल में एक चील और एक सियार रहते थे. वे दोनों गहरे मित्र थे और एक-दूसरे के प्रति अगाध प्रेम रखते थे. वे जो भी भोजन प्राप्त करते, आपस में बांटकर खाते थे.
एक दिन चील भोजन की तलाश में एक गांव में गई, जहां उसने कुछ महिलाओं को जितिया व्रत करते और उसकी कथा सुनते देखा. चील ने व्रत की महिमा सुनी और निश्चय किया कि वह भी यह व्रत करेगी. उसने अपनी मित्र सियार को यह बात बताई और उसे भी व्रत करने का सुझाव दिया. चील ने सियार से कहा कि इस व्रत को करने से अगले जन्म में हम दोनों का कल्याण होगा.
चील और सियार दोनों ने निर्जला व्रत रखा. लेकिन शाम होते-होते सियार को भूख बर्दाश्त नहीं हुई और उसने चुपके से भोजन कर लिया. चील को जब इस बात का पता चला, तो वह सियार पर बहुत क्रोधित हुई.
अगले जन्म में, चील और सियार दोनों ने एक राजा के घर में सगी बहनों के रूप में जन्म लिया. बड़ी बहन वही थी जो पिछले जन्म में सियार थी, और छोटी बहन चील थी. बड़ी बहन का विवाह राजा के पुत्र से हुआ, जबकि छोटी बहन का विवाह मंत्री के पुत्र से हुआ.बड़ी बहन के साथ यह दुर्भाग्य था कि उसे जब भी कोई संतान होती, वह तुरंत मर जाती थी. वहीं, छोटी बहन की सभी संतानें जीवित रहती थीं और दीर्घायु होती थीं. बड़ी बहन अपनी इस दुर्दशा से बहुत दुखी रहती थी.इसके बाद जंगल के शांत वातावरण में, दोनों बहनें वट वृक्ष के नीचे चील और सियार की मूर्तियों की पूजा करती हुई.एक दिन छोटी बहन ने बड़ी बहन की स्थिति देखकर उसे अपने पिछले जन्म की बात बताई और उसे जितिया व्रत करने का सुझाव दिया. बड़ी बहन ने छोटी बहन की बात मानकर पूरे विधि-विधान से जितिया व्रत किया. इस बार जब उसे संतान हुई, तो वह जीवित रही और स्वस्थ रही. तब से बड़ी बहन के सभी बच्चे जीवित रहने लगे.यह कथा दर्शाती है कि व्रत का पालन श्रद्धा और नियम से करना कितना महत्वपूर्ण है, और इसका फल निश्चित रूप से मिलता है. यही कारण है कि जितिया व्रत में भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ चील और सियार की पूजा भी की जाती है
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

