श्रीत्रैलोक्यविजय विष्णु अपराजिता स्तोत्र

श्रीत्रैलोक्यविजय विष्णु अपराजिता स्तोत्र

प्रेषित समय :22:46:17 PM / Tue, Oct 7th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

भगवान विष्णु का मंत्र है अपराजिता मंत्र जिसके पाठ से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। यह मंत्र साधक के अंदर कई गुणों का विकास करता है जैसे - परिस्थिति को कैसे कंट्रोल करना है, कैसे पॉजिटिव रहना है आदि। आइए जानते हैं इस मंत्र के लाभ।


भगवान विष्णु को नारायण और हरि के नाम से भी जाना जाता है। देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। भगवान विष्णु सभी प्राणियों के सर्वव्यापी सार हैं, भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी, सभी अस्तित्वों के निर्माता और संहारक, जो ब्रह्मांड का संरक्षण, पालन और संचालन करते हैं और सभी तत्वों की उत्पत्ति और विकास करते हैं। .क्या है अपराजिता?
अपराजिता वह शक्ति है जिसे न तो नष्ट किया जा सकता है और न ही पराजित किया जा सकता है। कुछ विद्वान अपराजिता को दुर्गा का रूप मानते हैं तो कुछ इसे भगवान विष्णु की शक्ति मानते हैं। अपराजिता मंत्र का लाभ
इस मंत्र का प्रयोग प्रचुर मात्रा में सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। साथ ही जिन लोगों के शत्रु उन्हें अत्यधिक परेशान कर रहे हैं उनके लिए भी यह मंत्र कारगर सिद्ध होता है। यह मंत्र साधक के अंदर की नीरसता को दूर करता है। 

।। श्रीत्रैलोक्यविजय विष्णु अपराजिता स्तोत्र ।।

ॐ सर्वविजयेश्वरी विद्महे, महाशक्तयै धीमहि। तन्नो: अपराजितायै प्रचोदयात।।

मूल पाठ-

ॐ नमो भगवते महावासुदेवाय विश्वेश्वराय विश्वरूपाय परमात्मने नमः।

ॐ महाअनंताय महाकाल संकर्षणाय महाज्वाला रूपाय महाउग्रवीर महाविष्णवे नमः।

ॐ नमो अपराजित विषणवे कालान्तकाय महाज्वालाय सुरसिंहाय नमः।

ॐ ॐ ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं श्रीं आंआंआं ह्रौं ह्रौं ह्रौं हंस:हंस:हंस:,ॐ ह्रीं श्रीं नमो विष्णवे।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नमो महानारायणाय।

ॐ ह्रीं श्रींं क्लीं नमो भगवते महावासुदेवाय।

ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं अनन्ताय महासंकर्षणाय।

ॐ सर्वेश्वराय सर्व विघ्न विनाशाय मधूसुदनाय ठ:ठ:।

ॐ नमो केशवाय।

ॐ ह्रीं नमो नारायणाय अनन्ताय श्रीं नमः।

ॐ नमो भगवते जनार्दनाय जगदीश्वराय ।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय त्रैलोक्यनाथाय।

ॐ नारायणः परं ज्योति-रात्मा नारायणः परः।

नारायणः परं ब्रह्म नारायण नमोऽस्तु ते।।

नारायणः परो देवो धाता नारायणः परः।

नारायणः परो धाता नारायण नमोऽस्तु ते।।

नारायणः परं धाम ध्यानं नारायणः परः।

नारायण परो धर्मो नारायण नमोऽस्तु ते।।

नारायणः परो देवो विद्या नारायणः परः।

विश्वं नारायणः साक्षान् नारायण नमोऽस्तु ते।।

नारायणाद् विधि-र्जातो जातो नारायणाद् भवः।

जातो नारायणादिन्द्रो नारायण नमोऽस्तु ते।।

रवि-र्नारायण-स्तेजः चन्द्रो नारायणो महः।

वह्नि-र्नारायणः साक्षात् नारायण नमोऽस्तु ते।।

नारायण उपास्यः स्याद् गुरु-र्नारायणः परः।

नारायणः परो बोधो नारायण नमोऽस्तु ते।।

नारायणः फलं मुख्यं सिद्धि-र्नारायणः सुखम्।

हरि-र्नारायणः शुद्धि-र्नारायण नमोऽस्तु ते।।

निगमावेदितानन्त-कल्याणगुण-वारिधे।

नारायण नमस्तेऽस्तु नरकार्णव-तारक।।

जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-पारतन्त्र्यादिभिः सदा।

दोषै-रस्पृष्टरूपाय नारायण नमोऽस्तु ते।।

वेदशास्त्रार्थविज्ञान-साध्य-भक्त्येक-गोचर।

नारायण नमस्तेऽस्तु मामुद्धर भवार्णवात्।।

नित्यानन्द महोदार परात्पर जगत्पते।

नारायण नमस्तेऽस्तु मोक्षसाम्राज्य-दायिने।।

आब्रह्मस्थम्ब-पर्यन्त-मखिलात्म-महाश्रय।

सर्वभूतात्म-भूतात्मन् नारायण नमोऽस्तु ते।।

पालिताशेष-लोकाय पुण्यश्रवण-कीर्तन।

नारायण नमस्तेऽस्तु प्रलयोदक-शायिने।।

निरस्त-सर्वदोषाय भक्त्यादि-गुणदायिने।

नारायण नमस्तेऽस्तु त्वां विना न हि मे गतिः।।

धर्मार्थ-काम-मोक्षाख्य-पुरुषार्थ-प्रदायिने।

नारायण नमस्तेऽस्तु पुनस्तेऽस्तु नमो नमः।।

विनियोग:।

ॐ अस्या वैष्णवया:पराया: अजिताया महाविद्या वामदेव-ब्रहस्पतमार्कणडेया ॠषयः। गाय्त्रुश्धिगानुश्ठुब्ब्रेहती छंदासी। लक्ष्मी नृसिंहो देवता। ॐ क्लीं श्रीं हृीं बीजं हुं शक्तिः। सकल कामना सिद्ध्यर्थ अपराजित विद्द्य्मंत्र पाठे विनियोग:। (जल भूमि पर छोड़ दे)

अपराजिता देवी ध्यान।

ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजंगाभरणानिव्तं।

शुद्ध्स्फटीकंसकाशां चन्द्र्कोटिनिभाननां।।१।।

शड़्खचक्रधरां देवीं वैष्णवीं अपराजितं।

बालेंदुशेख्रां देवीं वर्दाभाय्दायिनीं।।२।।

नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कंडेय महातपा:।।३।।

श्री मार्कंडेय उवाच।

शृणुष्वं मुनय: सर्वे सर्व्कामार्थ्सिद्धिदाम्।

असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीं अपराजितम्।।४।।

ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय, नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्त्रशीर्षायणे, क्षीरोदार्णवशायिने, शेषभोगपर्य्यङ्काय, गरुड़वाहनाय, अमोघाय अजाय अजिताय पीतवाससे,ॐ वासुदेव सड़्कर्षण प्रघुम्न, अनिरुद्ध, हयग्रीव, मत्स्य, कुर्म, वाराह, नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर,राम राम राम। वरद, वरद, वरदो भव, नमोस्तुते, नमोस्तुते स्वाहा,

ॐ नमोस्तुते ।अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठत सिद्धे, जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशितितमे, एकाकिनी, निश्चेतसी, सुद्र्मे, सुगन्धे, एकान्न्शे, उमे, ध्रुवे, अरुंधती, गायत्री, सावित्री, जातवेदसी, मास्तोके, सरस्वती,धरणी, धारणी, सौदामिनी, अदीति, दिति, विनते, गौरी ,गांधारी, मातंगी, कृष्णे , यशोदे, सत्यवादिनी, ब्र्म्हावादिनी, काली ,कपालिनी, कराल्नेत्र, भद्रे, निद्रे, सत्योप्याचकरि, स्थाल्गंत, जल्गंत,अन्त्रख्सिगतं वा माँ रक्षसर्वोप्द्रवेभ्य: स्वाहा।

यस्या: प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि।

भ्रियते बालको यस्या: काक्बन्ध्या च या भवेत्।।११।।

धारयेघा इमां विधामेतैदोषैन लिप्यते।

गर्भिणी जीवव्त्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशय:।।१२।।

भूर्जपत्रे त्विमां विद्धां लिखित्वा गंध्चंदनैः।

एतैदोषैन लिप्यते सुभगा पुत्रिणी भवेत्।।१३।।

रणे राजकुले दुते नित्यं तस्य जयो भवेत्।

शस्त्रं वारयते हृोषा समरे काडंदारूणे।।१४।।

गुल्मशुलाक्शिरोगाणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम्।।१५।।

इत्येषा कथिता विद्द्या अभयाख्या अपराजिता।

एतस्या: स्म्रितिमात्रेंण भयं क्वापि न जायते।।१६।।

नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्करा:।

न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रव:।।१७।।

यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहा:।

अग्नेभ्र्यं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात्।।१८।।

कामणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च।

उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा।।१९।।

न किन्चितप्रभवेत्त्र यत्रैषा वर्ततेऽभया।

पठेद वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा।।२०।।

हृदि वा द्वार्देशे व वर्तते हृाभय: पुमान्।

ह्रदय विन्यसेदेतां ध्यायदेवीं चतुर्भुजां।।२१।।

रक्त्माल्याम्बरधरां पद्दरागसम्प्रभां।

पाशाकुशाभयवरैरलंकृतसुविग्रहां।।२२।।

साध्केभ्य: प्र्यछ्न्तीं मंत्रवर्णामृतान्यापि।

नात: परतरं किन्च्चिद्वाशिकरणमनुतम्ं।।२३।।

रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा।

प्रात: कुमारिका: पूज्या: खाद्दैराभरणैरपि।

तदिदं वाचनीयं स्यातत्प्रिया प्रियते तू मां।।२४।।

ॐ अथात: सम्प्रक्ष्यामी विद्दामपी महाबलां।

सर्व्दुष्टप्रश्मनी सर्वशत्रुक्षयड़्करीं।।२५।।

दारिद्र्य्दुखशमनीं दुभार्ग्यव्याधिनाशिनिं।

भूतप्रेतपिशाचानां यक्श्गंध्वार्क्षसां।।२६।।

डाकिनी शाकिनी स्कन्द कुष्मांडनां च नाशिनिं।

महारौदिं महाशक्तिं सघ: प्रत्ययकारिणीं।।२७।।

गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वंपार्वतीपते:।

तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः श्रृणु।।२८।।

एकाहिृकं द्वहिकं च चातुर्थिकर्ध्मासिकं।

द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्थ्मासिकं।।२९।।

पाँचमासिक षाड्मासिकं वातिक पैत्तिक्ज्वरं।

श्रैष्मिकं सानिपातिकं तथैव सततज्वरं।।३०।।

मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरं।

द्वहिंकं त्रयहिन्कं चैव ज्वर्मेकाहिकं तथा।

क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणाद्पराजिता।।३१।।

ॐ हीं हन हन कालि शर शर गौरि धम धम

विद्धे आले ताले माले गन्थे बन्धे पच पच विद्दे

नाशाय नाशाय पापं हर हर संहारय वा दु:स्वप्नविनाशनी कमलस्थिते विनायकमात:

रजनि संध्ये दुन्दुभिनादे मानसवेगे शड़्खिनी चक्रिणीबगदिनी वज्रिणी शूलिनी अपमृत्युविनाशिनी विश्रेश्वरी द्रविणी द्राविणी केश्वद्यिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनी दुम्मदमनी शबरि किराती मातंगी ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु।

ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान सर्वान दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रम्हाणी ब्रम्हाणी माहेश्वरी कौमारि वाराहि नारसिंही एंद्री चामुंडे महालक्ष्मी वैनायिकी औपेंद्री आग्नेयी चंडी नैॠति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊध्र्व्मधोरक्ष प्रचंद्विद्दे इन्द्रोपेन्द्रभगिनि।

ॐ नमो देवी जये विजये शान्ति स्वस्ति तुष्ठी पुष्ठी विवर्द्धिनी कामांकुशे कामदुद्दे सर्वकामवर्प्रदे सर्वभूतेषु माँ प्रियं कुरु कुरु स्वाहा।

आकर्षणी आवेशनि ज्वालामालिनी रमणी रामणि धरणी धारणी तपनि तापिनी मदनी मादिनी शोषणी सम्मोहिनी।

नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये।

महाचान्द्री महासौरी महामायुरी आदित्यरश्मि जाहृवि। यमघंटे किणी किणी चिन्तामणि।

सुगन्धे सुर्भे सुरासुरोत्प्त्रे सर्वकाम्दुद्दे।

यद्द्था मनिषीतं कार्यं तन्मम सिद्धतु स्वाहा।

ॐ स्वाहा। ॐ भू: स्वाहा। ॐ भुव: स्वाहा।

ॐ स्व: स्वाहा। ॐ मह: स्वाहा। ॐ जन: स्वाहा। ॐ तप: स्वाहा। ॐ सत्यं स्वाहा। ॐ भूभुर्व: स्वाहा।

यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छ्तु स्वाहेत्यों।

अमोघैषा महाविद्दा वैष्णवी चापराजिता।।३२।।

स्वयं विश्नुप्रणीता च सिद्धेयं पाठत: सदा।

एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजित।।३३।।

नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्दते।

तमोगुणमयी साक्षद्रोद्री शक्तिरियं मता।।३४।।

कृतान्तोऽपि यतोभीत: पाद्मुले व्यवस्थित:।

मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेन च संस्मरेत।।३५।।

नीलजीतमूतसंड़्काशां तडित्कपिलकेशिकाम्।

उद्ददादित्यसंकाशां नेत्रत्रयविराजिताम्।।३६।।

शक्तिं त्रिशूलं शड़्खं चपानपात्रं च बिभ्रतीं।

व्याघ्र्चार्म्परिधानां किड़्किणीजालमंडितं।।३७।।

धावंतीं गगंस्यांत: पादुकाहितपादकां।

दंष्टाकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषितां।।३८।।

व्यात्वक्त्रां ललजिहृां भुकुटिकुटिलालकां।

स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पान्पात्रत:।।३९।।

सप्तधातून शोषयन्तीं क्रूरदृष्टया विलोकनात्।

त्रिशुलेन च तज्जिहृां कीलयंतीं मुहुमुर्हु:।।४०।।

पाशेन बद्धा तं साधमानवंतीं तन्दिके।

अर्द्धरात्रस्य समये देवीं ध्यायेंमहबलां।।४१।।

यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मंत्रं निशांतके।

तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापियोगिनी।।४२।।

ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति।

अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीं।।४३।।

श्रीमद्पाराजिताविद्दां ध्यायते।

दु:स्वप्न दुरारिष्टे च दुर्निमिते तथैव च।

व्यवहारे भवेत्सिद्धि: पठेद्विघ्नोपशान्त्ये।।४४।।

यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्धऽक्षरहीमीड़ितं।

तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सड़्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायतां।।४५।।

ॐ तव तत्वं न जानामि किदृशासी महेश्वरी।

यादृशासी महादेवी ताद्रिशायै नमो नम:।।४६।।

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