भारत की स्टील इंडस्ट्री जिस तेज़ी से आगे बढ़ रही है, उसी रफ्तार से उस पर एक अदृश्य संकट भी गहराता दिख रहा है—और इसकी जड़ें भारत में नहीं, बल्कि हजारों किलोमीटर दूर ऑस्ट्रेलिया की खदानों में छिपी हैं। IEEFA की नई रिपोर्ट साफ चेतावनी देती है कि भारत की बढ़ती स्टील मांग का भविष्य अब सिर्फ घरेलू फैक्ट्रियों या सरकारी नीतियों पर निर्भर नहीं, बल्कि उस वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर टिका है जिसके टूटते ही भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक सेक्टर अस्थिर हो सकता है।
भारत विश्व का सबसे तेज़ी से बढ़ता स्टील बाजार बन चुका है। सरकार 2030 तक स्टील उत्पादन क्षमता को 300 मिलियन टन प्रति वर्ष तक पहुंचाने का लक्ष्य तय कर चुकी है। लेकिन इस विस्तार की बुनियाद जिस तकनीक—ब्लास्ट फर्नेस/बेसिक ऑक्सीजन फर्नेस (BF-BOF)—पर खड़ी है, वह मेटलर्जिकल कोयले (मेट कोल) के बिना चल ही नहीं सकती। और यही कोयला भारत को भारी मात्रा में बाहर से खरीदना पड़ता है। कुल जरूरत का लगभग 90% सिर्फ ऑस्ट्रेलिया से आता है। यही निर्भरता आने वाले वर्षों में भारत की कमजोरी बन सकती है।
IEEFA का निष्कर्ष साफ है—ऑस्ट्रेलिया की सप्लाई पहले जैसी स्थिर नहीं रहेगी। दुनिया का सबसे बड़ा मेट कोल एक्सपोर्टर होने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया की खदानें अब कानूनी मुकदमों, लागत बढ़ने, निवेश में कमी, पर्यावरणीय विरोध और नए प्रोजेक्ट्स को मंजूरी मिलने में देरी जैसे दबावों में फंस चुकी हैं। रिपोर्ट कहती है कि भविष्य में सप्लाई कम हुई और कीमतें बढ़ गईं, तो भारत की स्टील इंडस्ट्री को भारी आर्थिक झटका लग सकता है, खासकर तब जब देश नए BF-BOF प्लांट्स पर तेजी से निवेश कर रहा है।
IEEFA के प्रमुख विश्लेषक साइमोन निकोलस कहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया खुद 2050 नेट-जीरो लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। वहां कोयला विस्तार के खिलाफ कानूनी कार्रवाइयां तेज़ हो रही हैं। COP30 में ऑस्ट्रेलिया ने बेलें डिक्लेरेशन पर हस्ताक्षर किए, जो तेल, गैस और कोयले से तेज़ी से दूर जाने की मांग करता है। इसका सीधा मतलब है कि भारत की कोयला निर्भरता आने वाले दिनों में और अधिक जोखिमपूर्ण होने वाली है। निकोलस की चेतावनी स्पष्ट है—भारत जितनी तेजी से BF-BOF प्लांट को बढ़ा रहा है, उतनी ही तेजी से भविष्य का जोखिम भी बढ़ा रहा है।
तो अब रास्ता क्या है?
IEEFA के शोधकर्ता सौम्या नौटियाल मानते हैं कि भारत के पास विकल्प मौजूद हैं, लेकिन उन पर तुरंत रफ्तार पकड़नी होगी। पहला विकल्प है स्क्रैप आधारित इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस (EAF)। दुनिया पहले ही EAF मॉडल पर शिफ्ट कर रही है, क्योंकि यह न सिर्फ कोयले पर निर्भरता घटाता है, बल्कि ऊर्जा दक्षता और उत्सर्जन दोनों में बेहतर है।
दूसरा रास्ता है ग्रीन हाइड्रोजन आधारित स्टील। भारत दुनिया में सबसे सस्ता ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादक बन सकता है, यह संभावनाएं रिपोर्ट भी मानती है। पर चुनौती यह है कि भारत अभी तक ग्रीन हाइड्रोजन को निर्यात मॉडल में देखता है—जबकि जरूरत है कि इसे घरेलू स्टील इंडस्ट्री में सीधे इस्तेमाल किया जाए।
तीसरा जरूरी कदम है लो-कार्बन टेक्नोलॉजी के लिए मजबूत नीति ढांचा। बिना स्पष्ट सरकारी समर्थन के उद्योग निवेश जोखिम नहीं लेता। रिपोर्ट कहती है कि नीति स्थिरता और वित्तीय प्रोत्साहन भारत को इस परिवर्तन की दौड़ में आगे ले जा सकते हैं।
ये बदलाव आसान नहीं हैं—इंफ्रास्ट्रक्चर चाहिए, निवेश चाहिए, स्क्रैप इकोसिस्टम मजबूत करना होगा, और सबसे बढ़कर उद्योग को भरोसा चाहिए कि सरकार ग्रीन टेक्नोलॉजी ट्रांजिशन में उसके साथ खड़ी रहेगी। पर समय कम है। अगर भारत अभी कदम नहीं उठाता, तो आने वाले दशक में बढ़ती मेट कोल कीमतें, आपूर्ति में झटके, और मुनाफे में भारी गिरावट स्टील सेक्टर को झकझोर सकती हैं।
बड़ी तस्वीर यही है—भारत की स्टील इंडस्ट्री 2070 नेट-जीरो की राह पर चलना चाहती है, लेकिन उसकी नींव आयातित कोयले पर टिकी है। जब नींव ही अस्थिर हो, तो ऊपर खड़ी सबसे आधुनिक इमारत भी संकट से नहीं बचती। IEEFA की रिपोर्ट इसी दिशा में चेतावनी देती है कि भारत को अब निर्णायक बदलाव की ओर बढ़ना ही होगा। स्क्रैप, ग्रीन हाइड्रोजन और स्वदेशी तकनीक ही ऊर्जा सुरक्षा और औद्योगिक स्थिरता का भविष्य हैं।
भारत जितनी जल्दी यह नया रास्ता अपनाएगा, उतनी ही मजबूती से उसकी स्टील इंडस्ट्री वैश्विक बाजार के बदलते समीकरणों का सामना कर सकेगी।
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

