बड़वा गाँव : हरियाणा की ‘छोटी काशी’

बड़वा गाँव : हरियाणा की ‘छोटी काशी’

प्रेषित समय :18:54:13 PM / Tue, Dec 9th, 2025
Reporter : पलपल रिपोर्टर

-डॉ. सत्यवान सौरभ

बड़वा, हरियाणा के भिवानी ज़िले का एक ऐसा प्राचीन और गौरवशाली गाँव है, जिसके कण–कण में इतिहास, अध्यात्म और संस्कृति रच-बस गए हैं. गाँव के उत्तर-पूर्व में हिसार, दक्षिण में सीवानी कस्बा, उत्तर में चौधरीवास, पूर्व में रावतखेड़ा तथा पश्चिम में नलोई और गावर गाँव स्थित हैं. इसका पिन कोड १२७०४५ है. अपनी विशिष्ट संस्कृति, मंदिरों की बहुलता और आस्थापूर्ण जीवन के कारण बड़वा को हरियाणा की ‘छोटी काशी’ कहा जाता है. यहाँ का वातावरण इतना सौम्य, सादा और मानवीय है कि कोई भी आगंतुक गाँव में प्रवेश करते ही आत्मिक शांति का अनुभव करता है.

यह गाँव हरियाणवी और राजस्थानी संस्कृति के सुंदर संगम का अद्भुत प्रमाण है. यहाँ के लोग सहज, शरीफ़, धार्मिक प्रवृत्ति के और अत्यंत विनम्र स्वभाव के हैं. सरल जीवन और ऊँचे विचार इस समुदाय की पहचान हैं. जीवन को त्यौहार की तरह जीने की कला, हर पल में आनंद ढूँढ लेने का दृष्टिकोण और मिल-जुलकर रहने की परंपरा इस गाँव की सामाजिक आत्मा है. बड़वा का सामुदायिक माहौल इतना सौहार्दपूर्ण है कि यह गाँव केवल एक बस्ती नहीं, बल्कि एक विस्तृत परिवार की तरह दिखाई देता है.

गाँव के उत्तर भाग में स्थित माँ दुर्गा मंदिर नवरात्रों का प्रमुख केंद्र है. नवरात्रों के दिनों में यहाँ प्रतिदिन सवा मणि भोग का वितरण भक्तिभाव और परंपरा का अनुपम उदाहरण है. मंदिर में उमड़ने वाली श्रद्धा, रोज़ाना कीर्तन और सामूहिक सहभागिता गाँव की आध्यात्मिकता को सजीव करती है. चारों दिशाओं में फैले मंदिरों का विस्तार बड़वा की धार्मिक विरासत को और भी उजागर करता है. उत्तर दिशा में पुराना ठाकुर जी मंदिर, श्रीकृष्ण मंदिर, शिव मंदिर, हनुमान मंदिर, पक्का (केसर) जोहड़, दुर्गा मंदिर और सती दादी मंदिर स्थित हैं. दक्षिण दिशा में बाबा रामदेव मंदिर, बाबा गोगा पीर मंदिर, विश्वकर्मा मंदिर, गाँव का स्टेडियम और पशु चिकित्सालय है. पूर्व दिशा में शनि देव मंदिर, निर्माणाधीन श्री श्याम मंदिर तथा कई छोटे मंदिरों की शृंखला है. पश्चिम दिशा में गोरी दादी मंदिर और झांग आश्रम गाँव की पवित्र पहचान को और भी गहरा करते हैं.

बड़वा की प्राचीनता उसकी हवेलियों से झलकती है. यहाँ की २० से अधिक भव्य और कलात्मक हवेलियाँ गाँव के सुनहरे अतीत की प्रतिनिधि हैं. इन्हें देखकर स्पष्ट होता है कि यह गाँव कभी समृद्ध व्यापारिक, सांस्कृतिक और सामाजिक केंद्र रहा होगा. पुराने समय में यहाँ कई प्रतिष्ठित और बड़े सेठ रहते थे, जिनमें श्री परशुराम सेठ और श्री लायक राम सेठ के नाम विशेष सम्मान और श्रद्धा के साथ स्मरण किए जाते हैं. हवेलियों की विशालता, स्थापत्य कला और परिवारों की विरासत आज भी इस गाँव की गरिमा को उजागर करती हैं.

शिक्षा के क्षेत्र में भी बड़वा अग्रणी है. गाँव में १०+२ राजकीय बालक विद्यालय, राजकीय बालिका उच्च विद्यालय, शिवालिक हाई स्कूल, टैगोर सीनियर सेकेंडरी स्कूल, दयानंद हाई स्कूल तथा उच्च शिक्षा प्रदान करने वाला टैगोर कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन स्थित है. यह शैक्षणिक विस्तार ग्रामीण परिवेश में शिक्षा के सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त करता है. गाँव के मध्य में अवस्थित रामलीला मैदान सांस्कृतिक चेतना का केंद्र है, जहाँ हर वर्ष अत्यंत विधि-विधान और भक्ति के साथ रामलीला का मंचन किया जाता है. वर्षभर सत्संग-किर्तन का सिलसिला गाँव की आध्यात्मिक ऊर्जा को निरंतर सक्रिय बनाए रखता है.

गौशाला का संचालन ग्रामीणों के सहयोग, दान और सेवा-भाव पर आधारित है, जो बड़वा के सामुदायिक संस्कारों का सच्चा प्रतीक है. गाँव के भीतर व आसपास के धार्मिक स्थलों में बाबा कमलगिरी की कुटिया, गुरु जाम्बेश्वर मंदिर, जमानी बुआ स्थित श्रीकृष्ण मंदिर, मुख्य बाज़ार का श्री रघुनाथ मंदिर और रोषड़ा (स्थानीय उच्चारण–रोहसड़ा) जोहड़ के समीप स्थित भभूता मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. दक्षिण दिशा में सीवानी मार्ग पर स्थित काली माई मंदिर (महावतार धाम) अपनी दिव्य ऊर्जा और आस्था के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध है.

पिछले बीस वर्षों से सतत साहित्य-साधना में रत तथा पच्चीस से अधिक कृतियों के रचनाकार, गाँव के युवा साहित्यकार एवं सामाजिक चिंतक दम्पति — डॉ. सत्यवान सौरभ और डॉ. प्रियंका सौरभ — के अनुसार बड़वा केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना, परंपरा, अध्यात्म और आधुनिकता के संतुलन का जीवंत उदाहरण है. उनके शब्दों में, “बड़वा हरियाणा के उन विरल गाँवों में से है, जहाँ संस्कृति केवल संरक्षित नहीं, बल्कि प्रतिदिन जी जाती है.”

इसी सांस्कृतिक जीवंतता का प्रमाण है कि पिछले ३० वर्षों से रोषड़ा (स्थानीय उच्चारण–रोहसड़ा) जोहड़ पर कलयुग के अवतार माने जाने वाले ‘रुन्चे वाले बाबा रामदेव महाराज’ का विशाल मेला और खेल प्रतियोगिताएँ निरंतर आयोजित होती आ रही हैं. यह मेला न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह खेल भावना, सामाजिक सहभागिता और सामुदायिक एकजुटता का भी महत्त्वपूर्ण केंद्र बन चुका है. इसी प्रकार गोगा पीर मंदिर प्रांगण में आयोजित डफ प्रतियोगिता हर वर्ष क्षेत्रीय लोक-संस्कृति को जीवंत करती है, जिसमें दूर-दराज़ के कलाकार और श्रद्धालु बड़ी संख्या में भाग लेते हैं.

बड़वा की पहचान केवल मंदिरों, मेलों और परंपराओं से ही नहीं बनती, बल्कि यहाँ की जनता के संस्कार, व्यवहार, शिक्षा-स्तर और सरलता भी इसे विशेष बनाती है. लोग अत्यंत शालीन, शिक्षित, व्यवस्थित और आपसी सहयोग की भावना से परिपूर्ण हैं. यहाँ की सामाजिक एकता, पारिवारिक संस्कृति और आपसी सम्मान का वातावरण एक आदर्श ग्रामीण जीवन की छवि प्रस्तुत करता है.

अंततः, बड़वा हरियाणा की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक पहचान का एक उज्ज्वल प्रतीक है — एक ऐसा गाँव, जहाँ परंपरा और आधुनिकता सहज संतुलन में सह-अस्तित्व रखती हैं; जहाँ धर्म, लोक-जीवन, शिक्षा और सामाजिक सौहार्द एक ही धारा में प्रवाहित होते हैं; और जहाँ हर आने वाला व्यक्ति अपनत्व और शांति का अनुभव करता है.

बड़वा गाँव की पहचान उसके ऐतिहासिक केसर तालाब से गहराई से जुड़ी है. कहा जाता है कि सेठ परशुराम ने अपनी बहन केसर की मर्यादा की रक्षा हेतु यह तालाब बनवाया था. उस समय गाँव की स्त्रियाँ गोबर चुनने जाती थीं, और यह कार्य सम्पन्न तथा उच्च जाति के लोगों के लिए अपमानजनक माना जाता था. बहन को इस अपमान से बचाने के लिए सेठ ने वहाँ एक विशाल, पक्का तालाब निर्माण करवाया, जो आगे चलकर केसर तालाब के नाम से प्रसिद्ध हुआ.

तालाब के ठीक पास एक गहरा कुंड स्थित है, जिसे मुक्तिधाम के नाम से जाना जाता है. लोककथाओं के अनुसार दुखी महिलाएँ कभी-कभार यहाँ कूदकर अपनी जीवनयात्रा समाप्त कर लेती थीं. इसी कारण यह स्थान लोकमानस में ‘मुक्तिधाम’ कहलाया. कुंड के किनारे बनी छतरियों की दीवारों पर राधा-कृष्ण की रासलीला के अद्भुत चित्र आज भी सुरक्षित हैं. इन चित्रों में ढोलक, नगाड़े, बांसुरी, हारमोनियम जैसे लोकवाद्य सुंदरता से उकेरे गए हैं. लाल, पीले और नीले रंगों की चमक चित्रों को जीवंत बनाती है—श्रीकृष्ण नीले रंग में और राधा गोरे रंग में अंकित की गई हैं. मोर, तोता, चिड़िया जैसे पशु-पक्षियों की आकृतियाँ भी चित्रकला की शोभा बढ़ाती हैं.

बड़वा की सांस्कृतिक समृद्धि इतनी पुरातन और आकर्षक रही है कि हरियाणवी सिनेमा भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. प्रसिद्ध हरियाणवी फिल्मों ‘चंद्रावल’ और ‘बैरी’ के कई दृश्य इसी गाँव के केसर और रूसहड़ा जोहड़ और आसपास के कुओं के पास फिल्माए गए थे. आज भी वे पनघट, जहाँ कभी ‘चंद्रो’ के दृश्य फिल्माए गए थे, गाँव की सामूहिक स्मृतियों में गर्व का स्थान रखते हैं. गाँववाले उन स्थानों को आज भी अपने इतिहास और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक मानते हैं.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-