घर-परिवार में अक्सर होता है कि पड़ोसी के घर कुछ आया तो अपने घर में प्रसंगहीन होने के बावजूद उसकी चर्चा हो ही जाती है. विशेषकर पड़ोसी अगर घर के ठीक अगर-बगल में हो तब तो क्या आया, क्या गया पर नजरें और भी तेज हो जाती हैं. पड़ोसी का एक और पहलू होता है कि वह अगर अच्छा है तो आपका जीवन भी आनंद से भर देता है. और अगर वह शठ प्रवृत्ति का हुआ तो आपको अक्सर परेशान करता रहेगा. परेशान करने वाला पड़ोसी बेमतलब भी कुछ ऐसा कर बैठेगा कि आप यति प्रवृत्ति के व्यक्ति हों, तो भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते. इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि पड़ोसी से ऊपर नहीं तो कम-से-कम बाराबरी में हुआ जाए. यह बराबरी सर्वतोमुखी और सर्वांगीण होती है. कुछ-कुछ शठे-शाठ्यम समाचरेत के समान. यह स्थिति केवल नागरिक, पारिवारिक या सामाजिक जीवन ही में नहीं, राष्ट्रीय जीवन में भी लागू होती है. जैसे कि पाकिस्तान या चीन जैसा पड़ोसी हो तो समस्या खड़ी होती रहेगी. भारत, हमारा देश इसी प्रकार के पड़ोसियों के साथ रहने को बाध्य है. अटल जी ने एक बार कहा था की आप दोस्त बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं बदल सकते. यह राजनैतिक भूगोल की बाध्यता है. अभी का सन्दर्भ नई परिस्थितियों में चीन को लेकर है. चीन की चालाकियाँ और चालबाजियाँ भारत के लिए कोई नयी बात नहीं है. अब बातें साफ़ होने लगीं हैं कि पश्चिम वाले पड़ोसी, पकिस्तान की हरकतें भी चीन की हरकतों का ही हिस्सा हैं. अब ऐसे पड़ोसी के लिए भी तो शठे शाठ्यम समाचरेत के सिवाए क्या उपाय बचता है! लेकिन एक बड़ा सवाल है, इस पड़ोसी की बराबरी में आने के लिए कितनी दूरी तय करनी होगी. भारत और चीन की परिस्थितियों और उपलब्धियों का तुलनात्मक अध्ययन और बहुत भारी अंतर से भारत के पीछे रहने के मूल कारणों को समझे बगैर बराबरी का स्तर छूने की कवायद दिग्भ्रमित हो सकती है. बहुत संक्षेप में कुछ बिन्दुओं पर गौर करें.

प्रथमदृष्टया चीन की क्षमता भारत से काफी अधिक दिखती है. मेरा उद्देश्य किसी भी रूप में भारत को चीन से कमतर आंकना नहीं है. उद्देश्य बस इतना है कि चीजों को इस वास्तविक नजरिये से देखा जाए ताकि नागरिक, समाज, सरकार और सम्पूर्ण देश उस वास्तविक आधार पर अपनी मानसिक और भौतिक तैयारियां कर सके. हम सभी जानते है, अगर आपके पास पर्याप्त धन और आर्थिक शक्ति हो तो आप अपनी भौतिक ज़रूरतों की पूर्ति के लिए निश्चिन्त रह सकते हैं. यह बात राष्ट्र के सन्दर्भ में भी लागू होती है. भारत ने अंग्रेजों से 1947 में सत्ता हासिल की. उसके लगभग दो वर्षों के बाद चीन में नए नेतृत्व ने सत्ता प्राप्त की. उभय सीमा के इन दोनों देश की आर्थिक यात्रा लगभग एक साथ आरम्भ हुयी. इधर पंडित जवाहरलाल नेहरु का आर्थिक दृष्टिकोण था तो उधर माओ-त्से-तुंग का आर्थिक दृष्टिकोण था. यह बहस का अलग विषय है. अभी दोनों देश की आर्थिक क्षमता का पैमाना यह है की चीन की अर्थव्यवस्था 15 ट्रिलियन के करीब है, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी 3 ट्रिलियन के करीब है. और जब आर्थिक अवस्था में फर्क इतना बड़ा हो तो बाकी चीजों पर इसका असर पढ़ना स्वाभाविक है. साधारण शब्दों में हम अभी जहाँ खड़े हैं, चीन वहाँ से पाँच किलोमीटर आगे है और वह ठहरा नहीं है. उसकी अपनी गति है आगे बढ़ने की, हमें उसकी गति का पीछा करते हुए उसके बराबर में पहुंचना है. कैसे पहुँचें ? तो देखना पडेगा कि चीन कैसे पहुंचा है.

शिक्षा के क्षेत्र में आंकड़ों पर गौर करें तो चीन के पास अनगिनत शैक्षणिक प्रतिभा खोज कार्यक्रम हैं. इस खोज के माध्यम से समाज के सबसे मेधावी और संभावनाशील लड़के-लड़कियों को चिन्हित करके उन्हें सरकार द्वारा प्रायोजित करके संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जापान और सिंगापुर जैसे देशों में उन्नत शिक्षा ग्रहण करने भेजा जाता है. चीन के  शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में इस तरह के बच्चों को उनकी मेधा के अनुसार जो शिक्षा दी जाती है, वह अलग है. भारत में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को खुद उनकी अपनी सरकार ही उपेक्षित कर देती है, सरकार नेहरु से लेकर मोदी तक, जिसकी भी रही हो. नतीजा ! हमारे यहाँ साइकिल में हवा भरने वाला पंप भी चीन का बना आता है. यह फर्क क्यों है, जब इस पर सोचें तो पता चलता है कि चीन में प्रतिभा के चयन और उन्नयन के मामले में कोई सवर्ण-दलित, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का झमेला नहीं है. जिसमें जैसे प्रतिभा है, उसका उसी प्रकार संवर्धन करने में सरकार और सिस्टम का नजरिया साफ़ है. तो इधर भारत में इंजीनियरिंग कॉलेजों और मेडिकल कॉलेजों में 69% सीटें समुदाय और जाति के नाम पर आरक्षित हैं, जिसका प्रतिभा से कोई सम्बन्ध नहीं होता. 69% इंजिनियर और डॉक्टर बगैर प्रतिभा के भी बन सकते हैं. और जिनमें प्रतिभा है, वे बाकी 31% में समायोजित हो पाए तो हो पाए, अन्यथा कोई जगह नहीं. परिणाम यह है कि 2020 में 8 राज्यों में केवल 0.9% डॉक्टर और केवल 9.3% इंजीनियर सवर्ण जातियों से बन पाए. राष्ट्र हित के बदले राजनैतिक हितों को साधने के लिए बनी नीतियों के कारण प्रतिभा का इस प्रकार हनन करने वाले ये 8 राज्य हैं : आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, केरल, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, बंगाल और मध्य प्रदेश. यह भारत के सभी राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों और सम्पूर्ण राजनैतिक व्यवस्था के लिए एक विचारणीय बिंदु होना चाहिए कि आरक्षण के सन्दर्भ में भारत के संविधान का उद्देश्य क्या था, दृष्टि क्या थी, आदेश क्या था और संविधान लागू होने के विगत 7 दसकों में देश की राजनीति उस उद्देश्य, दृष्टि और आदेश के साथ कैसा व्यवहार किया है. विचारणीय यह भी है कि इस व्यवहार के कारण देश की कितनी क्षति हुयी है, प्रगति कितना बाधित हुयी है, आर्थिक-बौद्धिक शक्ति का कितना ह्रास हुआ है.

चीन में मेधा की प्राप्ति है तो भारत में मेधा का पलायन है. यूएस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनेडा, यूरोप या सिंगापुर में स्नातकोत्तर का अध्ययन करने वाले चीनी विद्यार्थियों में से 80% लोग 15 वर्षों के भीतर चीन वापस लौट आते हैं और अनुसंधान, इंजीनियरिंग या चिकित्सा या जैव विज्ञान में संविदा के काध्यम से अपनी सरकार की सेवा करते हैं. ऐसे लोगों को सरकार की और कम कराधान, ज्यादा प्रोत्साहन राशि आदि जैसे अनेक विशेष लाभ प्रदान किये जाते हैं. इधर भारत के 7% से भी कम विद्यार्थी 15 वर्षों के बाद स्वदेश लौटते हैं. वे भले ही विदेश में तिरंगा लहरा लेंगे, लेकिन वापस भारत आने के नाम पर वे आपकी बात अनसुनी कर देंगे. जातिगत गुटबंदी, भाई-भतीजावाद, राजनैतिक हस्तक्षेप, कार्यक्षेत्र में अनुशासन की कमी आदि अनेक कारणों से खुद हमारे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों के डिग्री लेने के बाद भी अनेक प्रतिभाशाली युवा आजीविका के लिए विदेश चले जाते हैं. सरकार “घर वापसी” का नारा देती है, लेकिन उसका कोई असर नहीं होता. आखिर वे लौटें भी तो क्यों ? सड़े-गले, अपराधी राजनैतिक नेताओं और मंत्रियों के पीछे फाइल लेकर कमर झुकाए खड़ा होने के लिए ? क्यों करेंगे वे ऐसा? संयुक्त प्रवेश परीक्षा के परिणाम ही से विदेशी विश्वविद्यालय हमारे युवा होनहारों को हमसे झटक लेते हैं.

चीन हर साल नवाचार और प्रौद्योगिक उद्यमशीलता में 70 बिलियन डॉलर निवेश करता है. टिकटॉक या मशीन लर्निंग आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस या 2010 के बाद से चीन में बेशुमार अग्रिम पेटेंट उसी निवेश का परिणाम हैं. लेकिन भारत उद्यमशीलता के मद में नगण्य निवेश करता है. कर प्रोत्साहन भी नगण्य है, हालांकि ढेरों अखबारों में मौखिक लुब्बे-लवाब में कोई कमी नहीं रहती. तो जाहिर है, हमारे यहाँ उद्यमियों के नाम पर बौद्धिक प्रौद्योगिकी या संपदा की जगह केश काटने वाले सैलून के मालिक जैसे लोग ही मिलेंगे.

आंकड़ों पर गौर करें तो 1990 से लेकर 2020 तक चीन में अनुसंधान और विकास (आर ऐंड डी) में निवेश का अनुपात 0.06% से 19.33% पर पहुँच गया है. इसमें से चीन की कंपनियों का खर्च 65.8% है, जबकि विदेशी कंपनियों का 34.2%. भारत में अनुसंधान और विकास में खर्च का अनुपात पिछले पाँच वर्षों में नीचे गया है. जहां चीन अपने जीडीपी का 2.15% अनुसंधान और विकास पर खर्च करता है, वहीं भारत में यह अनुपात 0.85% का है. अनुसंधान और विकास पर कुल खर्च में 96.2% राशि विदेशी कंपनियां खर्च करतीं हैं, जबकि भारतीय कंपनियां महज 3.8%. इसकी तुलना आप चीन की स्वदेशी कंपनियों के 65.8% से कर सकते हैं तो भविष्य के अनेक तस्वीर साफ़ हो जायेगी. 

चीन से सीमा का मामला उलझा हुआ है, तो “हम हर स्थिति के लिए तैयार हैं” का शोर भी जोरों पर है. सीमा की रक्षा के लिए सामरिक सरंजाम की ज़रुरत होती है. यह काम नारों, बयानों और भाषणों से नहीं होता. वह वर्ष 1988 का समय था, आज से 32 वर्ष पहले, या दूसरे शब्दों में लगभग डेढ़ पीढ़ी पहले. चीन ने अपने स्वदेशी रक्षा उद्योग की परियोजना तैयार कर ली थी. उनलोगों ने घटिया पाँचवीं दर के उत्पादों से आरम्भ किया था और आज उनका उत्पादन मानदंड अमेरिकी या युरोपीय विनिर्माण के मानदंड के 80-85% और कुछ मामलों में तो 90-95% के करीब है. चीन ने अपने इन सामरिक आयुधों का निर्यात भी आरम्भ कर दिया है, बेशक अपनी पसंद के ब्राज़ील या पाकिस्तान जैसे देशों को. चीन धातुशोधन विज्ञान एयर टाइटेनियम अलॉय प्रक्रमण और कार्बन फाइबर प्रक्रमण में भारी निवेश कर रहा है और माना जा रहा है कि वर्ष 2030 के आते-आते वह वैश्विक मानदंड प्राप्त कर लेगा. सबसे बड़ी बात यह है कि इन उद्योगों में सम्पूर्ण चीन के लिए 36 मिलियन रोजगार पैदा होते हैं.

इस क्षेत्र में हम अगर निर्भीकता और निष्पक्षता के साथ अपने देश की उपलब्धियों का आंकलन करें तो, भले ही सुनने में बुरा लगे, किन्तु सच यही है कि 70 वर्षों की स्वतंत्रता, ब्रिटिश विरासत, बड़े-बड़े उद्योग होने के बावजूद आज तक हम लगभग 80% उन्नत आयुध का आयत कर रहे हैं और सैकड़ों आयोजनों के बाद 5 रफाल लड़ाकू विमान पाकर गौरव की अनुभूति में मगन हुए जा रहे हैं. हम आज तक एक भी स्वदेशी विंड टनल, उन्नत टरबाइन, टर्बोफैन या वैमानिकी प्रणाली बनाने में समर्थ नहीं हो सके हैं. लेकिन हर चीज रूस या इजराइल या ब्रिटेन या बेल्जियम से आयात करते हैं. उधर चीन ने यह सब कुछ स्वयं हासिल कर लिया है.

फिर भी हम गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की आधी सदी पुरानी कविता “शंकर की पुरी चीन से सेना को उतारा, चौवालीस करोड़ों को हिमाला ने पुकारा” या दसकों पुरानी फिल्म हकीकत का गीत “कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियो, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो” जैसे गीत गुनगुना कर; या “यह 1962 का भारत नहीं है” जैसी सिंह-गर्जना करके; या चीन सब कुछ चोरी से करता है, वहाँ के लोग तो साँप-मेढक खाते हैं आदि-आदि बातों के सहारे आत्ममुग्ध होकर अपनी पीठ खुद ही थपथपाते रहते हैं.

ऐसी परिस्थिति में यदि हमें चीन से लोहा लेना है, उसे परास्त करना है तो कुछ बिन्दुओं पर ईमानदारी से सोचना होगा. पहला यह कि चीन एक एकजुट राष्ट्र है, जबकि हम विभाजित लोग हैं. चीन के लोग अपने देश का प्रभुत्व चाहते हैं, हम अपनी जाति, धर्म, समुदाय की. हमारे मौलवियों, पादरियों, पुजारियों के लिए उनकी दुकान सर्वोपरि है. चीन में राष्ट्र हित के सामने ऐसे लोगों की एक नहीं चलती. दूसरे, चीन हमेशा यह मानता रहा है कि प्रतिभाओं को तैयार किया जाता है उसका लक्ष्य परिणामी वृद्धि और विकास होता है. हम यह मानते रहे हैं कि प्रतिभा जन्म से, परिवार से, धन से, जाति से, समुदाय से पैदा होती है. तीसरे, चीन अपने गरीबों को राष्ट्रीय श्रम बल योजनाओं से जोड़कर उन्हें उत्पादक बनाता है और उनके धन का प्रयोग अनुसंधान, उत्पादन और प्रतिभा के लिए लगता है. हम अपने धन का प्रयोग गरीबों को निकम्मा बनाने और बैठा कर खिलाने में लगाते हैं. इसके लिए हम बैंकों को बर्बाद कर देते हैं और अंततः बकवास और प्रोपगंडा फैलाने के अलावा कुछ नहीं करते.

यह कारण है कि चीन की अर्थव्यवस्था 15 ट्रिलियन डॉलर की और हमारी 2.87 ट्रिलियन डॉलर की है. यह स्थिति तब है जब 1931 में हम चीन से आगे थे, 1957 में लगभग बराबरी पर थे, 1977 में उसके 75% के करीब थे और आज बस 17% पर हैं. यह एक देश के लगातार विकास और उत्थान का और एक देश के क्रमिक पतन की कहानी है. और इस कहानी को बड़े जतन से रचा है देश के राजनैतिक दलों के उन नेताओं ने, जिनमें से कुछ को विश्व का सबसे बढ़िया कूटनीतिज्ञ कहलाने का नशा था, कुछ को भारत के बदले रूस और चीन के हितों की रक्षा करने का नशा था, कुछ को संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके धन पर पलने वाले वैश्विक संगठनों की आँखों का तारा बनने का नशा था, तो कुछ को सवर्ण-दलित और बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक की राजनीति से अपना पेट चलाने की मजबूरी थी. इन सारे दलों ने, इन सारे नेताओं ने देश के साथ छल किया है. देश में अनेक ऐसे काम थे जिन्हें आजादी मिलने के 20 वर्षों के भीतर हो जाना चाहिए था. लेकिन वे सारे महत्वपूर्ण मुद्दे उपेक्षित रह गए. ऐसे में परवर्ती सरकारों के गलतियों और उपेक्षाओं से सबक लेकर आज की सरकार अगर चीजों को दुरुस्त करने का प्रयास कर रही है, तो उसके साथ सकारात्मक आलोचना के साथ सहयोग करने की ज़रुरत है. इस ज़रुरत को नजरअंदाज करने वाले समस्त शक्तियों को अलग-थलग करना होगा. चीन की बराबरी करने और उसके लोभी आक्रामक विस्तारवादी रवैये से अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए हमें चीन की तरह सख्ती की ज़रुरत है. इस ज़रुरत को गैर-ज़रूरी बताने वाली शक्तियों को लकवाग्रस्त करना होगा. आज देश एक सकारात्मक ऊर्जा के साथ आगे बढ़ना चाहता है. घिसी-पिटी राजनीति से यह देश आगे नहीं बढ़ सकता. एक नयी लकीर खींचनी होगी, एक नयी राह बनानी होगी, एक नया नजरिया विकसित करना होगा. आइये हम सभी एकजुट होकर इस दिशा में अपने सामूहिक प्रयास करें.