नए कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन में 8 तारीख को हुए भारत बंद के असर पर मीडिया के संपादकीय भी अपने हितों से परे देखने को नहीं मिले. देखा जाए तो ये कोई हैरान कर देने वाली बात भी नहीं है. लेकिन मैं इन सबसे अलग अपनी मुखतलिफ सी बात रखना चाहूंगी.

अगर आप गौर करें तो नई किसान नीति हुक्मरानों के द्व़ारा उस तबके को खुश करने की ताबीर है जिनके सहारे पार्टियां इफ़रात में चुनावी दंगल के मैदान पर खर्च करती है. सो ऐसे में हित उनका साधा जाता है जिनसे फायदे पहुचांने के वायदे पहले किये जा चुके है और अब वक्त है उन्हें पूरा करने का. इसमें किसान हित को जहां तक और जितना बेहतर दिखाया जाना है, दिखाया जा रहा. यूं भी अक्सर हंगामा बरपा करने वाले कब सत्ता के फैसलों पर खुष हुए हंै.

सो वे सत्ता पक्ष के इस दावे को कि ये पूरी तरह से भारत के गरीब-लाचार किसान को नुकसान से बचाने के लिए है, फिजूल की बात कह रहे. और जो आंदोलन के झंडे लेकर खडे है वे या तो पूंजीपति किसान है या उनके इषारों पर चलने वाले. इनकी संख्या मुठठी भर है. लेकिन मैं यहां इस आंदोलन की भीड़ में उस 86 प्रतिशत छोटे और मंझोले किसान को नदारद देख रही जिसकी इस कानून से यकीनन रही-सही कमर भी टूट जाएगी. ये वह किसान है जिसके पास 5 एकड़ से भी कम की जमीन है और जो हर बार फसल बोने से पहले कर्ज लेता है और फसल होने के बाद उसे चुकता करता है. 

तो मेरा ये कहना है कि सरकार भले ही लाख दावा कर ले, यह भी एक अमिट सच्चाई है कि यह कानून लागू होने के बाद कृषि-जगत बाजार मुक्त हो सकेगा? जिस 86 प्रतिषत किसान के सामने बीज तक खरीदने की दिक्कत पेष आती है वह कैसे अपने अनाज का भंडारण या उसे सुरक्षित कर सकेगा? सुरक्षा कर भी ले तो कैसे आॅनलाइन अपनी फसल को बेच सकेगा. जाहिर है यहीं पर ही कारपोरेट जगत की इन्ट्री होगी. जो इस किसान की फसल की मार्केट्रिग और सेल करने का दावा पेश करेगा. आप यूं कह सकते है किसान की फसल बाजार तक पहुंचाने का काम आगे से आढ़तियों द्वारा न होकर काॅरपोरेट दुनिया के बिचैलिए द्वारा होगा.

हंगामा काट रहा अमीर किसान इस बात को समझ रहा, क्योंकि अब तक वहीं इस काम को भी अंजाम दे रहा था. उसे इस कानून के लागू होने से अपना धंधा सिमट जाने का भय है. और इधर इन सब हंगामे से दूर छोटा-मंझोला किसान इस खेल को समझ नहीं पा रहा है या यूं भी कह सकते है कि उसको पता है कि उसे तो हर हाल में किसी एक की कठपुतली बनना ही है. उस पर तो इस कानून के लागू होने से फर्क बस इतना पड़ना है कि काॅरपोरेट कंपनियों को उस के हालातों से कोई वास्ता नही होगा जबकि आढ़तियों के साथ थोड़ा देश-काल-समाज का लिहाज चलता है. और चूकि उसे तो अपनी छोटी-मोटी फसल को हर हाल में बेचना ही है तो राम हो या रहीम क्या फर्क पड़ता है.

अफसोस की बात है कि कृषि प्रधान देष की पहचान वाले देश में आज स्थिति ये हो रही है कि किसान की आने वाली नस्ल खेती से बेज़ार तबियत की हो रही. खेतिहर मजदूरो की तो जान पर बन आ रही. गत वर्षों में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या इसका उदाहरण है. खेती-किसानी में बढ़ती बेरोजगारी के कारण मंझोले किसान के हालात बदतर ही हुए है. न जाने हमारे नीति निर्घारक ग्रामीण भारत के बुनियादी ढांचे पर काम क्यों नहीं करते. अगर देष के ग्रामीण इलाकों के विकास को ध्यान में रखकर समग्र योजनाओं पर काम किया जाता तो निश्चित तौर पर कृषि में सुधार तो होता ही, रोजगार के रास्ते भी वहां खुलते. यही नहीं ग्रामीण इलाकों को मजबूत करने से गैर कृषि क्षेत्र की आवष्यकताएं भी पूरी होंती.

दुख तो इस बात का है कि नीतियां बनाने वाले गांव-किसान के विकास की बात तो करते है लेकिन उसे धरातल में उतारने से बाज आते है.दिल्ली-मुबई-बगलौर-कलकत्ता में बैठेे मल्टीमिलियन्स के इशारे पर चलने वाली सत्ता को किसान या देष के किसी भी गरीब की याद चुनावी मौसम में ही आती है. अपनी बातों में सपनों को हक़ीक़त में बदलने की बात करने वालेे सत्ता के नुमांइदे अक्सर भूल जाते है कि भारत मूलतः ग्रामीण देष है जहां की आबादी सीमित संसाधनों के साथ किसी तरह गुजर-बसर करने को आज भी बेबस है, क्योंकि जो हकी़क़त दिखाने की कोषिष की जाती है दरअसल वो तो कुछ और ही निकलता है.

फुज़ैल ज़ाफरी का एक शेर याद आ रहा-

ज़हर मीठा हो तो पीने में मजा आता है,
बात सच कहिए मगर यूं कि हकीक़़त न लगे