किसी के द्वारा कही गई बात का हर कोई इसलिए अलग-अलग अर्थ लगा सकता है, क्योंकि सबकी मानसिकता एक जैसी नहीं होती. अब कांगे्रस की वरिष्ठ नेत्री रेणुका चौधरी की हंसी को ही लीजिए. उसका कांगे्रस ने अर्थ लगा दिया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निरर्थक अंदाज में निशाने पर ले लिया. पहली बात यही है कि रेणुका जी को इतनी जोर से हंसना भी नहीं चाहिए. क्योंकि प्रथम दृष्टया यह स्वाभाविक हंसी नहीं थी, यह बदतमीजी ही थी. दूसरा कांगे्रस के नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री को घेरना भी एक दूसरे प्रकार की बदतमीजी ही कही जाएगी. क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी क्रिया की प्रतिक्रिया थी. वास्तव में प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया करना एक प्रकार से हास्यास्पद स्थिति का निर्माण करता है और कांगे्रस ने यही किया. कांगे्रस ने रेणुका चौधरी की क्रिया पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की. वास्तव में समस्या की जड़ कहां है, कांगे्रस को इसका चिंतन करना चाहिए, लेकिन कांगे्रस ने ऐसा न करके अपनी ही पार्टी को हंसी का पात्र दिया.
यह बात सच है कि कांगे्रस अपने उत्थान के लिए तड़प रही है, उनके बयानों में भी इस तड़पन का पता चल रहा है. लेकिन कांगे्रस को सोचना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी के लिए पूरी तरह से रेणुका चौधरी ही जिम्मेदार थीं. क्या कांगे्रस को यह दिखाई नहीं दिया या उसने अपने गुनाह छिपाने का प्रयास किया. लेकिन जो गुनाह सबके सामने आ चुका हो, उसे छिपाने से क्या लाभ. जो चीज सबने देखी, उस पर लीपापोती करना असलियत पर परदा डालने जैसा ही कृत्य कहा जाएगा. रेणुका चौधरी की हंसी को सबने सुना है, उसकी तुलना लोग कर भी रहे हैं. स्वयं कांगे्रसियों ने भी की है. सच बात तो यह है कि ऐसी बदतमीजी वाली हंसी को रोकने के लिए कांगे्रस के नेताओं को प्रयास करना चाहिए, लेकिन कांगे्रस ने ऐसा नहीं किया. यह कांगे्रस की किस प्रकार की रणनीति का हिस्सा कहा जाना चाहिए.
हालांकि वर्तमान में राजनीति का जो स्वरुप दिखाई दे रहा है, उसमें अपने दल के उत्थान के बारे में ही सोचा जाता है. लेकिन आजकल राजनीति में कुछ अलग ही प्रकार का खेल होता दिखाई दे रहा है. अपने गुनाहों का आत्म मंथन करना तो दूर की बात, दूसरों पर कीचड़ उछालने की राजनीति आज का फैशन बनता जा रहा है. इस प्रकार की राजनीति देश को किस राह पर ले जाएगी, यह सोचने का विषय है. कांगे्रस ने देश की जो दुर्गति की है, उसे देश की जनता अभी भूली नहीं है, लेकिन गुजरात में स्थिति सुधार करके और राजस्थान के उपचुनाव में विजय प्राप्त करके कांगे्रस ऐसा कृत्य कर रही है, जैसे उसके हाथ में सत्ता आने ही वाली है. अभी हाल ही में हमने लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के दौरान देखा कि कांगे्रस की सांसद रेणुका चौधरी ठहाका मारकर हस रही थी, इस अवसर पर उन्हें प्रधानमंत्री पद की गरिमा का भी ध्यान नहीं रहा. इसके विपरीत कांगे्रस ने मोदी की टिप्प्णी पर तो संज्ञान लिया, लेकिन रेणुका के बारे में यह चिंतन नहीं किया कि रेणुका ने क्या गलती की. इसका मतलब भी यह निकाला जा सकता है कि कांगे्रस ने रेणुका चौधरी की हसी को एक प्रकार से सही ठहराने का प्रयास किया है, जो निश्चित रुप से संसदीय मर्यादाओं का उल्लंघन ही माना जाएगा. जहां तक कांगे्रस की राजनीति की बात है, तो यही कहा जाएगा कि उसको अपनी गलती भी सही लगती है और दूसरे की सही बात भी गलत लगती है.
रेणुका जी के ठहाका लगाने के बारे में मोदी की टिप्पणी को कांगे्रस ने जिस प्रकार से नकारात्मक रुप में लिया है, उससे कांगे्रस की मानसिकता का पता चलता है. आज कांगे्रस का मानस भी नकारात्मकता की ओर बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है. रेणुका चौधरी के बारे में की टिप्पणी का कांगे्रस ने गलत अर्थ निकालकर अनर्थ किया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो रेणुका को शूर्पनखा नहीं बोला, लेकिन कांगे्रस ने यही अर्थ निकाला. अपने मन से अर्थ निकाल कर दूसरे को दोषी ठहराने की प्रक्रिया को सही नहीं कहा जा सकता. कांगे्रस चाहती तो रेणुका चौधरी की हंसी को सीता माता की हंसी के रुप में भी ले सकती थी. कांगे्रस के सदस्य संभवत: यह प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं कि रेणुका जी की हंसी सीता जी से नहीं, बल्कि शूर्पनखा से मिलती है. इसलिए कांगे्रस ने यही अर्थ लगाया होगा. चलो छोड़िए इन बातों को, बात को जितना बढ़ाएंगे, उतनी दूर तक जाएगी, लेकिन यह तो तय है कि इसमें पहली गलती रेणुका चौधरी की ही है और किसी की नहीं.
कांगे्रस ने ऐसी ही टिप्पणी पहले भी की हैं, नरेन्द्र मोदी को तो कांगे्रस प्रमुख सोनिया गांधी ने मौत का सौदागर तक कह दिया था, इसी प्रकार कई कांगे्रसी नेताओं ने भी नकारात्मक टिप्पणियां की हैं, जिसमें मणिशंकर अय्यर ने प्रधानमंत्री मोदी को नीच तक कह दिया था. कांगे्रस द्वारा सरकार के बारे में हमेशा नकारात्मक सोचना कहीं न कहीं सत्ता के प्रति उतावलापन है. वे किसी भी प्रकार से सत्ता की आलोचना का कारण तलाश करते रहते हैं. कहा जा सकता है कि आज कांगे्रस का पूरा सोच केवल इसी बात पर आधारित पर है कि सरकार की कमी कैसे निकाली जाए. इसके विपरीत कांगे्रस को अपने गिरेबान में भी झांककर देखना चाहिए. सत्ता की छटपटाहट में सकारात्मकता को भूलती जा रही कांगे्रस के बारे में यही कहना समीचीन होगा कि कांगे्रस एक ऐसे दोराहे पर खड़ी हो गई है, जहां से उत्थान और पतन के दोनों ही मार्ग जाते हैं, लेकिन वर्तमान में ऐसा ही लगता है कि कांगे्रस आत्म चिंतन की ओर नहीं जा रही, वह केवल अपनी नकारात्मक मानसिकता के सहारे अवनति की ओर ही अपने कदम बढ़ाती हुई दिखाई दे रही है. मात्र इसी कारण से कांगे्रस आज अपनी दुर्गति के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. लोकसभा में उसकी सीटों की संख्या का अनुपात विपक्ष के बराबर भी नहीं है, इसके अलावा देश से भी सिमटती जा रही है. इतना ही नहीं वर्तमान में कांगे्रस एक डूबता हुआ जहाज की स्थिति में दिखाई दे रही है, जो भी कांगे्रस का साथ का साथ देता है, वह भी डूब जाता है. कर्नाटक में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में कांगे्रस की ऐसी ही स्थिति है, भले ही अभी वह सत्ता में है, लेकिन उसके मन में सत्ता जाने का भय समाता जा रहा है. कांगे्रस का ऐसा ही सोच रहा तो वह दिन भी दूर नहीं, जब पूरा देश कांगे्रस मुक्त हो जाएगा.