प्रकाशन का नाम मूकनायक था लेकिन आवाज इतनी बुलंद की आज गुजरते सौ वर्ष में भी मूकनायक का डंका बज रहा है.मूकनायक डॉ. भीमराव अम्बेडकर की पत्रकारिता के सौ साल का साक्षी है.आज सौ साल के उत्सव के समय हम मूकनायक और बाबा साहेब के उन संघर्षों का स्मरण करते हैं जब उन्होंने कितनी कठिनाई से अपना प्रकाशन आरंभ किया था.निश्चित रूप से बाबा साहेब के समक्ष आथर््िाक संकट बहुत कम था लेकिन मुख्यधारा की समाज में दलित चेतना के लिए किए गए प्रयास को अंगीकार करना कठिन था.इस बात का उदाहरण यह है कि विज्ञापन हेतु आवश्यक राशि भुगतान करने के बाद भी केसरी में मूकनायक का विज्ञापन नहीं छापा गया.बात यहीं तक नहीं थी बल्कि इसकी सूचना तक देना उचित नहीं समझा गया.आत्मविश्वास से लबरेज बाबा साहेब के लिए यह चुनौती एक अवसर थी और उन्होंने इस व्यवहार से पराजित होने के बजाय दुगुने उत्साह से अपने प्रकाशन मूकनायक को समृद्ध करने में जुट गए.आज उनके इसी आत्मविश्वास का परिणाम है कि हम सौ वर्ष पूर्ण होने पर मूकनायक की शताब्दी मना रहे हैं.भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के इतिहास में डॉ. अम्बेडकर की पत्रकारिता मील का स्तंभ है.
उल्लेखनीय है कि डॉ. अम्बेडकर ने 31 जनवरी, 1920 को पाक्षिक मूकनायक के प्रकाशन का निर्णय लिया.मूकनायक के प्रकाशन हेतु शाहू महाराज ने उस समय रुपये 2500/- की सहायता मिली थी.इस प्रकाशन का उद्देश्य दलित प्रश्नों को वृहद् समाज के सम्मुख रखना तो था ही, दलित समाज को भी विचार प्रवृत्त करना था, बुद्धिजीवियों और अंग्रेजी सत्ता का ध्यान भी इन प्रश्नों की ओर आकृष्ट करना था.उस समय डॉ. अम्बेडकर मुम्बई के सिडनहेम कॉलेज में प्राध्यापक थे, सरकारी सेवा में थे, इसीलिए उन्होंने सम्पादक के रूप में पांडुरंग नंदराय भटकर का नाम डाला.मूकनायक का पंजीयन क्रमांक बी-430 था, शीर्षक के दायीं ओर विज्ञापन की दरें और बायीं ओर वार्षिक शुल्क तथा फुटकर अंक का दाम दिया जाता था.इसके कार्यालय का पता -हरारवाला बिल्डिंग, डॉ. बाटलीवाला रोड़, पोपबावड़ी, परेल, मुम्बई था.इसके प्रथम पृष्ठ पर संत तुकाराम के अभंग की दो पंक्तियां दी गई थी -
काय करूं आता धरूनिया भीड़, नि:शंक है तोड़ू वाजविले।
नव्हे जगी कोणी मुकियाचे जगणे, सार्थक लागुन नव्हे हित।
(अब संकोच करने का कोई कारण नहीं है.अब नि:शंक होकर बात करूंगा.मूक होकर जीने में कोई मतलब नहीं है, लाज-संकोच से किसी का हित नहीं होता।)
यूं तो डॉ. भीमराव अम्बेडकर अर्थशास्त्री एवं बैरिस्टर थे और पत्रकारिता से उनका सीधा वास्ता नहीं था दलित चेतना के विकास के लिए उन्होंने पत्रकारिता को एक श्रेष्ठ माध्यम मानकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आगे आए. लेकिन काल और परिस्थितियों की वजह से उन्हें इस क्षेत्र में आना पड़ा.यों मराठी दलित पत्रिका का इतिहास 1866 से शुरू होता है और सेना से सेवानिवृत्त गोपालबाबा वलंगकर को पहला दलित पत्रकार माना जाता है क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले विटाल विध्वंसन नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, जो उनके लेखों का संग्रह है.उसी प्रकार शिवराम जानबा कांबले को पहला सम्पादक माना जाता है, जिन्होंने 1868 में सोमवंशीय मित्र नामक पहली दलित पत्रिका की शुरूआत की थी.बाद में किसन फागू बनसोड़े ने निराश्रित हिंद नागरिक (1910), विटाल विध्वंसन (1913) और मजदूर पत्रिका (1918) का सम्पादन किया, लेकिन मुख्यत: अर्थाभाव के कारण ये सभी साल, दो साल में बंद हो गई.ज्योतिबा फूले के अनुयायी होने के कारण इन्होंने समाज को जगाने की कोशिश की, बुनियादी परिवर्तन की वकालत की, लेकिन दलितों में शिक्षानुपात कम होने के कारण उनकी पहुंच नहीं बन पाई और सवर्ण ने न इसे पढ़ा और न खरीदा.
केसरी में मूकनायक का विज्ञापन नहीं छपने का उल्लेख बाद में डॉ. अम्बेडकर ने बहिष्कृत भारत में किया.उन्होंने माना था कि बहिष्कृत लोगों पर हो रहे अन्याय पर उपाय सुझाने और उनकी उन्नति के मार्गों की चर्चा हेतु पत्रिका के अलावा और कोई दूसरी जमीन नहीं है.मूकनायक के प्रथम अंक में जो 31 जनवरी, 1920 को प्रकाशित हुआ.14 फरवरी, 1920 को प्रकाशित मूकनायक के दूसरे अंक में डॉ. अम्बेडकर का लेख स्वराज्याची सर सुराज्याला येणार नाही छपा, जिसका हिन्दी में अर्थ है सुराज्य की तुलना में स्वराज्य अधिक श्रेष्ठ होता है। अम्बेडकर के इस लेख से भ्रम टूटता है कि वे ब्रिटिशपरस्त थे और स्वतंत्रता आंदोलन के विरोधी थे.इस अंक के विविध विचार स्तंभ के समकालीन समाचारों में बहुजन अथवा सवर्णेत्तरों से संबंधित समाचारों को अधिक महत्व दिया गया है.इस अंक में तत्कालीन अन्य पत्रिकाओं में छपे महत्वपूर्ण अंग्रेजी लेखों का मराठी अनुवाद कर पाठकों को उपलब्ध कराया गया है.इसमें पहली बार दो विज्ञापन भी छापा गया है. मूकनायक का तीसरा अंक 28 फरवरी, 1920 को प्रकाशित हुआ.मूकनायक का प्रकाशन 1923 में स्थगित हो गया.
मूकनायक के प्रकाशन स्थगित होने से डॉ. अम्बेडकर दुखी तो हुए लेकिन पत्रकारिता से मुंह नहीं मोड़ा.हालांकि मूकनायक से सबक लेते हुए उन्होंने बहिष्कृत भारत के प्रकाशन का निर्णय लिया तो उसके पूर्व तैयारी की.लंदन से लौटते ही उन्होंने तत्कालीन चुनौतियों को स्वीकारते हुए, अछूतों के आंदोलन को नया रूप, नई दिशा एवं नया आकार देने हेतु विभिन्न आंदोलनों में अपनी सक्रियता बढ़ाई.उन्होंने 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की.अपने विचारों, आंदोलनों को सरकार, बहिष्कृत समाज तथा संवेदनशील सवर्णों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 3 अप्रैल, 1927 को बहिष्कृत भारत पत्रिका का सम्पादकत्व संभाला. इस समय तक उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था.उन्होंने मूकनायक के संबंध में लिखा- प्रस्तुत लेखक को इस बात का खेद है कि उसने जो संकल्प मूकनायक को आरंभ करते समय जाहिर किया था, वह बहुत दिनों तक टिका नहीं.लेकिन जो सच्चाई से अवगत है, उन्हें मालूम है कि इस संकल्प की सिद्धि न होने में उनका कोई दोष नहीं है.मूकनायक को आरंभ करते समय प्रस्तुत लेखक को लगा कि इस तरह की सेवा का मार्ग ग्रहण करने के लिए कोई स्वतंत्र व्यवसाय शुरू करना जरूरी है.तदनुसार बैरिस्टरी जैसे सहज-साध्य परंतु स्वतंत्र व्यवसाय शुरू करने के लिए बैरिस्टरी का अपना अधूरा अध्ययन पूर्ण करने हेतु उसे विलायत जाना पड़ा।
उनके जीवनीकार खैरमोड़े लिखते हैं, बहिष्कृत भारत शुरू करने का जब निर्णय हुआ, तब साहेबजी ने मराठी भाषा का तथा भारत के सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों का अध्ययन शुरू किया.मराठी के अधिकांश संत-कवियों के काव्य का, उस समय प्रकाशित सभी मराठी पत्र-पत्रिकाओं का, मराठी के प्रसिद्ध लेखकों के साहित्य का वे गंभीर अध्ययन कर रहे थे.इस लेखकों की रचनाओं को तथा उस काल में प्रकाशित सभी पत्र-पत्रिकाओं को खरीदकर उनका गंभीर अध्ययन उन्होंने 5-7 महीनों में पूर्ण किया।
बहिष्कृत भारत की फुटकर कीमत डेढ़ आना और वार्षिक डाक खर्च सहित सदस्यता शुल्क थी 3 रुपये.पहले पृष्ठ के ऊपर दो आकर्षक सिंह श्रृंखला की कडिय़ों में बांधे गए- ऐसा प्रतीकात्मक चित्र दिया गया.सम्पादक और प्रकाशक के नाम के बाद नीचे बड़े अक्षरों में संत ज्ञानेश्वर के तीसरे अध्याय का छंद दिया गया.इसके बड़े आकार में 16 पृष्ठ होते थे जिसके सभी स्तंभ अम्बेडकर खुद प्रत्येक 15 दिनों में लिखते थे.उनका कोई सह-सम्पादक नहीं था, समयाभाव के कारण उन्होंने विज्ञापन के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया, तलाक की नोटिसें और स्तरहीन बातें वे छापते नहीं थे.हां, आंदोलन से संबंधित सभी तरह की खबरें एवं लेख इसमें अवश्य छपते थे. बहिष्कृत भारत में 5 स्तंभ होते थे- आज के प्रश्न, अग्रलेख, आत्मवृत्त, विचार-विनिमय और वर्तमान सार.प्रथम एवं द्वितीय स्तंभ के अंतर्गत वे सामाजिक प्रश्नों की चर्चा करते और दलितों को लेकर सवर्णों का जो दृष्टिकोण, विचार या व्यवहार होता था, उसका विवेचन-विश्लेषण वह करता था.आत्मवृत्त के अंतर्गत 15 दिनों की सार्वजनिक गतिविधियों की रिपोर्टिंग होती थी.विचार-विनिमय में दलितों के संगठनात्मक संस्थाओं का परिचय एवं उनकी समस्याएं होती थी और वर्तमान सार में महाराष्ट्र्र एवं देश में घटित प्रमुख समाचार पत्र जिनके केन्द्र में दलित एवं उनकी समस्याएं हुआ करती थी.20 मई, 1927 के अंक में पाठकों के पत्र छपने शुरू हुए, जुलाई 1927 के अंक में बहिष्कृत भारत के संबंध में तत्कालीन मराठी पत्रिकाओं की प्रतिक्रियाएं प्रकाशित की गई.वैचारिक स्तर पर किसी भी पत्रिका ने इसके विरूद्ध आवाज नहीं उठाई.बहिष्कृत भारत में सिर्फ औचित्यपूर्ण प्रकाशन ही होता था अन्यथा लेखों को सम्पादक के मंतव्य के साथ लौटा दिया जाता था.
यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी हो जाता है कि पूना पैक्ट के बाद डॉ. अम्बेडकर एवं गांधीजी में गहरे मतभेद पैदा हुए लेकिन इन दोनों के बीच बेहद आत्मीयता थी और आदर भी.उन्होंने गांधीजी के सत्याग्रह शब्द का उपयोग ही नहीं किया वरन् उसको महाड़ सत्याग्रह में क्रियान्वित भी किया.23 दिसम्बर, 1927 के बहिष्कृत भारत में डॉ. अम्बेडकर लिखते है, मैं अछूतों को जब वतनदारी (वतनदारी का काम : परम्परा से अछूतों पर थोपे गए गांव के सवर्णों के घर के गंदे काम, मृत जानवरों को ढोना, उनका मांस खाना, उनके घर में फैली गंदगी साफ करना आदि काम) का काम छोडऩे को कहता हूं, तब मुझसे पूछा जाता है कि हम अपनी जीविका के लिए कौन-सा काम करें? इस प्रश्न के उत्तर में विभिन्न काम सुझाते हुए डॉ. अम्बेडकर लिखते है, सभी अछूतों का कृषि से जीविका प्राप्त करना कठिन है.इसलिए कृषि के साथ उन्हें व्यवसाय करना चाहिए.... जिस व्यवसाय में गंदगी नहीं है अथवा जो व्यवसाय किसी विशिष्ट जाति का नहीं है, ऐसा कोई व्यवसाय वे कर सके, तो ठीक रहेगा.हमारे मतानुसार, इस वक्त ऐसा एक ही व्यवसाय है और वह खादी बेचने का.महार लोगों को मेरी व्यक्तिगत सिफारिश है कि वे खादी बुनने का काम करें.अब वे ऐसा सवाल उठाएंगे कि चरखे पर हम जो खादी बुनेेंगे, उसे कौन खरीदेगा? और उसे कोई खरीद नहीं रहा हो, तो फिर इसका क्या फायदा? इस समस्या को सुलझाना कठिन नहीं है.महार लोगों को खुद के लिए कपड़ा खरीदना ही पड़ता है.तो अगर सभी महार खादी के पहनना शुरू करें और महारों द्वारा बुनी गई खादी को ही खरीदने का निर्णय बुनकर (ये भी तो अछूत ही हैं।) ले लें, तो उन्हें बुनाई के धागों के लिए अन्यों के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी अर्थात् इसके लिए थोड़ी-बहुत राशि लगेगी ही, उसकी व्यवस्था सहज हो सकती है। इस तरह वे दलितों के आर्थिक स्वावलंबन के लिए वे गांधी द्वारा सुझाए गए खादी का प्रचार-प्रसार ही कर रहे थे।
एक और प्रसंग इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि डॉ. अम्बेडकर ने गांधी की अहिंसा नीति को अवसरवादी भी कहा लेकिन पूरी बौद्धिकता और नीतिमत्ता के साथ वैचारिक मतभेदों को उन्होंने स्पष्ट किया.गांधीजी ने अम्बेडकर की देशभक्ति एवं विनम्रता का सदैव आदर किया और यह माना कि उनकी आक्रामकता, उनकी स्थिति एवं परिस्थिति के कारण है.डॉ. अम्बेडकर को संविधान सभा में लेने का आग्रह और उन्हें संविधान समिति का अध्यक्ष बनाने का आग्रह भी गांधीजी का था.दूसरी ओर, बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के पहले पत्रकार परिषद में डॉ. अम्बेडकर ने स्पष्ट किया बौद्ध धर्म स्वीकारने का निर्णय क्यों लिया? उन्होंने स्पष्ट कहा, मैं मि. गांधी को ऐसा आश्वासन दे चुका कि मैं कम-से-कम हानिकारक मार्ग को चुनूंगा.उस आश्वासन के अनुसार बौद्ध धम्म को स्वीकार कर मैं हिन्दू समाज की दृष्टि से एक उपकारक कृत्य ही कर रहा हूं क्योंकि बौद्ध धम्म भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है।
डॉ. अम्बेडकर अंतर-जातीय विवाह (वे इसके लिए मिस्र विवाह शब्द का प्रयोग करते थे) के पक्षधर थे और अपने पाठकों को इसकी सूचना भी देते थे, साथ ही मिस्र विवाह करने वालों का अभिनंदन भी करते थे.1 मार्च, 1929 के बहिष्कृत भारत में उन्होंने इसका जिक्र किया है और इसे क्रांतिकारी घटना माना है.भारत में ही नहीं वरन् विश्व के किसी भी कोने में स्थापित श्रेणीबद्धता की प्रथा को वे अमानवीय मानते थे.बहिष्कृत भारत के 15 मार्च, 1930 के अंक में उन्होंने अफ्रीका में अछूतों की स्थिति पर टिप्पणी लिखी थी.इसी अंक में विवेकानंद को उधृत करते हुए उन्होंने लिखा कि विवेकानंद का संदेश है, उठो! मर्द बनो! प्रगति के रास्ते में प्रतिरोध करने वाले भिक्षुक, पुरोहित वर्ग को ठोकर मारकर उड़ा दो क्योंकि इस वर्ग में सुधार की कोई संभावना नहीं है.इस वर्ग का अंत:करण कभी भी विशाल हो नहीं सकता.यह वर्ग सैकड़ों वर्षों से रूढिय़ों तथा अत्याचारों का गुलाम है.सबसे पहले पैरोहित्यशाही को नष्ट करे.उठो! मर्द बनो! अपने संकुचित दम घोटनेवाले घोंसले से बाहर निकलो तथा चारों ओर नजर फेंको।
बहिष्कृत भारत शुरू करने से पूर्व बहिष्कृत फंड हेतु डॉ. अम्बेडकर ने आह्वान किया था, परंतु लोगों से ऐसा प्रतिसाद उन्हें नहीं मिल पाया.एक वर्ष में इस पत्रिका पर 5 सौ रुपये का कर्ज चढ़ गया.इतना आर्थिक नुकसान के बाद भी 3 साल तक वे पत्रिका निकालते रहे.आर्थिक अभाव, अकेले व्यक्ति द्वारा लेखन, प्रतिकूल परिस्थिति की मजबूरीवश 15 नवंबर, 1929 को बहिष्कृत भारत का अंतिम अंक प्रकाशित हुआ. बहिष्कृत भारत बंद होने के उपरांत देवराव कृष्ण नाईक के सम्पादकत्व में 24 नवंबर, 1930 को जनता का पहला अंक आया.डॉ. अम्बेडकर की लोकप्रियता बढ़ चुकी थी, उनका व्यक्तित्व दलित-सवर्ण के विभेद से ऊपर चला गया था, उनके विचारों पर लोगों ने अमल करना शुरू कर दिया था.फलत: नाईक को भार देकर डॉ. अम्बेडकर मुक्तभाव से जनता में लिखते रहे.आरंभ में यह पाक्षिक था, बाद में 31 अक्टूबर, 1931 से यह साप्ताहिक हो गया.इसके फुटकर अंक की कीमत डेढ़ आना तथा वार्षिक सदस्यता 2 रुपये 10 आने की थी.पत्रिका के शीर्ष पर डॉ. भीमराव अम्बेडकर, एम. ए., पीएच.डी., डीएस.सी., बार-एट-लॉ के नेतृत्व में निकलने वाला यह जनहित प्रवर्तक पाक्षिक पत्र जनता मुद्रित होता था.जनता शीर्षक के ठीक नीचे अंग्रेजी में च्ञ्जद्धद्ग क्कद्गशश्चद्यद्गज् लिखा होता था.जनता में लिखने की उत्कठ अभिलाषा के बावजूद डॉ. अम्बेडकर नियमित नहीं लिख सकते थे क्योंकि उनकी अन्य व्यस्तताएं थी.7 जून, 1933 के अंक में उन्होंने लिखा, अपने स्वावलंबन तथा भविष्य के राजनैतिक अधिकारों के लिए इस पत्रिका को बनाए रखना, इसे समृद्ध और सम्पन्न बनाना हमारी जिम्मेदारी है.आज भले ही जनता पत्र का महत्व आप समझ नहीं पा रहे हो, तो भी इसका सही अहसास निकट भविष्य में होगा।11 23 सितंबर, 1931 को अपने प्रिय शिष्य दादासाहेब गायकवाड़ को लंदन से पत्र में उन्होंने लिखा, जनता पत्र में लेखन हेतु मैं अपनी पूरी शक्ति केन्द्रित करने की सोच रहा हूं.यहां जो घटित हो रहा है, उसे नियमितता के साथ जनता पत्र तक पहुंचाना चाहता हूं।
जनता में प्रकाशित डॉ. अम्बेडकर के 40 वैविध्यपूर्ण लेखों का संग्रह मुंबई विश्वविद्यालय के मराठी विभाग ने जनता पत्रातीत लेख नाम से प्रकाशित किया है, जिसमें उनकी संतुलित भाषा, प्रमाणिकता और विवेक का दर्शन हमें होता है.जनता साप्ताहिक विभिन्न सम्पादकों के सम्पादकत्व में खंडित रूप से 25 वर्षों तक निकलता रहा और 14 फरवरी, 1955 को इसका नाम बदलकर प्रबुद्ध भारत कर दिया गया।
मूकनायक से प्रबुद्ध भारत तक की डॉ. अम्बेडकर की पत्रकारिता की जो यात्रा है, वह उनके सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक जीवन की संघर्ष यात्रा है.डॉ. अम्बेडकर ने समाज स्थिति से समझौता नहीं बल्कि उसे बदलने का जो व्रत लिया था, ये उनके हथियार थे.इन पत्रिकाओं ने समतामूलक समाज की स्थापना में अप्रतिम योगदान किया और दलित और सवर्ण के भेदभाव को मिटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.