मई दिवस पर विशेष : लाल सलाम नहीं, यश  बॉस का दौर है...

फादर्स डे और मदर्स डे मनाने वाली साल 2000 के बाद की पीढ़ी को तो पता ही नहीं होगा कि हम लोग 1 मई को मजदूर दिवस भी मनाते हैं. इसमें उनकी गलती कम है क्योंकि लगभग लगभग इस दौर में मजदूर आंदोलन हाषिये पर चला गया है. लाल सलाम की गूंज सुनाई नहीं देती है. यष बॉस अब एकमात्र नारा बन गया है. यष बॉस शब्द लालकारपेट के लोगों को सुहाता है. लाल सलाम तो उनके लिए हमेषा से पीड़ादायक रहा है. आज जब हम एक बार फिर मजदूर दिवस की औपचारिक स्मृतियों को याद करते हैं तो यह भी याद नहीं आता कि मजदूर -मालिक संघर्ष पर इन दो दषकों में कोई प्रभावी फिल्म बनी हो. यह भी याद नहीं आता कि लेखकों की बड़ी फौज आ जाने के बाद किसी लेखक की मजदूर-मालिक संघर्ष को लेकर कोई कालजयी रचना लिखी गई हो. सिनेमा के पर्दे पर मालिक-मजदूर को लेकर फिल्म का नदारद हो जाना या कथा-साहित्य में इस विषय पर लेखन का ना होना भी इस बात का पुख्ता सबूत है कि मजदूर आंदोलन लगभग समाप्ति पर है. क्योंकि समाज में जो घटता है, वही सिनेमा और साहित्य का विषय बनता है लेकिन जब समाज में ही इस विषय पर शून्यता है तो भला कैसे और कौन सी फिल्म बने या कथा-साहित्य रचा जाए.
मजदूर आंदोलन लगभग दम तोड़ता नजर आ रहा है. श्रमिकों नेताओं परम्परागत ढर्रे पर चलते रहे और साथ में यह सोच भी बनी कि मजदूर के कारण औद्योगिक विकास प्रभावित हो रहा है. मजदूरों का भी आंदोलनों से मोहभंग होना एक बड़ा कारण माना जा सकता है. यह और बात है कि संगठित क्षेत्र के श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा में इजाफा होने से फायदा हुआ है असंगठित क्षेत्र के कामगार आज भी परेषान है. असंगठित क्षेत्र में भी खास तौर से दुकानों, ठेलों, खोमचों, चाय की स्टॉलों, होटलों−ढाबों पर काम करने वालों की तकलीफें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं. कल कारखानों में भी ठेके पर श्रमिक रखने की परंपरा बनती जा रही है और तो और अब तो सरकार भी अनुबंध पर रखकर एक नया वर्ग तैयार कर रही है. शहरीकरण, गांवों में खेती में आधुनिक साधनों के उपयोग व परंपरागत व्यवसाय में समयानुकूल बदलाव नहीं होने से भी गांवों से पलायन होता जा रहा है. हालांकि सरकार असंगठित क्षेत्र के कामगारों को भी सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए कदम उठा रही है पर अभी इसे नाकाफी ही माना जाएगा. एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में केवल 10 प्रतिशत श्रमिक ही संगठित क्षेत्र में हैं. 90 फीसदी कामगार असंगठित क्षेत्र में हैं. जानकारों के अनुसार असंगठित क्षेत्र के कामगारों में भी 60 प्रतिशत कामगारों की स्थिति बेहद चिंताजनक मानी जाती है. करीब 50 फीसदी श्रमिक केजुअल वेज पर काम कर रहे हैं वहीं केवल 16 प्रतिशत मजदूर ही नियमित रोजगार से जुड़े हुए हैं.
मुझे याद आता है कि साल 87 के आसपास मैंने तब के प्रखर मजदूर नेता ताराचंद वियोगी से मुलाकात में मजदूरों के संबंध में विस्तार से बातचीत की थी. इसके बाद कोई मजदूर नेता जेहन में नहीं आता कि जिनका स्मरण किया जाए. हां, इंदौर हो, राजनांदगांव हो, नागदा हो, ग्वालियर हो या जबलपुर के साथ ही और भी जगह है जो मजदूर-मालिक संघर्ष की कहानी सुनाते हैं. छत्तीसगढ़ के दल्लीराजहरा की खदानें हो या नंदिनी की माईंस जहां एक आवाज पर मजदूरों के हाथ थम जाते थे. राजनांदगांव का बीएनसी कपड़ा मिल हो, एक आवाज पर काम करते हाथ रूक जाते थे. आज की पीढ़ी को यकीन नहीं होगा कि सैकड़ों किलोमीटर में फैले खदानों में काम करने वाले मजदूरों तक उनके लीडर की आवाज पलक झपकते ही लग जाती थी. यह वह समय था जब संचार के साधन शून्य थे. लीडर एक टोली को आदेष देता और एक टोली से दूसरी टोली और आखिरी टोली तक संदेष पहुंचते ही काम थम जाता था. इस दौर के लीडर का नाम था शंकर गुहा नियोगी. नियोगी छोटी उम्र में ही सरकार और कारपोरेट की आंखों में शूल की तरह चुभने लगे थे लेकिन हजारों हजार मजदूरों की ताकत उनके साथ थी. उन दिनों आज की तरह मीडिया का ना तो इतना विस्तार था और ना ही संसाधन लेकिन कोई चार पन्ने का अखबार तो कोई आठ पन्ने के अखबारों में श्रमिक आंदोलन को इतनी जगह मिलती थी कि उनकी ताकत चौगुनी हो जाती थी. ऐसा भी नहीं था कि सारे अखबार एक ही विचारधारा के होते थे लेकिन खबर को सब समान स्थान देते थे. आज की हालात में सब बदला बदला सा नजर आता है.  
छत्तीसगढ़ के प्रमुख मजदूर नेताओं में कॉमरेड सुधीर मुखर्जी, राजेन्द्र सान्याल, शंकर गुहा नियोगी, जनकलाल ठाकुर जैसे दर्जनों प्रखर नेता 80 के दषक में हुए तो इसी दौर और इसके पहले मध्यप्रदेष में जिन प्रमुख श्रमिक नेताओं का नाम आता है उनमें होमीदाजी, बाबूलाल गौर, मोतीलाल शर्मा, माणकचंद्र चौबे, दादा भौमिक, मांगीलालजी, भेल के त्रिपाठी, तारासिंह वियोगी, षैलेन्द्र शैली, बादल सरोज जैसे बड़े नामों के साथ महाकोषल, विंध्य और मालवाअंचल में अनेक नाम हैं. जिन क्षेत्रों में औद्योगिकरण बढ़ा, वहां श्रमिक नेताओं का दखल रहा लेकिन आहिस्ता आहिस्ता उनके नाम भी नेपथ्य में चले गए. श्रमिक संगठनों की सक्रियता भी अब उस तेवर की देखने को नहीं मिलती है जो कभी सरकार और मिल मालिकों की नींद उड़ा दिया करती थी. इंदौर के श्रमिक नेता होमी दाजी लोकसभा के लिए चुने जाते हैं तो मजदूरों की आवाज बन जाते हैं और मजदूर से विधायक बनने वाले बालोद छत्तीसगढ़ के जनकलाल ठाकुर के बाद कोई ऐसा नाम नहीं दिखता है. कंकर मुंजारे जरूर सक्रिय रहे तो समाजवादी नेता रघु ठाकुर मजदूरों की आवाज बने हुए हैं. अब श्रमिक नेताओं की रिक्तता के चलते श्रमिक संगठनों की आवाज भोथरी हो चली है. यू ंतो अनेक स्थानों पर श्रमिकों के हक के लिए संगठन और नेता काम कर रहे हैं लेकिन दबाव वैसा नहीं बन पा रहा है और मजदूर बदस्तूर शोषण के षिकार बने हुए हैं. इधर आधुनिक षिक्षा व्यवस्था में प्रबंधन की जो पढ़ाई हो रही है, वह बच्चे कॉपोरेट कल्चर के हिमायती हैं. जैसे एक किसान का बच्चा षिक्षा पाने के बाद खेत में काम नहीं कर पाता है, वैसे ही ये प्रबंधन के गुर सीखने के बाद उद्योगों के हित में खड़े होते हैं. जमीनी तौर पर काम करने वाले श्रमिक नेताओं की फौज लगभग खत्म हो रही है. देष में उदारीकरण के बाद तो मालिक-मजदूर का संघर्ष दिखता नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि कामगारों का शोषण नहीं हो रहा है लेकिन आवाज उठाने वालों को दुगुनी ताकत से दबाया भी जा रहा है.
कोरोना वायरस के कारण अन्य प्रदेषों में काम करने गए मजदूरों की जो दयनीय हालत है, वह किसी से छिपी नहीं है लेकिन लीडर के अभाव में उन्हें खुद की लड़ाई लड़नी पड़ रही है. कहा यह जा सकता है कि ये असंगठित मजदूर हैं लेकिन गुजरात में जो सीन सामने आ रहा है, वह कम दर्द देने वाला नहीं है. सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर आ रहे मजदूरों की खैर-ख्वाह पूछने वाला कोई नहीं है और है तो सिर्फ औपचारिकता है. आज उस दौर के मजदूर नेता होते तो श्रमिकों की परेषानी कम तो होती. यह सुखद है कि मध्यप्रदेष ना केवल मजदूरों की चिंता कर रहा है बल्कि उनके खातों में पैसा भेजकर उन्हें साहस दे रहा है. यह इसलिए भी है क्योंकि मध्यप्रदेष के मुख्यमंत्री षिवराजसिंह चौहान जब कुछ भी नहीं थे तब मजदूरों के हक में अपने परिवार के खिलाफ चले गए थे. उन्हें इस बात का दर्द पता है कि मजदूरों को किस किस मुसीबत का सामना करना पड़ता है. दिवंगत बाबूलाल गौर तो श्रमिक आंदोलनों से ही नेता बने.
श्रमिक दिवस की सार्थकता इस बात में नहीं है कि कुछेक संगठन एक दिन के लिए लाल सलाम ठोंक कर अधिकारों की मांग करते सड़क पर आ जाएं. सार्थकता इसमें है कि हम नई पीढ़ी को श्रमिक संगठन, श्रमिकों के अवदान एवं श्रमिक नेताओं के संघर्ष का पाठ पढ़ाएं. उनके भीतर हौसला भरें कि हम होंगे कामयाब गीत तभी सार्थक होगा जब हम एक होंगे. गले में टाई बांधे और हाथ में सूटकेस थामे युवा यष बॉस कहते रहेंगे.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। मोबाइल -9300469918  

मनोज कुमार के अन्य अभिमत

© 2023 Copyright: palpalindia.com
CHHATTISGARH OFFICE
Executive Editor: Mr. Anoop Pandey
LIG BL 3/601 Imperial Heights
Kabir Nagar
Raipur-492006 (CG), India
Mobile – 9111107160
Email: [email protected]
MADHYA PRADESH OFFICE
News Editor: Ajay Srivastava & Pradeep Mishra
Registered Office:
17/23 Datt Duplex , Tilhari
Jabalpur-482021, MP India
Editorial Office:
Vaishali Computech 43, Kingsway First Floor
Main Road, Sadar, Cant Jabalpur-482001
Tel: 0761-2974001-2974002
Email: [email protected]