शिक्षा माफियाओं के दबाव से हटकर ले स्कूल खोलने का फैसला

कोरोना संकट के बीच में शिक्षा मंत्रालय ने आदेश जारी किया है कि राज्य सरकार चाहे तो जुलाई से स्कूलों को खोल सकती है. इसी बीच करीब 5 से ज्यादा राज्य सरकारों ने जुलाई से स्कूलों को खोलने के आदेश भी जारी कर दिए हैं मगर प्रश्न और चिंता की बात ये है कि क्या स्वास्थ्य मानकों को पूरा करते हुए स्कूल प्रबंधन स्कूल खोलने को तैयार है और पूरे देश भर में क्या जुलाई से खुलने वाले स्कूलों में अभिभावक अपने बच्चों को भेजने को तैयार भी है या फिर वो इस वक्त अपने बच्चों के भविष्य और जान को लेकर असमंजस कि स्थिति में है.स्कूल खुले तो कोरोना वायरस संक्रमण पर काबू पाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि अभी लगातार कोरोना पॉजिटिव केस बढ़ रहे हैं. ऐसे बिगड़े हालात में अगर स्कूल खुले और बच्चों को विद्यालय भेजा गया तो संक्रमण फैलाव पर काबू पाना और भी मुश्किल हो जाएगा. अधिकांश सरकारी और निजी विद्यालयों के अंदर प्रत्येक बच्चे के लिए अलग से शौचालयों का प्रबंध कर पाना मुश्किल है और सामुदायिक दूरी के नियमों का अनुपालन भी संभव नहीं है.


विशेषज्ञों और मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक ऐसी सम्भावना पुरजोर है कि  कोरोना का असर आगामी कुछ महीनों रहे और ग्राफ बढ़ता जाये.  अब सवाल ये है कि उनकी पढ़ाई का क्या होगा?? उनका ये शैक्षणिक सत्र क्या उनके शिक्षा काल में वर्ष भर का छूटी वाला वर्ष बनकर रह जायेगा?  बहस को दरकिनार करते हुए ये मान लेना सही होगा कि देश के भविष्य को सही-सलामत रखना सबसे बड़ी प्राथमिकता है. जहां तक बात पाठ्यक्रम के पूरी होने की है तो उसको इस तरह नए सिरे से निर्धारित किया जाए जिससे कुछ हिस्सा अगले वर्ष में जोड़ा जा सके या ऑनलाइन प्लेटफार्म से बेसिक को पूरा करवा दिया जाए ताकि बच्चों में कम से कम उसकी समझ तो विकसित हो पाए.  ऐसे में अभिभावकों कि भूमिका महत्वपूर्ण होगी, साथ ही उन बच्चों को तकलीफ होगी जो अनपढ़ घरों से आते है, ऐसे बच्चों के लिए आस-पास कोई विकल्प ढूंढने होंगे.

स्कूलों को खोलकर बच्चों की एक ही जगह पर शैक्षणिक गतिविधियां कराने की जल्दबाजी करना सही नहीं है अगर अगस्त में भी यदि सत्र शुरू नहीं हो पायेगा तो  पाठ्यक्रम पूरा करना संभव ही नहीं होगा. जहाँ तक बात शून्य वर्ष मानकर प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक के विद्यार्थियों को बिना परीक्षा अगली कक्षा में पदोन्नत कर देने की है तो आपातकालीन व्यवस्था के कारण वैसा करना जरूरी है, और अब तो स्कूल, यूनिवर्सिटी ने ऐसा नोटिस भी जारी कर दिया है.  किन्तु इस स्तर पर बच्चों की बुनियाद कमजोर न हो इसका ध्यान भी रखना होगा. देश के शैक्षणिक कैलेंडर का भी बड़ा महत्व है क्योंकि भविष्य का पूरा नियोजन शिक्षा संस्थानों से निकले युवाओं पर ही निर्भर है. लेकिन विद्यार्थियों की जीवन रक्षा सबसे ज्यादा जरूरी है और उसके लिए पूरा शैक्षणिक सत्र भी यदि रद्द करना पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए.

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार मानव संसाधन विकास मंत्रालय फिलहाल स्कूलों को खोलने की जल्दी में कतई नहीं है.  केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री ने 15 अगस्त के बाद की तारीख बताकर अनिश्चितता तो फिलहाल दूर कर दी लेकिन भारत में कुछ राज्य इन सबके बावजूद भी स्कूल खोलने की कवायद में जी- जान से जुड़े है. पता नहीं उनकी क्या मजबूरी है?  मुझे लगता है वो स्कूल माफियाओं के दबाव में है. आपातकालीन स्थिति में इस तकनीकी युग में बच्चों को शिक्षित करने के हमारे पास आज हज़ारों तरीके है. ऑनलाइन या डिजिटल स्टडी से बच्चों को घर पर ही पढ़ाया जा सकता है तो स्कूलों को खोलने में इतनी जल्दी क्यों ? वैश्विक महामारी जिसमे सोशल डिस्टन्सिंग ही एकमात्र उपाय है के दौरान स्कूल खोलने में इतनी जल्बाजी क्यों ? सरकारों को चाहिए की जब तक कोरोना की वैक्सीन नहीं आती स्कूल न खोले जाए. शिक्षा माफियाओं के दबाव में न आये. ऐसे लोगों को न ही ज़िंदगी और न बच्चों के भविष्य की चिंता है. इनको चिंता है तो बस फीस वसूलने की. क्या सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों का भविष्य नहीं होता, आखिर वो क्यों नहीं आवाज़ उठा रहे.

स्कूल खोलने पर नियमों का क्या होगा जो इस महामारी से बचने के लिए जरूरी है. सोशल डिस्टन्सिंग कैसे रहेगी ? आज जब देश में आये दिन मामले बढ़ रहे है तो स्कूल खुलना हर जगह कोरोना विस्फोट साबित होगा और शिकार होंगे छोटे-छोटे मासूम बच्चे जो पिछले दो माह से अपने घरों में महफूज है. ऐसा कदम उन बच्चों की ज़िंदगी से बेवजह खिलवाड़ होगा और ज़िंदगी रहते तो शिक्षा जरूरी है अन्यथा ये किस काम की. स्कूल खोलने के ये मामले मात्रा अरबों की फीस हेराफेरी से जुड़े है. अगर बच्चें छह महीने स्कूल नहीं जायेंगे तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला. पाठ्क्रम तो फिर पूरा हो जाएगा, ज़िंदगी कहाँ से आएगी? वैसे भी आज हमारे स्कूलों में नैतिक शिक्षा कम सिखाई जाती है, समस्यों से निपटने की शिक्षा कौन देगा? जब हम हाथ धोना और ब्रश करना अच्छे से नहीं सीखा पा रहे है तो ये आशा करके बच्चों को स्कूल भेज दे कि वो बच्चों को कोरोना से निपटना सीखा देंगे .

कोई भी फैसला लेते समय एक बार बच्चों के बारे में सोच लें, बच्चे लापरवाह होते हैं वह सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर पाएंगे. आज देश में बड़े लोग सोशल डिस्टेंसिग का पाल नहीं कर पा रहे हैं तो आप कैसे सोच सकते हैं बच्चे इस बात को आसानी से समझ जाएंगे.  सभी चीजों को कंट्रोल करें इससे पहले काफी देर न हो जाए. आज सबको पता है कि ये वायरस एक दूसरे के सम्पर्क से फैलता है. बच्चें इसके बिना रह नहीं सकते, सम्पर्क में आएंगे ही. वैसे भी जून-जुलाई के महीने बारिश के है. ऐसे में वायरस और तेज़ी से फैलेगा और एक भी केस स्कूलों में विस्फोटक साबित होगा. ऐसे में बच्चों को स्कूल भेजने का मतलब है नरभक्षी के सामने बच्चों को भेजना. सरकार को अगर वाकई बच्चों के भविष्य की चिंता है तो तब तक स्कूल न खोले जाए जब तक कोरोना की वैक्सीन तैयार न हो या ऐसा लगे की मामले अब नियंत्रण में है.

 शिक्षा के तौर-तरीके बदलने वाले हैं, जिसके लिए शिक्षकों और छात्रों को तैयार रहने और नए तरीके से कार्यशैली की सख्त जरूरत है.  वैकल्पिक योजनाएं व्यावहारिक साबित नहीं हो पा रही हैं फिर भी हमें विकल्प तलाशने होंगे. भविष्य में  छात्रों के स्वास्थ्य और सुरक्षा, स्कूलों में सफाई को लेकर विशेष सावधानी बरतने की जरूरत है.  क्योंकि कितने भी नियम बना लिए जाएं लेकिन स्कूल खुलने के बाद बच्चों से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करा पाना मुश्किल होगा. सरकार को इस तरह का फैसला उन निजी स्कूल संचालको और शिक्षा माफियाओं के दबाव से हटकर लेना चाहिए, जिनको किसी के बच्चों के स्वास्थ्य से ज्यादा फीस वसूली की चिंता ज्यादा सता रही है. इस चक्कर मे वो बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ करने के फेर में है. सरकार को लाख बार सोचना होगा. कहीं  ये पाठशाला ही प्रयोगशाला न बन जाए. इजरायल का उदाहरण है हमारे सम्मुख है जहाँ हज़ारों बच्चे व स्कूली स्टाफ स्कूल खुलते ही कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए. एक मत से यही निष्कर्ष निकला है कि फिलहाल स्कूल नहीं खोले जाएं, क्योंकि कोरोना का संक्रमण बढ़ रहा है, जिससे बच्चों की जान पर भी भारी जोखिम होगा. जब तक कोरोना की रोकथाम का इलाज इजाद नहीं होता तब तक सरकार व विभाग जबरदस्ती स्कूलों को न खुलवाएं.

डॉ. सत्यवान सौरभ के अन्य अभिमत

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