महामारी में कहाँ दुबक गए सारे एनजीओ?

कोरोना वायरस महामारी के दौरान केन्द्र, राज्य सरकारें तथा प्रशासन अपने स्तर पर मुस्तैदी से काम कर रहा है. सरकार के इन प्रयासों के साथ-साथ देश भर की  कई धर्मार्थ संस्थाएं और गैर सरकारी संगठन सफल बनाने में जुटे हैं ताकि देश में इस महामारी से ज्यादा से ज्यादा लोगों की जिंदगी बचायी जा सके. मगर आपने देखा होगा की सामान्य दिनों में अरबों की सरकारी सहायता प्राप्त कर मीडिया जगत में छाये रहने वाले और जगह-जगह अपनी ब्रांच का प्रचार करने वाले पंजीकृत गैर सरकारी संगठन  यानी  एनजीओ इस दौरान न जाने कहाँ दुबके रहे ?

कुछ एक अपवाद है जिन्ह्नोने अपना फर्ज निभाया. मगर बाकी ने नहीं.  कितना अच्छा होता अगर इस चुनौती का मुकाबला करने के लिये शहरों और कस्बों से लेकर ताल्लुका स्तर तक सामाजिक कार्यो का दावा करने वाले ये पंजीकृत गैर सरकारी संगठन जरूरतमंदों की मदद के लिये आगे आते.  इनमें से अगर आधे संगठन भी कमर कस लेते तो देश के लिये इस चुनौती का सामना करना ज्यादा आसान हो सकता था.

प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं के दौरान एनजीओ द्वारा निभाई गई भूमिका संदिग्ध होना इनके अस्तित्व पर सवाल उठाता है. और इसमें प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल खड़े करता है कि आखिर किसलिए इनको अरबों कि ग्रांट हर वर्ष फ्री में परोस दी जाती है या फिर इन  एनजीओ के पीछे राजनितज्ञ और बड़े-बड़े घराने है. जो सरकार को चूना लगाने के साथ-साथ अपने को चमकाने के लिए सुर्खयों में रहते हैं. वास्तव में इन एनजीओ की फितरत धन जुटाने के लिये झूठे हाथ जोड़ने में, झूठे दांत दिखाने में, फोटो खिंचवाने व प्रचार-प्रसार पाने की होती है.

  भारत में जितने भी गैरसरकारी संगठन हैं, सभी ऊंचे मूल्यों को स्थापित करने की, सेवा एवं परोपकार की आदर्श बातों के साथ सामने आते हैं. पर परदे के पीछे धन उगाहने की होड़ में  स्वार्थ एवं जेब भराई की संस्कृति को अपना लेते हैं. मूल्य की जगह मनी और सेवा मुद्दों की जगह शोषण करने लगते हैं. आज हमे इन  एनजीओ के  सावधानीपूर्वक विश्लेषण के साथ उनके दृष्टिकोण को उजागर करने की भी आवश्यकता है.

स्वतंत्रता के बाद से, गैर-सरकारी संगठनों ने भारत में जरूरतमंदों की सहायता करने, सहायता प्रदान करने और देश में लाखों लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. लेकिन, आपदाओं के दौरान राहत देने के संबंध में उनकी भूमिका न केवल सहायता प्रदान करने, बल्कि नष्ट हुए परिदृश्य के पुनर्निर्माण और सार्वजनिक अधिकारियों के साथ हाथ से काम करते समय राहत प्रदान करने तक सीमित है.

इस समय देश में सामाजिक सेवा करने वाले करीब 33 लाख गैर सरकारी संगठन पंजीकृत हैं और इन संगठनों को केन्द्र तथा राज्य सरकार से अरबों रूपए की आर्थिक सहायता मिल चुकी है. इनमे से कई संगठनों को अपने परोपकारी कार्यो के लिये विदेशों से भी आर्थिक मदद मिलती है.  जो विदेशों से बड़ी संख्या में पैसा हासिल कर रहे हैं. इनमें से अधिकतर तो आयकर रिटर्न भी नहीं भरते हैं और उनका हिसाब भी कोई लेने वाला नहीं है.

प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं में राहत प्रदान करते हुए एनजीओ द्वारा निभाई गई भूमिका का अहम रोल रहता है. एक प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा प्राकृतिक या मानव निर्मित कारणों का एक परिणाम है. जो सामान्य जीवन के अचानक व्यवधान का कारण बनता है, जिससे जीवन और संपत्ति को एक हद तक गंभीर नुकसान होता है. जो कि उपलब्ध सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा तंत्र का सामना करने के लिए अपर्याप्त हैं. उड़ीसा और भारत के अन्य  दक्षिणी हिस्सों में पता चलता है कि एनजीओ सेक्टर-आजीविका, सामुदायिक संगठन, सामुदायिक संपत्ति निर्माण जैसे मुद्देविशिष्ट पर ध्यान केंद्रित करता है.

मगर  प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा से निपटने के लिए गैर सरकारी संगठन का शामिल करना न होना एक बड़ा प्रश्न है. अब ये जानना बड़ा मुश्किल है क्या कोई संगठन कारण के लिए काम करना चाहता है या केवल सरकारी अनुदान प्राप्त करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है. इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि गैर सरकारी संगठन ऐसी गतिविधियों में शामिल हैं जो राष्ट्रीय हितों के लिये नुकसानदेह हैं, सार्वजनिक हितों को प्रभावित कर सकते हैं या देश की सुरक्षा, वैज्ञानिक, सामरिक या आर्थिक हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं.

आईबी के रिपोर्ट के अनुसार विदेशी सहायता प्राप्त बहुत सारे एनजीओ देश में अलगाववाद और माओवाद को हवा दे रहे हैं. बहुत सारा पैसा धर्मांतरण, विशेषकर आदिवासियों को ईसाई बनाने के काम में जा रहा है. उन पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि विदेशी शक्तियाँ उनका उपयोग एक प्रॉक्सी के रूप में भारत के विकास पथ को अस्थिर करने के लिये करती हैं, जैसे- परमाणु ऊर्जा संयंत्रें और खनन कार्य के खिलाफ गैर सरकारी संगठनों का विरोध प्रदर्शन. लेकिन फिर भी  हम कुछ गैर-सरकारी संगठनों द्वारा इस कोविद -19 संकट के दौरान किए गए कुछ शानदार कामों को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं.


जैसे अक्षय पात्र फाउंडेशन जिसका मुख्यालय बेंगलुरु में है. कोविद-19 संकट के बाद से, अक्षय पात्र फाउंडेशन ने राज्य सरकारों और जिला प्रशासन के साथ घनिष्ठ समन्वय में, देश भर के हजारों लोगों को भोजन प्रदान करके राहत प्रदान करने के लिए कदम बढ़ाया है. पुणे स्थित काश्तकारी पंचायत (एनजीओ) ने पुणे में लगभग 7,000 श्रमिकों का समर्थन करने के लिए एक फंडरेसर का आयोजन किया है.  कोरोना काल के इस दुखद समय में ऐसे  गैर सरकारी संगठन  के बारे ऐसी खबरें आई है की ये सेवा के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करने, शोषण एवं कमाई करने में जुटे है देश भर में ऐसे एनजीओ पर पैनी नजर रखना  बेहद जरूरी है.

 हम मानते है और सरकार किसी के काम में बाधक भी नहीं है. लेकिन एनजीओ को अपना काम ईमानदारी, पारदर्शिता एवं सेवाभावना से करना चाहिए. अगर इन संगठनों ने काम किया है तो देश सामाज के सामने भी तो आना ही चाहिए और उन्हें प्रोत्साहन भी मिलना चाहिए. गृहमंत्रालय की पहल से एनजीओ जब अपनी गतिविधियों की रिपोर्ट सरकार को देंगे तो इस बात का आकलन किया जाये कि क्या उन्होंने वास्तव में कोरोना संक्रमण में सेवा एवं मानव कल्याण के कार्य किए हैं या फिर मात्रा अपनी जेब भरी और फोटो खिंचवाकर सुर्खिया बटोरी.

जैसा कि हम जानते हैं कि प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाएँ मानव जाति की प्रतिकूल परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करती हैं. इसलिए, जब हम प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं से निपटना चाहते हैं तो एनजीओ की भूमिका अपरिहार्य लगती है, लेकिन यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि एनजीओ उद्देश्य के अनुरूप है और इसके विरुद्ध नहीं, ताकि मदद और राहत अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सके. सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को भागीदार के रूप में कार्य करना चाहिये और साझा लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये पूरक की भूमिका निभानी चाहिये. जो परस्पर विश्वास व सम्मान के मूल सिद्धांत पर आधारित हो और साझा उत्तरदायित्व व अधिकार रखता हो.

डॉ. सत्यवान सौरभ के अन्य अभिमत

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