उदारता की बजाय पड़ोस में सजगता की जरूरत

पड़ोस में शांति हो, तो इन्सान चैन की नींद सोता है, लेकिन यह शांति तभी बनी रह सकती है, जब पड़ोसी के साथ-साथ हम भी शांति के पक्षधर हों और ये समझ आ जाये कि क्या पडोसी शांति के लायक है?  वर्चस्व की जंग हमेशा शांति को मारने का काम करती है. फिजूल के झगड़ों को दरकिनार कर  ‘गुट निरपेक्ष’ रहना शांति का पहला कदम है.  मगर जब पानी नाक से गुजर जाए तो हम तटस्थ भी नहीं रह सकते. सही समय पर सिखाया गया सबक लम्बे समय तक शांति का नया रास्ता भी खोल सकता है. आजादी से लेकर आज तक भारत की विदेश नीति में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं. आइये जानने का प्रयास करें कि वास्तव में भारत कैसा पड़ोसी है ?

खासकर चीन और नेपाल के साथ "क्षेत्रीय विवाद" के चलते अपने पड़ोस के साथ भारत की विदेश नीति  अब बहस का एक सक्रिय विषय है. दक्षिण एशियाई क्षेत्र, जो आठ देशों का घर है, और हिंद महासागर क्षेत्र (समुद्री हिंद महासागर क्षेत्र; ज्यादातर पश्चिमी हिंद महासागर) भारत के पड़ोस के व्यापक भौगोलिक विस्तार के अंतर्गत आता है.  "विस्तारित पड़ोस"  की सोच आज भारत की एक कूटनीति के तौर पर सामने आई है. मगर ये अन्य देशों की विस्तारित सोच से काफी अलग जो उन क्षेत्रों के साथ भारत को जोड़ती है जो आवश्यक रूप भारत से सीमाओं को साझा नहीं करते हैं लेकिन सांस्कृतिक, सभ्यता या आर्थिक संबंधों को साझा करते हैं.

स्वतंत्रता के बाद से, भारत की केंद्रीयता और क्षमताओं को देखते हुए, पारंपरिक रूप से भारत का क्षेत्र विशेष रूप से दक्षिण एशिया में और काफी हद तक पश्चिमी हिंद महासागर में प्रसार रहा जिसमें भूगोल, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रणालियों का वर्चस्व है. दक्षिण एशियाई छोटे पड़ोसियों में से अधिकांश का भारत के साथ अपने स्वतंत्र काल में दोस्ताना संबंध रहा है. भारत की पड़ोस नीति का विकास नया और एक्सीडेंटल नहीं है. बरसों से भारत की पड़ोस नीति कई चरणों से होकर गुज़री है.

औपनिवेशिक समय में उपनिवेशवाद-विरोधी, साम्राज्यवाद-विरोधी, नस्लवाद-विरोधी  विचारों और नारों  ने अपने पड़ोसियों के साथ भारत ने संबंधों को मजबूत किया और एक तरह से उनका समर्थन किया. औपनिवेशिक दौर, जो 1940 के दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुआ, के दौरान भारत ने पड़ोसियों को अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में गुटनिरपेक्षता जैसे विचारों को आगे बढ़ाने में मदद की जो कि एक वृहद स्तर पर तीसरी विश्ववाद से प्रेरित था. यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की विदेश नीति में बहुपक्षवाद की प्रबलता थी. फिर भी भारत में इसके निकटवर्ती क्षेत्र के लिए द्विपक्षीयता पर जबरदस्त ध्यान केंद्रित किया गया है.

अपने पड़ोसियों के प्रति भारत की विदेश नीति का दृष्टिकोण "संतुलन के सिद्धांत" द्वारा तैयार किया गया था. मिसाल के तौर पर, जिन नीतियों का प्रमुख विरोधी राज्यों (जैसे पाकिस्तान और चीन) ने महाशक्तियों के साथ पालन किया, उनमें भारत के संबंध बाद के हैं. इस तरह के संतुलन और प्रतिकार का भारत के पड़ोस पर प्रभाव पड़ा है. इसका मतलब यह नहीं है कि घरेलू स्तर के कारकों ने पड़ोस नीति को आकार देने में कभी कोई भूमिका नहीं निभाई. वास्तव में, पड़ोस के कुछ संघर्षों के उदाहरण के लिए घरेलू आयाम थे, भारत-श्रीलंका ने अस्सी के दशक में संघर्ष किया और बांग्लादेश के साथ पानी के मुद्दों को साझा किया.

सामान्य तौर पर, एक प्रमुख धारणा है कि भारत की पड़ोस नीति ज्यादातर भूमि क्षेत्र के क्षेत्र में पाकिस्तान और चीन से जुड़े मुद्दों पर हावी थी और यह समुद्री मुद्दों की अनदेखी कर रही थी.
1990 के दशक में शुरू हुए शीत युद्ध के बाद के समय में, भारत ने गुटनिरपेक्षता पर अपने विदेश नीति के परिसर को परिष्कृत करने के लिए अपना काम शुरू किया. इसके पश्चिमी पश्चिमी देशों, क्षेत्रवाद और इसके साथ संबंध थे, जिसका भारत के पड़ोस एवं / क्षेत्रीय नीतियां पर भारी प्रभाव पड़ा.इस तरह के बदलावों में शीत युद्ध के द्वंद्व का पतन, वैश्वीकरण का प्रसार, क्षेत्रीयता की बढ़ी हुई डिग्री शामिल थी. घरेलू स्तर के कारकों में आर्थिक सुधार, गठबंधन की राजनीति का उदय, नाभिकीयकरण और इतने पर शामिल थे.

हाल के दिनों में भारत अपने पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए अभूतपूर्व ध्यान देने लगा है. बढ़े हुए व्यापार, विश्वास निर्माण उपायों, सीमा समझौतों / संधियों आदि से स्पष्ट होने के साथ भारत ने अपने पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए कई पहलें की है. यहां तक कि भारत ने अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ संबंधों के निर्माण और उच्च स्तर के विश्वास के लिए गैर-पारस्परिक पहल की है. उन पहलों में से एक 1996 का "गुजराल सिद्धांत" था. हालांकि, पाकिस्तान जैसे पड़ोसी राज्यों के साथ रुक-रुक कर संघर्ष जारी रहा, जिसने काफी हद तक दक्षिण एशिया विशिष्ट क्षेत्रीय संगठन, दक्षेस के फॉरवर्ड मार्च को प्रभावित किया. सामान्य तौर पर, उस समय नई पड़ोस नीति के माध्यम से भारत पारंपरिक और गैर-पारंपरिक दोनों मुद्दों को संबोधित करने का प्रयास कर रहा था.

"वर्तमान महामारी चरण" में, अर्थव्यवस्थाओं के संकुचन के कारण भारत और इसके पड़ोसियों के बीच कई फिशर्स उभरे हैं. महामारी ने काफी हद तक मुद्दों को बदल दिया है क्योंकि नई आर्थिक और राजनीतिक वास्तविकताएं दुनिया को तेज गति से बदल रही हैं. वास्तव में, गैर-पारंपरिक सुरक्षा खतरे जैसे कोविद -19 महामारी तेजी से पारंपरिक सुरक्षा संघर्षों की ओर अग्रसर है.  चीन की आक्रामक कार्रवाई और छोटे देशों की कार्रवाई क्षेत्र में उभर रही नई भू-राजनीतिक स्थिति के कुछ संकेतक हैं. इसके अलावा, अमेरिका और चीन के बीच एक वैश्विक स्तर पर उभरते नए शीत युद्ध के कारण व्यापार संघर्ष चल रहा है, जो भारत की पड़ोस और इसकी पड़ोस नीतियों को प्रभावित करने की सबसे अधिक संभावना रखता है.

दूसरे शब्दों में, चीन कारक, बदलती वैश्विक शक्ति वास्तुकला, और पड़ोसियों के साथ मौजूदा संघर्ष भारत की विदेश नीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, जिसमें इसकी पड़ोस नीति एक महत्वपूर्ण है.इसलिए बदलते समय के अनुरूप एक नई पड़ोस नीति को अपनी क्षेत्रीय शक्ति का दर्जा बनाए रखने और निकट भविष्य में अगले स्तर तक स्थिति परिवर्तन का एहसास करने के लिए उभरती हुई वास्तविकताओं के साथ कल्पनाशीलता से तैयार किए जाने की अहम आवश्यकता है.वैश्विक क्षेत्र में कई शक्तियों पर अपनी विदेश नीति का ध्यान केंद्रित करके एक बहु-वेक्टर विदेश नीति को बढ़ावा भारत को क्षेत्र / पड़ोस में अपनी स्थिति मजबूत करने में सक्षम बना सकती है.

 भारत की पड़ोस नीति एक लंबा रास्ता तय कर सकती है, अगर इन पहलों को पर्याप्त नवीन हार्ड पावर संसाधनों (रक्षा और अर्थव्यवस्था) और सॉफ्ट पावर रणनीतियों के उपयोग द्वारा ठीक से बैकअप लिया जाता है. भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों को रचनात्मक रूप से प्रचारित करके क्षेत्रीय राज्यों के साथ अपने सभ्यतागत संबंधों को और बेहतर बनाया जा सकता है. यह बदले में भारत की पड़ोस नीति का स्वर्णिम एवं मजबूत समय दे सकता है. भारत को अब उदार पड़ोसी होने के साथ-साथ सजग होना भी बेहद जरूरी है.

प्रियंका सौरभ के अन्य अभिमत

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