सपा-कांग्रेस की बेताबी और बसपा की बेरूखी वाली सियासत

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में अब साल भर का समय बचा है. सभी राजनैतिक पार्टियां एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं. हाल यह है कि प्रदेश की सियासत दो हिस्सों मंे बंट गई है. एक तरफ योगी के नेतृत्व में बीजेपी आलाकमान अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए हाथ-पैर मार रही है तो दूसरी ओर कांगे्रस एवं समाजवादी पार्टी ‘शाम-दाम-दंड-भेद’ किसी भी तरह से योगी सरकार को सत्ता से बेदखल कर देना चाहती हैं. इसके लिए इन दलों द्वारा प्रदेश की जनता के बीच योगी सरकार के खिलाफ बेचैनी का माहौल पैदा जा रहा है. सपा-कांगे्रस द्वारा प्रदेश में घटने वाली हर छोटी-बड़ी घटना को साम्प्रदायिक और जातिवाद के रंग में रंगने की साजिश रची जा रही है. कभी योगी सरकार को ब्राह्मण विरोधी तो कभी महिला,दलित विरोधी करार दिया जाता है. खैर,कांगे्रस तो पिछले तीन दशकों से अधिक समय से यूपी में हासिए पर पड़ी है. इस लिए बीजेपी नेताओं के पास उसकी सरकार के खिलाफ बोलने को कुछ अधिक नहीं है. यह और बात है कि यूपी में जब तक कांगे्रस की सरकार रही,तब कांगे्रस कैसे सत्ता चलाती थी,किसी से छिपा नहीं था. क्रांगे्रस की पूरी सियासत जातिवादी राजनीति के इर्दगिर्द घूमती रहती थी. दिल्ली में बैठे गांधी परिवार के हाथ में यूपी के मुख्यमंत्री का रिमोट रहता था. यूपी में 32 वर्षो से सत्ता के केन्द्र में आने के लिए संघर्षरत कांग्रेस पार्टी का बुरा दौर 1989 के बाद शुरू हो गया था. इसकी वजह थी, अयोध्या का रामजन्म भूमि विवाद,जिसको लेकर बीजेपी हिन्दुत्व को भुनाने में जुटी हुई थी तो कांगे्रस दोनों हाथों में लड्डू चाहते थे. इसके चलते कांगे्रस न इधर की रही, न उधर की रही. इस दौरान कांगे्रस की नेताओं की लंबी फेहरिस्त भी जातीय राजनीति का शिकार होने से अपने आप को बचा नहीं पाई थी. नतीजा, एक के बाद चुनाव हारते और गिरते प्रदर्शन से यूपी कांग्रेस हाशिए पर चली गई. अगर कहा जाय कि केन्द्र में बदलती सरकारों के समीकरण का सबसे ज्यादा असर यूपी कांग्रेस पर पड़ा तो कोई गलत नहीं होगा. जब-जब केन्द्र की राजनीति ने करवट ली, प्रदेश की राजनीति भी विकास के वादे से दूर जातिवादी राजनीति पर आकर टिक गई. यह सच है कि यूपी में कांग्रेस को खड़ा करने के लिए दिल्ली कांग्रेस नेतृत्व ने प्रदेश को कई कैडर के नेता दिए, इसमें महावीर प्रसाद,सलमान खुर्शीद, श्री प्रकाश जायसवाल,निर्मल खत्री,राजब्बर जैसे नाम शामिल थे. लेकिन स्थानीय और क्षेत्रीय समीकरणों में फिट न बैठ पाने की वजह से एक के बाद एक कांग्रेस अध्यक्ष पार्टी की दशा सुधारने की बजाए बारी-बारी से अध्यक्ष की कुर्सी को शोभायमान कर चले गए. कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार गिरता चला गया. यहां तक कि यूपी में प्रियंका वाड्रा से पूर्व तीन बार यूपी कांगे्रस के प्रभारी की जिम्मेदारी संभाल चुके गुलाम नबी आजाद भी कोई कमाल न दिखा सके और उन्हें भी वापस जाना पडा. प्रदेश में एनडी तिवारी कांगे्रस के अंतिम मुख्यमंत्री साबित हुए थे. उसके बाद समाजवादी जनता दल से मुलायम सिंह यादव की प्रदेश में सरकार बनी थी. इस बारे में राजनीति के जानकार कहते हैं कि देश में क्षेत्रीय क्षत्रपों के पनपने के बाद देश हो या प्रदेश, हर जगह जातिवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ने लगा. यूपी के परिपेक्ष्य में अगर देखें तो यहां मुलायम और मायावती जैसे नेताओं ने जाति आधारित राजनीति को काफी तेजी से आगे बढ़ाया. इसी वजह से कांगे्रस का दलित वोटर मायावती के साथ और पिछड़ा एवं मुस्लिम वोटर समाजवादी खेमें में चला गया. बनिया-ब्राह्मणों तथा अन्य अगड़ी जातियों ने बीजेपी का दामन थाम लिया, तभी से कांग्रेस का ग्राफ गिरता गया. 1989 के बाद के समीकरणों को गौर से देखें तो अलग-अलग नेताओं के अलग-अलग जाति का प्रतिनिधित्व करने से केन्द्र व प्रदेश दोनों की राजनीति प्रभावित हुई. गौर से देखें तो जातिवादी राजनीति में खास जाति का प्रभुत्व सरकार का प्रतिनिधित्व करता नजर आयेगा. इस लहर में कांग्रेस के लीडर एक के बाद एक धराशायी हो गए. न पहले सोनिया गांधी इस गिरावट को रोक पाई, न अब राहुल -प्रियंका कुछ कर पा रही हैं. बात समाजवादी पार्टी की कि जाए तो पिछले दो चुनावों (2014 के लोकसभा और 2017 के विधान सभा चुनाव) में उसका भी हाल बुरा ही रहा. बात सपा की कि जाए तो 2013 में उसके राज में हुए मुजफ्फरनगर दंगों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बढ़त बनाने का मौका दिया तो 2017 में सत्ता विरोधी लहर और प्रदेश में जंगलराज जैसे हालात के चलते अखिलेश को सत्ता से बेदखल होना पड़ गया. फिर भी 2022 के विधान सभा चुनाव को लेकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव के हौसले बुलंद हैं तो इसे उप-चुनावों में समाजवादी पार्टी के अच्छा प्रदर्शन को इसका आधार बताया जा सकता है. क्योंकि उप-चुनावों में समाजवादी पार्टी को जीत का स्वाद भले कम मिला हो,लेकिन समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी ही भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशियों को टक्कर देते नजर आए. इतना ही नहीं अखिलेश के कार्यक्रमों में भीड़ भी जुट रही है. इससे भी अखिलेश गद््गद हैं. बात बसपा सुप्रीमों मायावती की कि जाए तो अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव को लेकर उनकी सुस्ती किसी के समझ में नहीं आ रही है. लम्बे समय से वह कहीं दिखाई नहीं दे रही हैं. योगी सरकार को घेरने के लिए भी वह ज्यादा रूचि नहीं दिखाती हैं. हाॅ ,जनवरी में अपने 65वें जन्मदिन पर जरूर उन्होंने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अकेले चुनाव लड़ने का एलान कर सबको चैंका दिया था. वैसे भी मायावती का यही मानना है कि हमें गठबंधन से नुकसान होता है. माया ने दावा भी किया था कि आगामी चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की जीत तय है,लेकिन जो हालात नजर आ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि मायावती विधान सभा चुनाव को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हैं. बसपा ने अभी तक तमाम विधान सभा सीटों के लिए प्रभारी तक नहीं नियुक्त किए हैं. उल्लेखनीय है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा ने हाथ मिलाया था. 2014 के चुनाव में एक भी सीट नहीं जीतने वाली बसपा ने तब 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी, वहीं, सपा 2014 की ही तरह 2019 में भी 5 सीट पर सिमट कर रह गई थी.आश्चर्य की बात यह है कि मायावती कभी बीजेपी को चुनौती देती नजर आती हैं तो कभी वह बीजेपी के कामों की तारीफ करने लगती हैं या फिर तमाम मौकों पर चुप्पी साध लेती हैं. इसी के चलते राजनैतिक पंडित भी मायावती की भविष्य की राजनीति को समझ नहीं पा रहे हैं.

अजय कुमार के अन्य अभिमत

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