‘जनादेश’तय करेगा किसान आंदोलन की दशा-दिशा !

नया कृषि कानून वापस लेने की मांग को लेकर दिल्ली बार्डर पर डेरा डाले किसानों के आंदोलन में अजीब तरह का ठहराव नजर आ रहा है. न आंदोलन खत्म हो रहा है, न ही आगे बढ़ता नजर आ रहा है. ऐसा लग रहा है कि सरकार और किसान दोनों ही एक-दूसरे की बात सुनने समझने को तैयार नहीं हैं. इसकी जड़ में जाया जाए तो यही नजर आता है कि जब से किसान आंदोलन ने सियासी चोला ओढ़ा है तब से मोदी सरकार ने आंदोलन को लेकर अपना रूख भी सियासी कर लिया है. अब उसे इस बात की चिंता कम ही नजर आ रही है कि कथित किसान आंदोलन के चलते उसे(भाजपा और मोदी सरकार)सियासी तौर पर नुकसान उठाना पड़ सकता है बीजेपी आलाकमान इस बात की परख पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव के नतीजों से कर लेना चाहता है. यदि यहां बीजेपी की उम्मीद के अनुसार नतीजे आए तो किसान आंदोलन की आगे की राह मुश्किल हो सकती है. तब तमाम राजनैतिक दल जो इस समय किसानों के साथ नजर आ रहे हैं,वह भी इससे पल्ला झाड़ लेंगे. इस तरह यह आंदोलन भी पूर्व के कई किसान अंदोलन की तरह अपना मकसद हासिल किए बिना इतिहास में सिमट जाएगा. यदि नतीजे बीजेपी के आशानुरूप नहीं रहे तो आंदोलनकारी किसानों को नई उर्जा मिलना भी तय है. तब किसानों को भड़काने वाली ‘शक्तियां’ और भी तीव्र गति से मोदी सरकार पर ‘आक्रमक’ हो सकती हैं. वैसे भी इतिहास गवाह है कि हमेशा ही आंदोलन कामयाब नहीं रहते है. मध्य प्रदेश के मंदसौर में 2017 में हुए किसान आंदोलन को लोग अभी भूले नहीं होंगे, जहां पुलिस की गोली से 7 किसानों की मौत हो गई थी. इस आंदोलन की वजह से ही 15 वर्षो के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई थी. कमलनाथ मुख्यमंत्री बने थे. यह और बात है कि यह सरकार ज्यादा समय तक टिक नहीं पाई और आज शिवराज सिंह पुनः मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं. इसी तरह कर्ज माफी और फसलों के डेढ़ गुना ज्यादा समर्थन मूल्य की मांग को लेकर तमिलनाडु के किसानों ने 2017 एवं 2018 में राजधानी दिल्ली में अर्धनग्न होकर एवं हाथों में मानव खोपड़ियां और हड्डियां लेकर प्रदर्शन किया था. नये कृषि कानून को लेकर चल रहे मौजूदा आंदोलन की बात करें तो पंजाब से उठी इस आंदोलन की चिंगारी से पंजाब और हरियाणा सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों के किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं. दिल्ली को चारों ओर से आंदोलनकारी किसानों ने घेर लिया है. आज भले ही भारतीय किसान यूनियन के नेता नेता चैधरी राकेश टिकैत मोदी सरकार को झुकनें को मजबूर नहीं कर पाए हों लेकिन उसके पिता महेन्द्र सिंह टिकैत जो अब इस दुनिया में नहीं हैं,उनकी तो पहचान ही किसान आंदोलन के कारण बनी थी. एक समय वे पूर्व प्रधानमंत्री चैधरी चरण सिंह, चैधरी देवी लाल की टक्कर के किसान नेता माने जाते थे. बस फर्क इतना था जहां, चैधरी चरणसिंह और चैधरी देवीलाल किसान नेता के साथ-साथ सियासतदार भी थे, वहीं महेन्द्र सिंह टिकैत विशुद्ध किसान नेता थे. टिकैत कई सरकारों को घुटनों के बल खड़ा होने को मजबूर कर चुके थे. सबसे खास बात यह थी कि टिकैत अराजनीतिक किसान नेता थे, उन्होंने कभी कोई राजनीतिक दल नहीं बनाया. वर्ष 1987 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के कर्नूखेड़ी गांव में बिजलीघर जलने के कारण किसान बिजली संकट का सामना कर रहे थे. एक अप्रैल, 1987 को इन्हीं किसानों में से एक महेंद्र सिंह टिकैत ने सभी किसानों से बिजली घर के घेराव का आह्वान किया. यह वह दौर था जब गांवों में मुश्किल से बिजली मिल पाती थी. ऐसे में देखते ही देखते लाखों किसान जमा हो गए. तब स्वयं टिकैत को भी इसका अंदाजा नहीं था कि उनके एक आहवान पर इतनी भीड़ जुट जाएगी. इसी आंदोलन के साथ पश्चिमी यूपी के किसानों को टिकैत के रूप में बड़ा किसान नेता भी मिल गया. इसी आंदोलन के बाद महेन्द्र सिेंह टिकैत को इस बात का अहसास हुआ कि वे बड़ा आंदोलन भी कर सकते हैं. इसी के पश्चात जनवरी 1988 में किसानों ने अपने नए संगठन भारतीय किसान यूनियन के झंडे तले मेरठ में 25 दिनों का धरना आयोजित किया. इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा मिली. इसमें पूरे भारत के किसान संगठन और नेता शामिल हुए. किसानों की मांग थी कि सरकार उनकी उपज का दाम वर्ष 1967 से तय करे. बहरहाल, चर्चा आज पर की जाए तो ऐसा लगता है कि किसान आंदोलन दिशा भटक चुका है. अगर ऐसा न होता तो लाल किले पर उपद्रव, खालिस्तान की मांग, उमर खालिद जैसे देशद्रोहियों के पक्ष में किसान नेता खड़ नजर नहीं आते. कृषि कानून विरोधी आंदोलन के सौ से अधिक दिन बीत जाने के बाद भी यदि सरकार और किसान नेताओं के बीच गतिरोध खत्म नहीं हो रहा है तो इसके लिए कहीं न कहीं किसान नेताओं का अड़ियल रवैया अधिक जिम्मेदार है. आंदोलनकारी किसान राजनैतिक दलों के हाथ का खिलौना तो बन ही गया है. इसके अलावा आंदोलनकारी किसानों ने जिस तरह से आंदोलन के नाम पर आम जनता की परेशानियों से मुंह मोड़ रखा है,उससे किसान आंदोलन को जनसमर्थन मिलना बंद हो गया है. आंदोलनकारी किसान नेताओं द्वारा अपने आंदोलन की ओर सरकार ओर जनता का ध्यान आकर्षित करने के लिए चक्का जाम जैसे आयोजन किए जा रहे हैं, उसका उलटा असर पड़ रहा है.क्योंकि आंदोलनकारी किसानों का मकसद आम जनता को परेशान करके सरकार पर बेजा दबाव बनाना है. किसान नेताओं के रवैये से यह भी साफ है कि उनकी दिलचस्पी समस्या का समाधान खोजने में नहीं, बल्कि सरकार को कटघरे में खड़ा करने की ज्यादा है. इसी कारण वे उन तीनों कृषि कानून वापस लिए जाने की मांग पर अड़े हैं,जिस पर सुप्रीम अदालत ने पहले ही रोक ला रखी है. इतना ही नहीं मोदी सरकार भी नये कानून को डेढ़ वर्ष तक स्थगित करने पर सहमत हो गई है ताकि किसान नेताओं के सभी भ्रम दूर किए जा सकें. मोदी सरकार धरना-प्रदर्शन कर रहे किसान संगठनों से लगातार यह समझा रही है कि वे इन कानूनों में खामियां बताएं तो वह उन्हें दूर करे, लेकिन किसान एक ही रट लगाए हुए है कि तीनों कानून खत्म किए जाएं. किसान नेता ऐसे व्यवहार कर रहे हैं, जैसे संसद और सुप्रीम कोर्ट से वह ऊपर हों. किसान नेता सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई उस कमेटी से भी दूरी बनाए हुए हैं,जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना था कि किसान आंदोलन कितना सार्थक है. आखिर, किसान नेताओं द्वारा तीनों कृषि कानूनों को रद्द करके उनकी जगह नया कृषि कानून लाए जाने की वकालत करने का क्या औचित्य हो सकता है. क्या यह उचित नहीं कि कानून रद करने की जिद पकड़ने के बजाय मौजूदा कानूनों में संशोधन-परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ा जाए,लेकिन यह तब तक नहीं होगा जब तक आंदोलनकारी किसान नेता सरकार से अधिक विरोधी दलों के नेताओं को महत्व देंगे,जो शुरू से ही किसानों की समस्याओं का समाधान न हो इसको लेकर रोड़े अटका रहे हैं. आज किसान नेताओं को उस कांगे्रस पर क्यों ज्यादा भरोसा है जिसके चलते 70 वर्षो से किसान भूखों मरने को मजबूर हो रहा था. किसान नेता जिस तरह मोदी सरकार से छत्तीस का आंकड़ा रखे हुए हैं उससे तो यही लगता है कि किसान आंदोलन अहंकार का पर्याय बन गया है. इस आंदोलन के जरिये राजनीतिक हित साधने की कोशिश की जा रही है. चुनावी राज्यों में बीजेपी को हराने के लिए ताल ठोंक रहे किसान नेता कैसे अपने आप को निष्पक्ष बता सकते हैं. सच्चाई यही है कि किसान नेता विपक्ष का खिलौना बन गए हैं.

अजय कुमार के अन्य अभिमत

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