राजपूत, राजपुताना और राजपाट!

राजस्थान में चुनाव अभी पौने दो साल के बाद है और लोकसभा चुनाव में लगभग ढाई साल.लेकिन राजपूत समाज ने अपनी शक्ति का शंखनाद कर लिया.राजस्थान के सबसे विराट कार्यक्रमों में शामिल राजपूत सम्मेलन के बारे मं कहा जा रहा है कि प्रदेश के ज्ञात इतिहास में राजपूतों की इतनी बड़ी रैली जयपुर में इससे पहले कभी नहीं हुई.खासकर क्षत्रियों के इतने बड़े कार्यक्रम में इतनी बड़ी संख्या में क्षत्राणियां भी इससे पहले कभी नहीं दिखी।पूरे प्रदेश सहित देश के विभिन्न प्रदेशों से इतने राजपूत जयपुर पहुंचे कि भवानी निकेतन का ग्राउंड भी छोटा पड़ गया.वैसे तो इस तरह की रैलियों के निहितार्थ केवल राजनीतिक ही हुआ करते हैं, और प्रकट तौर पर भले ही यह रैली सिर्फ सामाजिक ताकत दिखाने की मंशा से हुई हो, मगर इसके राजनीतिक मायने न निकाले जाएं, ऐसा हो ही नहीं सकता.रजवाड़ी रियासतों के रेतीले राजस्थान में राजपूत सदा से रसूखदार रहे हैं, लेकिन भैरोंसिंह शेखावत और कल्याण सिंह कालवी के स्वर्ग सिधारने के बाद शिखर की उस राजनीतिक शून्यता को भरना इसलिए भी जरूरी लगने लगा है,  क्योंकि बीते कुछ सालों में राजनीति और सरकार दोनों ही राजपूतों की पकड़ से कुछ छूटती सी जा रही हैं.सो, पूरे राजस्थान में चर्चा है कि आख़िर यह रैली किसने करवाया और इतनी भीड़ क्यों व कैसे आई.हालांकि जानकारों के पास इसकी सूचनाएं और जानकारियां तो हैं, लेकिन इसके प्रमाण मिलना बाकी है, पर राजस्थान की राजनीति में 22 दिसंबर 2021 की राजपूतों की अब तक की यह सबसे बडी रैली एक रहस्य को  समेटे हुए सबके सामने खड़ी हैं, जिसका हल सुलझना, समझना व संज्ञान में लेना राजनीति व राजनेताओं को जरूरी लगने लगा है.

कोई चाहे कितना भी कहे कि यह शुद्ध रूप से सामाजिक कार्यक्रम था, लेकिन फिर भी राजनीति तो राजनीति होती है, वह कहीं से भी अपनी चमक दिखा ही देती है.फिर जब मंच पर केसरिया साफे में सारे नेता ही सजे हुए बैठे हों, तो राजनीति के रास्ते और आसान हो जाते हैं.आम तौर पर राजपूतों के तेवर आक्रामक माने जाते हैं, फिर भी यह रैली भले ही बेहद अनुशासित व शांत रही.लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों ही के लिए यह संदेश साफ था कि राजस्थान की धरती पर राजपूतों को हल्का मान कर राजनीति करने का छल अब नहीं चलेगा.और यह भी कि चुनावों में उनके सहयोग व समर्थन के बिना किसी भी राजनीतिक दल को कोई बहुत चमकदार नतीजों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.क्योंकि राजस्थान में राजपूत समुदाय की आबादी भले ही 7 से 7 फीसदी के बीच है, लेकिन 20 फीसदी विधानसभा सीटों पर राजपूत समुदाय निर्णायक भूमिका में रहता है.सन 2011 की जनगणना के मुताबिक राजस्थान में राजपूतों की जनसंख्या 37.4 लाख थीं, जिसके बारे में अब राजपूतों का दावा है कि राजस्थान में कुल  45 से 50 लाख लाख राजपूत हैं.मतलब राजस्थान की कुल जनसंख्या में 7 से 8 प्रतिशत राजपूत हैं. आजादी के बाद सन 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में कुल 160 सीटों में 54 सीटों पर राजपूत विधायक थे. पिछली बार वसुंधरा राजे के कार्यकाल में 26 विधायक थे और 2018 के चुनाव में अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री काल में यह संख्या 21 रह गई हैं. दरअसल, राजपूत समाज सिर्फ अपने वोट बैंक की वजह से ही नहीं बल्कि चुनाव में अन्य जातियों पर भी तगड़ा असर रखने और वोट दिलवाने की क्षमता के लिए जाना जाता है.राजपूतों ने शक्ति प्रदर्शन के लिए मौका निकाला अपने सामाजिक संगठन श्री क्षत्रिय युवा संघ के 75वें स्थापना दिन का, और राजस्थान की राजधानी जयपुर में अपनी अनुशासित सामाजिक एकजुटता दिखाकर स्पष्ट ताकत का संदेश  दे दिया।

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपनी शुभकामनाएं इस रैली को प्रेषित की, तो राजस्थान के सभी बड़े - बड़े राजपूत नेताओं सहित जयपुर के कई नेता अपनी – अपनी विपरीत राजनीतिक विचारधाराओं के बावजूद शुद्ध सामाजिक धारा का बहाव देखने पहुंचे थे.रैली के मंच से आजाद भारत की एकता व अखंडता में राजपूतों के योगदान की ताकत को याद दिलाते हुए राजस्थान बीजेपी के वरिष्ठ नेता राजेंद्र राठौड़ ने जब कहा कि राजपूतों का यह इतिहास है कि देश में लोकतंत्र की मजबूती के लिए राजपूतों ने अपने राजपाट सौंप दिए थे, तो संदेश साफ था कि लोकतंत्र में भी राजपूतों की हिस्सेदारी मजबूत ही रहनी चाहिए.केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत बोले कि क्षत्रिय वास्तव में एक संस्कार है,  और राजपूत अपने विचार व व्यवहार से सभी को साथ लेकर चलने वाला समाज हैं.हालांकि शेखावत ने यह कहा कि यह कोई राजनीतिक मंच नहीं है.लेकिन राजस्थान सरकार के मंत्री प्रताप सिंह खाचारियावास ने नसीहत दे डाली कि अगड़ी जातियों के आरक्षण के लिए राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने जो सराहनीय कार्य किया है, वही काम केंद्र को भी करना चाहिए.तो, क्षत्रिय युवक संघ के संरक्षक भगवान सिंह की इस घोषणा ने राजपूत समाज के दिल की हालत जाहिर कर दी कि राजपूत अपना गुस्सा पीना और सहना सीखें. मतलब कि गुस्सा तो है, लेकिन उसे रोकना भी है।

माना जा रहा है कि बदले हुए माहौल में अपनी सियासी ताकत जुटाने के लिए राजपूतों की अब तक की यह सबसे बड़ी पहल है.वैसे तो निश्चित रूप से इस रैली का कोई साफ तौर पर राजनीतिक संदेश नहीं था, लेकिन इतना जरूर है कि इसके पीछे कोई सियासत अवश्य है या फिर राजपूत समाज ने अपनी मजबूत पहचान की पुनर्स्थापना के लिए और अपनी ताकत के लिए एकजुटता दिखाई है.तो,  सत्ता में अपने राजनीतिक पुनरुत्थान और सामाजिक एकता का संदेश देने में तो यह रैली सफल रही, फिर भी देखते हैं, राजस्थान की राजनीति में यह रैली आने वाले वक्त में क्या असर दिखाती है.वैसे, राजपूतों की ताकत के बारे में बहुत सारे किस्से कहे जाते हैं, ज्यादातर सच और कुछ कल्पित भी, लेकिन सारे ही किस्सों में उनकी बहादुरी का जिक्र जरूर होता है.सो, इस रैली को भी उनकी बहादुरी के प्रदर्शन के नजरिये से देखना पाप नहीं होगा.फिर, राजपूतों ने भले ही रैली के अपने इस शक्ति प्रदर्शन को सामाजिक एकता का नाम दिया हो, लेकिन राजपूतों की इस रैली ने जाट, मीणा व गुर्जर संगठनों को भी जातिय ताकत के प्रदर्शन का रास्ता जरूर दिखा दिया है.राजस्थान गवाह है कि राजपूत सदा सदा से राजपाट के केंद्र में रहे हैं,  सो इस रैली से राजनेता हैरान हैं और राजनीति परेशान है.लेकिन राजनीति और राजनेताओं के इस हाल से राजपूत खुश हैं, क्योंकि राजनीति आखिर किसी दूसरे को परेशानी में डालने का ही तो दूसरा नाम है. फिर राजपूतों से ज्यादा राजनीति कोई और क्या जानेगा?  

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