एक ज़रूरी बहस,छत्तीसगढ़ भूजल प्रतिबंध

05 नवम्बर को एक एजेंसी के हवाले से छपी एक खबर के मुताबिक, छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने रबी की फसलों के लिए भूमिगत जल के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है. राज्य सरकार ने छत्तीसगढ़ में धान की खेती पर प्रतिबंध का भी आदेश जारी कर दिया गया है. छत्तीसगढ़ किसान सभा इसका कड़ा विरोध कर रही है.

सतही जलोपयोग को तरजीह देते आंकडे़

भूजल सुरक्षा की दृष्टि से देखेें, तो पहली नजर में उक्त दोनो कदम उचित लगते हैं. छत्तीसगढ़ राज्य गंगा, ब्रह्यमानी, महानदी, नर्मदा और गोदावरी नदियों के बेसिन में पड़ता है. छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा यानी 56.15 प्रतिशत भूभाग अकेले महानदी बेसिन का हिस्सा है. छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के जलसंसाधन विभाग की वेबसाइट के मुताबिक 1,35,097 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले छत्तीसगढ़ राज्य से प्रवाहित होने वाले सतही जल की मात्रा जहां 4,82,960 लाख क्युबिक मीटर है. अंतरराज्यीय समझौतों के हिसाब से छत्तीसगढ़ में उपयोगी सतही जल की उपलब्धतता  4,17,200 लाख क्युबिक मीटर है; वहीं भूजल उपलब्धता का आंकड़ा 1,45,480 लाख क्युबिक मीटर का है. छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के जलसंसाधन विभाग की वेबसाइट पर ब्लाॅकवार उपलब्धता के हिसाब से देखें तो छत्तीसगढ़ में 1,36,848 लाख क्युबिक मीटर भूजल ही उपलब्ध है. 

हालांकि, भूजल आंकड़े की यह भिन्नता संदेह पैदा करती है, किंतु उक्त आंकड़ों का सीधा संदेश यही है कि छत्तीसगढ़ के पास फिलहाल उसके भूजल की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक सतही जल है. छत्तीसगढ़ अभी 1,82,249 लाख क्युबिक यानी अपने उपलब्धता के आधे से भी कम सतही जल का उपयोग कर रहा है. लिहाजा, छत्तीसगढ़ को भूजल की तुलना में अपने सतही जल का उपयोग ज्यादा करना चाहिए. किंतु इसका यह संदेश कतई नहीं है कि छत्तीसगढ़ में रबी की फसल के दौरान भूजल की सिंचाई पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए. क्यों ? 

सवाल उठाते आंकड़े

भूजल उपलब्धता को लेकर खुद राज्य सरकार के आंकडे़ कहते हैं कि छत्तीसगढ़ के 146 ब्लाॅकों में से 138 ब्लाॅक अभी भी सुरक्षित श्रेणी में है. गुरुर, बालोद, साजा धामधा, पाटन, धमतड़ी और बिहा ब्लाॅक यानी कुछ छह ब्लाॅक ही सेमी क्रिटिकल श्रेणी में हैं. छत्तीसगढ़ का कोई ब्लाॅक क्रिटिकल (नाजुक) तथा ओवर ड्राफ्ट (अधिक जलनिकासी) वाली श्रेणी में दर्ज नहीं है. छत्तीसगढ़ अभी अपने उपलब्ध भूजल के 20 फीसदी से मामूली अधिक का ही इस्तेमाल कर रहा है. निस्संदेह, इस 20 फीसदी में से अन्य क्षेत्रों द्वारा उपभोग की तुलना में करीब 65 फीसदी का उपयोग अकेले सिंचाई हेतु ही हो रहा है. किंतु जब राज्य सरकार अपनी वेबसाइट पर यह आंकड़ा पेश करती है छत्तीसगढ़ के पास भावी कृषि विकास के लिए वर्तमान खपत के साढ़े चार गुना से अधिक यानी 1,06,692 लाख क्युबिक मीटर भूजल उपलब्ध है, तो इसका एक संदेश यह भी है कि छत्तीसगढ़ के कृषि क्षेत्र में कोई 'वाटर इमरजेंसी' नहीं है; न सतही जल सिंचाई की और भूमिगत जल सिंचाई की.

ऐसे में इस प्रश्न का उठना स्वाभाविक है कि आखिर अन्य ऐसी क्या आपात्स्थिति पैदा हो गई कि छत्तीसगढ़ शासन ने रबी फसल के लिए भूमिगत जल के उपयोग पर ही प्रतिबंध लगा दिया ? यदि यह प्रतिबंध सेमिक्रिटिकल ब्लाॅक तथा भूगर्भ की एक निश्चित गहराई से नीचे न जाने की रोक तक सीमित होता, तो भी मान लिया जाता कि राज्य सरकार इन ब्लाॅकों को भूजल के भावी संकट से बचाने के लिए कठोर, किंतु दूरदर्शी कदम उठा रही है. 

कितना व्यावहारिक प्रतिबंध ?

इस प्रतिबंध की व्यावहारिकता से जुड़ा प्रश्न यह है कि क्या छत्तीसगढ़ शासन ने प्रदेश के हर खेत की नाली तक सतही जल पहुंचाने की अनुशासित सिंचाई प्रणाली को इतना विकसित कर लिया है कि भूमिगत जल पर प्रतिबंध की स्थिति में भी हर खेत में खेती संभव व लाभकर होगी ? यदि नहीं, तो भविष्य में इसे भी नोटबंदी की तरह बिना तैयारी उठाया गया एक तुगलकी कदम करार दिया जायेगा. 

कारपोरेट सांठगांठ का आरोप

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि या तो छत्तीसगढ़ सरकार की वेबसाइट पर पेश भूजल उपलब्धता और उपयोग के आंकड़े झूठे हैं अथवा ज़मीनी हकीकत वास्तव में भूजल संकट की है. यदि उक्त दोनो ही स्थितियां नहीं है, तो आकलनकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचेगे ही कि प्रतिबंध लगाने के पीछे छत्तीसगढ़ राज्य सरकार की नीयत कुछ और है. नीयत से जुड़ा एक तथ्य यह है कृषि की तुलना में उद्योग ज्यादा तेजी और गहराई से भूजल का दोहन करते हैं. यदि भूमिगत जल से रबी की सिंचाई प्रतिबंधित की है, तो फिर अगले मानसून के आने से पहले तक औद्योगिक तथा व्यावसायिक मकसद हेतु भूजल उपयोग भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए था. राज्य सरकार ने ऐसा नहीं किया. क्यों ? 

छत्तीसगढ़ किसान सभा के महासचिव ऋषि गुप्ता का आरोप है यह प्रतिबंध कारपोरेट हितों से प्रेरित है, जो चाहते हैं कि किसान खेती छोड़कर शहरों में सस्ते मज़ूदर के रूप में उपलब्ध हों. किसान सभा का मानना है कि इस प्रतिबंध से किसानों की हालत और गिरेगी; किसान, आत्महत्या को मज़बूर होंगे. किसान सभा के नेता इस प्रतिबंध की एवज में 21 हजार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवजे की मांग कर रहे हैं.

मुआवजा नहीं समाधान

मुआवजा, कभी भी किसी संकट का दीर्घकालिक समाधान नहीं होता. इसे हमेशा तात्कालिक राहत के रूप में ही लिया जाना चाहिए. किंतु दुखद है कि मामला चाहे भूमि अधिग्रहण का हो अथवा बाढ़-सुखाड़ का, भारत के किसान संगठन, किसानों को मुआवजा दिलाकर ही सदैव संतुष्ट होते दिखे हैं. उन्हे समस्या की तह में जाना चाहिए और उसके समाधान के लिए पूरी मुस्तैदी व एकता के साथ सक्रिय होना चाहिए. 

किसान और भूजल : दोनो की सुरक्षा ज़रूरी

उन्हे गौर करना चाहिए कि बहुत संभव है कि छत्तीसगढ़ शासन का यह फरमान, किसानों को सतही सिंचाई प्रणाली में पूरी तरह बांधकर, भविष्य में सिंचाई के पानी के बदले मोटा शुल्क वसूलने के षडयंत्र की तैयारी का हिस्सा हो. नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजी हुकूमत ने भी कभी इसी मकसद से भारत में सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई और नहरी सिंचाई प्रणाली को विकसित किया था. 

भारत में पानी के बाज़ार लगातार बढ़ रहा है. जलापूर्ति करने वाली कंपनियां आज दुनिया की सबसे अमीर कंपनियों में शुमार हैं. घोटाले बताते हैं कि पानी का अपना धंधा बढ़ाने के लिए वे नौकरशाही व राजनेताओं को घूस देने से भी नहीं चूकते. भूलना नहीं चाहिए कि कभी इसी छत्तीसगढ. में शिवनाथ नदी की मालिकी, रेडियस नामक एक कपंनी को सौंप दी गई थी. छत्तीसगढ़, भारत में ऐसा करने वाले प्रथम राज्य के रूप में दर्ज है. यदि आज भूमिगत जल के इस प्रतिबंध का मकसद, प्रदेश की सिंचाई व्यवस्था को पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (पीपीपी) के तहत् साझेदारों के हवाले कर कुछ मलाई हासिल करना हो; तो क्या ताज्जुब ? छत्तीसगढ़ के आसन्न विधानसभा चुनाव में चंदे की दरकार व भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचारियों की पैठ को देखते हुए क्या इस संभावना से पूरी तरह इंकार किया जा सकता है ?  

पहले पड़ताल, तब निर्णय

कहना न होगा कि भूमिगत जलोपयोग पर प्रतिबंध संबंधी इस फरमान के पीछे छिपे असल एजेण्डे की पड़ताल बेहद जरूरी है. यदि यह सचमुच कोई षडयंत्र अथवा षडयंत्र की तैयारी है, तो संगठनों को चाहिए कि वे जल व जलोपयोग संबंधी ज़मीनी तथ्यों को सामने रखकर षडयंत्र का पर्दाफाश करें. यदि यह फरमान सचमुच सही समय पर अच्छी नीयत से जारी किया गया दूरदर्शी कदम हो, तो क्या किसान, क्या उद्योगपति, क्या व्यवसायी और क्या पानी के घरेलु उपभोक्ता... सभी को चाहिए कि वह भावी भूजल संकट से निपटने के लिए अपने-अपने हिस्से की तैयारी अभी से शुरु कर दें. यदि यह फरमान खेती के लिए अनुकूल सतही जल प्रणाली विकसित किए बिना तैयार किए बिना जल्दबाजी में लिया गया एक अच्छा फरमान है, तो राज्य सरकार को चाहिए कि वह किसानों को इसके लिए तैयार होने का पूरा वक्त दे. 

धान की बात

रही बात धान पर प्रतिबंध की, तो इस बात से भला कौन इंकार कर सकता है कि धान जैसी ज्यादा पानी पीने वाली फसलों को जलभराव से त्रस्त इलाकों में ले जायें तथा बाजरा, मक्का, मूंग उड़द और तिल जैसी कम पानी की फसलों को जलाभाव क्षेत्रों में ले आयें. यह जलवायु परिवर्तन की भी मांग है और कृषि सुरक्षा की भी.

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