नई दिल्ली. एक अध्ययन से पता चलता है कि कार्बन उत्सर्जन में तात्कालिक तौर से कटौती न करने की वजह से G20 देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है, और करना पड़ेगा.
इस नए अध्ययन में , G20 क्लाइमेट इम्पैक्ट्स एटलस वैज्ञानिक अनुमानों को एकत्रित करता है कि आने वाले वर्षों में दुनिया के सबसे अमीर देशों में जलवायु प्रभाव कैसे होगा. यह पाया गया है कि अधिक उत्सर्जन से जलवायु प्रभाव तेजी से बढ़ेगा जो G-20 को ऐसी क्षति का कारण बनेगा जो विनाशकारी होगा.
शोध में मुख्य रूप से यह बातें पता चली हैं:
1. सूखे, आग, गर्म हवा और बाढ़ ने 30 साल के भीतर दुनिया की सबसे अमीर अर्थव्यवस्थाओं को अस्त-व्यस्त कर दिया है.
2. कृषि, पर्यटन और तटीय क्षेत्र ज्यादातर जोखिम में हैं जो खाद्य आपूर्ति, लाखों आजीविका और राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद को वर्ष 2100 तक 13% की हानि पंहुचा सकते हैं.
3. सबसे खराब प्रभावों को टालने और अर्थव्यवस्थाओं को स्थिर करने के लिए तेजी से उत्सर्जन में कटौती की आवश्यकता है.
4. जलवायु परिवर्तन पर इटली की प्रमुख अनुसंधान केंद्र और आईपीसीसी के लिए राष्ट्रीय फोकल प्वाइंट, यूरो-मेडिटेरेनियन सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज (सीएमसीसी) की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, उत्सर्जन को कम करने के लिए तत्काल कार्रवाई के बिना, जलवायु प्रभाव G-20 देशों को पर कर जायेगा.
इस शोध से पता चलता है कि बढ़ते तापमान और गर्म हवाओं से गंभीर सूखे पड़ सकते है; कृषि के लिए आवश्यक जल आपूर्ति को खतरा, मानव जीवन की भारी हानि और घातक आग की संभावना बढ़ेगी. विशिष्ट देशों में, इसका अर्थ यह हो सकता है.
सभी G20 देशों में हीटवेव कम से कम दस गुना अधिक समय तक चल सकती है, अर्जेंटीना, ब्राजील और इंडोनेशिया में हीटवेव 2050 तक 60 गुना अधिक समय तक चल सकती है.
भारत में, चावल और गेहूं के उत्पादन में गिरावट से €81 बिलियन तक का आर्थिक नुकसान हो सकता है और 2050 तक किसानों की आय का 15% का नुकसान हो सकता है.
ऑस्ट्रेलिया में, बुशफायर, तटीय बाढ़ और तूफान, बीमा लागत बढ़ा सकते हैं और संपत्ति के मूल्यों को 2050 तक $ 611 बिलियन AUD तक कम कर सकते हैं.
रिपोर्ट में पाया गया है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए तत्काल कार्रवाई न होने के कारण, G20 देशों में जलवायु क्षति के कारण जीडीपी का नुकसान हर साल बढ़ता है, जो 2050 तक सालाना कम से कम 4% तक बढ़ जाता है. यह वर्ष 2100 तक 8% से ऊपर चला जायेगा, जो कि कोविड-19 से हुए जी-20 के आर्थिक नुकसान के दोगुने के बराबर है. कुछ देश इससे भी बुरी तरह प्रभावित होंगे, जैसे कि कनाडा, जो 2050 तक अपनी जीडीपी में कम से कम 4% की गिरावट हो सकती है और वर्ष 2100 तक 13% जो की €133 बिलियन से अधिक हो सकता है.
देशों पर पड़ने वाले प्रभावों में शामिल हैं:
1. 2036-2065 तक हीटवेव 25 गुना से अधिक समय तक चलेगी यदि उत्सर्जन 4 डिग्री सेल्सियस अधिक रहे है, और पर पांच गुना से अधिक होगी अगर वैश्विक तापमान वृद्धि लगभग 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित की जाये और वृद्धि केवल डेढ़ गुना अधिक होगी अगर तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस होगी अगर उत्सर्जन बहुत कम होगा.
2. यदि ये मान लिया जाये की पर्याप्त पानी और पोषक तत्वों की आपूर्ति बनी रहे, कीड़ों, बीमारियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, या बाढ़ या तूफान जैसी घटनाओं और इसमें CO2 फर्टीलिज़ेशन को शामिल नहीं करते हैं,फिर भी भारत में गन्ना, चावल, गेहूं और मक्का की पैदावार पर गर्म जलवायु प्रभाव डालेगी . वास्तव में, इन शर्तों को पूरा नहीं किया जा सकता है, उदाहरण के लिए 2050 तक कृषि के लिए पानी की मांग लगभग 29% बढ़ने की संभावना है - जिसका अर्थ है कि उपज के नुकसान को कम करके आंका जा रहा है .
3.इसके अलावा, यदि वैश्विक तापमान 4 डिग्री सेल्सियस के पथ पर है तो 2036-2065 तक कृषि में सूखा की बारम्बारता 48% अधिक बढ़ जाएगी, 2°C पथ पर है जो की पेरिस समझौते द्वारा सहमत अधिकतम तापमान है तो यह 20% तक गिर सकती है, और तापमान अगर 1.5°C (पेरिस समझौते का आकांक्षात्मक लक्ष्य) तक सीमित हो जाता है तो ये बारम्बारता 13 % तक हो जाएगी.
4.यदि उत्सर्जन कम है तो संभावित मछली पकड़ने में 2050 तक 8.8% की गिरावट आ सकती है, और यदि वे अधिक हैं तो 17.1% गिर सकती हैं.
5.अगर उत्सर्जन अधिक होता है तो 18 मिलियन से कम भारतीयों को 2050 तक नदी में बाढ़ का खतरा हो सकता है, जबकि आज यह 1.3 मिलियन है.
6.गर्मी में वृद्धि के कारण 2050 तक कम उत्सर्जन के परिदृश्य के अंतर्गत कुल श्रम 13.4% और मध्यम उत्सर्जन परिदृश्य के तहत 2080 तक 24% घटने की उम्मीद है.
डॉ मिशेल टिग्चेलार, स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के अनुसार "इस एटलस में प्रस्तुत आंकड़े ये संकेत देते है की कि जलवायु परिवर्तन जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित कर रहा है - चाहे वह हमारा स्वास्थ्य हो, हमारी खाद्य आपूर्ति हो, या हमारे जीवन यापन के तरीके हों. यहां से, सभी G20 देशों में निर्णय लेने वाले व्यापक तरीके से देख सकते है और कंकररेंट हीट स्ट्रोक्स , सीमाओं, समुद्र के स्तर में वृद्धि, जंगल की आग के धुएं और अन्य जलवायु परिवर्तन खतरों से निपटने के लिए अनुकूलन निवेश की सबसे अधिक आवश्यकता वाले समुदायों की पहचान कर सकते हैं. ”
"ये अनुमान मोटे तौर पर हाल के शोध के अनुरूप हैं जो पाता है कि" गैर-विनाशकारी "जलवायु परिवर्तन परिदृश्य भी सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से अविश्वसनीय रूप से महंगा होने की संभावना है. 2050 तक सकल घरेलू उत्पाद का 2-4% सालाना नुकसान - वे छोटी संख्या नहीं हैं, खासकर जब से हम अमेरिका जैसी समृद्ध विकसित अर्थव्यवस्थाओं के बारे में बात कर रहे हैं. डॉ जीसुंग पार्क, यूसीएलए के अनुसार, "वे न केवल देशों में, बल्कि भीतर भी जलवायु परिवर्तन प्रभावों में जबरदस्त परिवर्तनशीलता को उजागर करते हैं. अमेरिका के कुछ हिस्सों को दूसरों की तुलना में और अलग-अलग तरीकों से गंभीर तरीके से प्रभावित होने की उम्मीद है. "
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-जलवायु आपातकाल बढ़ा रहा है गरीब देशों पर क़र्ज़
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