बलराम जयंती या हल षष्ठी व्रत महात्म्य विधि और कथा

बलराम जयंती या हल षष्ठी व्रत महात्म्य विधि और कथा

प्रेषित समय :20:46:35 PM / Tue, Aug 16th, 2022

भगवान कृष्ण के बड़े भाई यानी बलराम को बलदेव, बलभद्र आदि नामों से जाना जाता है. इस साल की बात की जाए तो बलराम जयंती  17 अगस्त 2022, बुधवार को है. हल षष्ठी को बलराम जयंती ) के नाम से भी जाना जाता है. 

रक्षा बंधन या श्रावण पूर्णिमा के ठीक छह दिन बाद, भारत में हिंदू हर छठ या हल षष्ठी व्रत मनाते हैं. यह पारंपरिक हिंदू कैलेंडर में भाद्रपद के महीने के दौरान कृष्ण पक्ष की षष्ठी पर मनाया जाता है. पारंपरिक हिंदू कैलेंडर में एक महत्वपूर्ण त्योहार, हल षष्ठी भगवान बलराम की जयंती पर मनाया जाता है, जो श्री कृष्ण के बड़े भाई हैं. भगवान बलराम के जन्म को मनाने वाले त्योहार के भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग नाम हैं. राजस्थान में इसे चंद्र षष्ठी के नाम से जाना जाता है, जबकि गुजरात में इसे रंधन छठ के नाम से जाना जाता है और ब्रज क्षेत्र में इसे बलदेव छठ कहा जाता है. माता देवकी और वासुदेव जी की सातवीं संतान, भगवान बलराम को भी अधिशेष के अवतार के रूप में पूजा जाता है, जिस नाग पर भगवान विष्णु विश्राम करते हैं. हलछठ को हलषष्ठी, ललई छठ भी कहा जाता है. इस साल हलषष्ठी का त्योहार मंगलवार, 17 अगस्त को मनाया जाएगा. यह त्योहार भगवान श्री कृष्ण के भाई दाऊ की जयंती के रूप में मनाया जाता है. इस दिन को बलराम जयंती भी कहा जाता है. इस दिन व्रत करने से मिला पुण्य संतान को संकटों से मुक्ति मिलती है.

षष्ठी तिथि प्रारंभ – मंगलवार, 16 अगस्त, 2022 – 08:17 अपराह्न
षष्ठी तिथि समाप्त – बुधवार, 17 अगस्त, 2022 – 08:24 अपराह्न

 भगवान वासुदेव के ब्यूह या स्वरूप हैं. उनका कृष्ण के अग्रज और शेष का अवतार होना ब्राह्मण धर्म को अभिमत है.  बलराम या संकर्षण का पूजन बहुत पहले से चला आ रहा था, पर इनकी सर्व प्राचीन मूर्तियाँ मथुरा और ग्वालियर के क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं. ये शुंगकालीन हैं. कुषाणकालीन बलराम की मूर्तियों में कुछ व्यूह मूर्तियां अर्थात् विष्णु के समान चतुर्भुज प्रतिमाएं हैं और कुछ उनके शेष से संबंधित होने की पृष्ठभूमि पर बनाई गई हैं. ऐसी मूर्तियों में वे द्विभुज हैं और उनका मस्तक मंगल चिह्नों से शोभित सर्पफणों से अलंकृत है. बलराम का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है और बाएँ में मदिरा का चषक है. बहुधा मूर्तियों के पीछे की ओर सर्प का आभोग दिखलाया गया है. कुषाण काल के मध्य में ही व्यूह मूर्तियों का और अवतार मूर्तियों का भेद समाप्तप्राय हो गया था, परिणामत: बलराम की ऐसी मूर्तियाँ भी बनने लगीं जिनमें नागफणाओं के साथ ही उन्हें हल मूसल से युक्त दिखलाया जाने लगा. गुप्तकाल में बलराम की मूर्तियों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ. उनके द्विभुज और चतुर्भुज दोनों रूप चलते थे. कभी-कभी उनका एक ही कुंडल पहने रहना "बृहत्संहिता" से अनुमोदित था. स्वतंत्र रूप के अतिरिक्त बलराम तीर्थंकर नेमिनाथ के साथ, देवी एकानंशा के साथ, कभी दशावतारों की पंक्ति में दिखलाई पड़ते हैं.
जन्म
बलराम का जन्म यदूकुल में हुआ. कंस ने अपनी प्रिय बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वसुदेव से विधिपुर्वक कराया.
जब कंस अपनी बहन को रथ में बिठा कर वसुदेव के घर ले जा रहा था तभी आकाशवाणी हुई और उसे पता चला कि उसकी बहन का आठवाँ संतान ही उसे मारेगा.
कंस ने अपनी बहन को कारागार  में बंद कर दिया और क्रमश: 6 पुत्रों को मार दिया, 7वें पुत्र के रूप में नाग के अवतार बलराम जी थे जिसे श्री हरि ने योगमाया से रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया.
आठवें गर्भ में कृष्ण थे.
परिचय
बलभद्र या बलराम श्री कृष्ण के सौतेले बड़े भाई थे जो रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे. बलराम, हलधर, हलायुध, संकर्षण आदि इनके अनेक नाम हैं. बलभद्र के सगे सात भाई और एक बहन सुभद्रा थी जिन्हें चित्रा भी कहते हैं. इनका ब्याह रेवत की कन्या रेवती से हुआ था. कहते हैं, रेवती 21 हाथ लंबी थीं और बलभद्र जी ने अपने हल से खींचकर इन्हें छोटी किया था.
इन्हें नागराज अनंत का अंश कहा जाता है और इनके पराक्रम की अनेक कथाएँ पुराणों में वर्णित हैं. ये गदा युद्ध में विशेष प्रवीण थे. दुर्योधन इनका ही शिष्य था. इसी से कई बार इन्होंने जरासंध को पराजित किया था. श्रीकृष्ण के पुत्र शांब जब दुर्योधन की कन्या लक्ष्मणा का हरण करते समय कौरव सेना द्वारा बंदी कर लिए गए तो बलभद्र ने ही उन्हें दुड़ाया था. स्यमंतक मणि लाने के समय भी ये श्रीकृष्ण के साथ गए थे. मृत्यु के समय इनके मुँह से एक बड़ा साँप निकला और प्रभास के समुद्र में प्रवेश कर गया था.
बलराम जयंती का महत्व
बलराम जयंती का पर्व भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन मनाया जाता है. शास्त्रों के अनुसार द्वापर युग में शेषनाग ने भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम के रूप में जन्म लिया था. बलराम का अस्त्र हल है इसलिए बलराम को हलधर भी कहा जाता है. इसके अलावा बलराम ने मूसल को भी धारण किया है. बलराम जयंती के अन्य नाम भी है. इस जयंती को हलषष्ठी और हरछठ भी कहा जाता है. बलराम जयंती के दिन धरती से पैदा होने वाले अन्न को ग्रहण किया जाता है. इस जयंती को दूध और दही का सेवन नहीं किया जाता. यह दिन संतान संबंधी परेशानियों के लिए भी उत्तम माना जाता है. जिन महिलाओं को संतान की प्राप्ति नहीं होती वह इस व्रत को पूरे विधि विधान से करती हैं. संतान संबंधी परेशानियों के निवारण के लिए बलराम जयंती काफी शुभ मानी जाती है.
बलराम कौन थे
पुराणों के अनुसार बलराम को भगवान श्री कृष्ण का बड़ा भाई माना जाता है. बलराम शेषनाग के ही अवतार थे. बलराम को अत्याधिक शक्तिशाली भी माना जाता था. बलराम ने ही दुर्योधन और भीम को गदा युद्ध सिखाया था. बलराम भी श्री कृष्ण की तरह ही देवकी की संतान थे. बलराम देवकी की संतान थे. कंस देवकी के सभी बच्चों की हत्या कर देता था. देवकी और वासुदेव के तप के बल पर यह सातवां गर्भ वासुदेव की पहली पत्नी के गर्भ में स्थापित हो गया. लेकिन वासुदेव की पहली पत्नी के आगे यह समस्या थी कि वह इस बच्चे को कैसे पाले. क्योंकि उस समय वासुदेव कंस की करागार में बंद थे. इसलिए बलराम के जन्म लेते ही उन्हें नंद बाबा के यहां पलने के लिए भेज दिया.
बलराम जयंती पूजा विधि
1.बलराम जयंती के दिन महिलाओं को महुआ की दातुन से दांत साफ करने चाहिए.
2.इस दिन पूरे घर को भैंस गोबर से लीपा जाता है.
3.बलराम जयंती के दिन भगवान गणेश और माता गौरा कि पूजा की जाती है.
4.बलराम जयंती पर महिलाएं तालाब के किनारे या घर में ही तालाब बनाकर, उसमें झरबेरी, पलाश और कांसी के पेड़ लगाती हैं.
5.अतं मे महिलाएं बलराम जयंती की कथा सुनती हैं.

बलरामजी का प्रधान शस्त्र हल तथा मूसल है. इसलिए उन्हें हलधर भी कहते हैं. उन्हीे के नाम पर इस पर्व का नाम हल षष्ठी कहा जाता है. हमारे देश के पूर्वी जिलों में इसे ललई छट भी कहते हैं. इस दिन महुए की दातुन करने का विधान है. इस व्रत में हल द्वारा जुला हुआ फल तथा अन्न का प्रयोग वर्जित होता है. इस दिन गाय का दूध दही का प्रयोग भी वर्जित है. भैंस का दूध व दही प्रयोग किया जाता है.

पूजा विधान
ठस दिन प्रातःकाल स्नानादि के पश्चात् पृथ्वी को लीपकर एक छोटा सा तालाब बनाया जाता है जिसमें झरबेरी, पलाश, गूलर की एक-एक शाखा बाँधकर बनाई गई हर छट को गाड़ देते हैं और इसकी पूजा की जाती है. पूजन में सतनजा (गेहूँ, चना, धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, जौ) आदि का भुना हुआ लावा चढ़ाया जाता है. हल्दी में रंगा हुआ वस्त्र तथा सुहाग सामग्री भी चढ़ाई जाती है.

पूजन के बाद निम्न मंत्र से प्रार्थना की जाती है -

गंगा के द्वारे पर कुशावते विल्व के नील पर्वते.
स्नात्या कनखले देवि हरं सन्धवती पतिम्..
ललिते सुभगे देवि सुख सौभाग्य दायिनी.
अनन्त देहि सौभाग्यं मह्मं तुभ्यं नमो नमः..

अर्थ - हे देवी! टापने गंगाद्वार, कुशावर्त, विल्वक, नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त किया है. सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बारम्बार नमस्कार है, आप मुझे अचल सुहाग दीजिये.

हल षष्ठी कथा
एक गर्भवती ग्वालिन  के प्रसव का समय समीप था. उसे प्रसव पीड़ा होने लगी थी. उसका दही-मक्खन बेचने के लिए रखा हुआ था. उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो दही-मक्खन बिक नहीं पायेगा. यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई. वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया.

वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई. संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी. गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया. उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था. अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया.

इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया. उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया. कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची. बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है. वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती. अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए.

ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था. वह गली-गली घूमकर अपने दूध-दही के बारे में बताया और उसके फलस्वरूप मिले दंड का के बारे भी बताया. तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर, उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया. बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है. तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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