द्वारिका: जिसने कान्हा को श्रीकृष्ण बनाया

द्वारिका: जिसने कान्हा को श्रीकृष्ण बनाया

प्रेषित समय :19:04:01 PM / Wed, Aug 17th, 2022

-संगीता पांडेय 

जन्माष्टमी आसन्न है. मथुरा, वृंदावन, गोकुल तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सराबोर रहते ही हैं, पूरा देश जन्म अष्टमी पर एकसाथ उद्घोष भी करता है और पूरे भावप्रेम से आसमान गूँज उठता है-- नन्द के घर आनन्द भयो जय कन्हैया लाल की...! ऐसा दिव्य तथा अलौकिक आनन्दमयी वातावरण शायद ही किसी अन्य देश में देखने को मिलता हो, यह भारत की पुण्यभूमि के भाग्य में ही लिखा है. भारत ही वो भूमि है जहाँ ईश्वर ने अवतार लिया,या यह कह लें कि भारत भूमि ही ईश्वर की प्रिय भूमि है. इसीलिए भारत को ही ईश्वर ने अपनी जन्मभूमि होने का गौरव प्रदान किया है. यहां हर काल में ईश्वर ने जन्म लिया है. हिंदू धर्म ग्रंथो में सबसे पवित्र ग्रंथ गीता में श्री कृष्ण ने कहा भी है---

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत. 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् .. 

परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् .

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे.. 

अर्थात 
जब-जब धर्म का विनाश होगा और अधर्म का उत्थान होगा, तब-तब लोगों के उद्धार के लिए मैं जन्म लूंगा और बुरे कर्म करने वालों का संघार करूंगा .धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता रहूंगा.

मथुरा से द्वारिका के मध्य अपने पूरे जीवनकाल में श्रीकृष्ण ने भारत को एक ऐसे दर्शन में बांध दिया, जिसकी वजह से भारत ने सम्पूर्ण जगत को ज्ञान और कर्मयोग की अद्भुत दृष्टि प्रदान की है. जीवन के हर एक पहलू को मानो मनुष्य के सम्मुख विस्तारपूर्वक उघाड़ दिया हो ताकि मनुष्य अपने जीवन को सफल व साकार कर सके. बहरहाल, कलयुग में श्री राम और श्री कृष्ण ही ऐसे नाम हैं जो मनुष्य का उद्धार कर सकते हैं. श्रीराम ने अपने जीवन में मर्यादा का पालन किया और मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए. लोगों से सुना है कि राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे. वहीं श्री कृष्ण 16 कलाओं के ज्ञाता थे. कृष्ण इस धरती पर पूर्ण पुरुष थे . इन्होंने जो भी लीलाएं की हैं उसके द्वारा लोगों का उद्धार ही हुआ है. इनकी लीलाओ ने लोगों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है. बालक के रूप में तो कृष्ण की लीलाओं के वर्णन मात्र से ही लोगों में वात्सल्य के भाव भर आते हैं . इन्होंने बाल्यकाल में ही न जाने कितने असुरों का वध किया. माखन चुराकर माखन चोर के रूप में विख्यात हुए . किशोरावस्था में गोपियों के संग रास रचाया और उनका उद्धार किया. वे कृष्ण ही थे जिन्होने गोवर्धन पर्वत उठाकर इंद्र से लोगों की रक्षा की. गुरु संदीपनी के पुत्र के लिए यमराज से भी लड़ गए. श्रीकृष्ण ने जीवनपर्यंत सबकी सहायता की. कर्म से विचलित अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया.

 कृष्ण ने बिना शस्त्र उठाए महाभारत युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई. श्री कृष्ण ने लोगों की रक्षा के लिए रणछोड़ नाम को भी स्वीकार किया. इस नाम के पीछे की कथा इस प्रकार है--- " जब श्रीकृष्ण ने अपने मामा कंस का वध कर दिया तब कंस का श्वसुर जरासंध बहुत क्रोधित हुआ था . जरासंध और कालयवन मथुरा और गोकुल पर बराबर आक्रमण करते रहते थे. आगे के संघर्ष से बचने के लिए भगवान कृष्ण पूरे यादव समुदाय को लेकर सौराष्ट्र में स्थित गिरनार पर्वत पर चले आए और युद्ध को छोड़ने के कारण रणछोड़ के नाम से भी जाने गए . "
मथुरा और गोकुल को छोड़ने के बाद श्री कृष्ण ने ओखा बंदरगाह के पास अपने राज्य की स्थापना की और इस नगरी को अपनी राजधानी एवं निवास स्थान बनाया. द्वारका जो ईश्वर तक पहुंचने का द्वार है को देवारावती,कुशस्थली के नाम से भी जाना जाता है. इस जगह पर अपनी नगरी बसाने के लिए कृष्ण ने विश्वकर्मा की मदद ली थी. विश्वकर्मा ने नगरी के लिए जगह छोटी होने की बात की तो भगवान कृष्ण ने समुद्र को बारह योजन दूर हट जाने की विनती की और समुद्र देव ने उस मांग को स्वीकार कर बारह योजन दूर हट गये. फिर वहां द्वारिका नगरी की स्थापना हुई . श्रीकृष्ण के देहोत्सर्ग के बाद केवल मंदिर को छोड़कर पूरी द्वारका समुद्र में समा गई. 

अभी जो द्वारिका में मंदिर है उसको भी कई बार तोड़ा और निर्मित किया गया है. ऐसी लोक मान्यता है कि कृष्ण के वंश में चौथी पीढ़ी के बज्रनाभ ने अपने पितामह की याद में इस मंदिर का निर्माण कराया था. वर्तमान में हम जिस मंदिर के दर्शन करते हैं वो आठवीं सदी के महान विद्वान आदि गुरु शंकराचार्य 
द्वारा पुनर्निर्मित कराया गया है. यह ग्रेनाइट और सैंड स्टोन से बना है. यह मंदिर नागरा वस्तु कला शैली का बेजोड़ उदाहरण है. मंदिर का मंडप खुला एवं पांच मंजिला है, जिसे चूना के पत्थरों से 72 स्तंभों पर रचाया गया है. परिसर से मंदिर की 172 फीट ऊंचाई पर लगा ध्वज दंड पर (40 मीटर) 52 गज की ध्वजा जी हरपल लहराता है. मंदिर के दीवारों पर विभिन्न देवी- देवताओं और पशु पक्षियों की कलाकृतियां बनी हैं . इस मंदिर में जो प्रतिमा है उसे द्वारिका वासी राजा की तरह पूजते हैं.      

मंदिर की अपनी दिनचर्या है. सब कुछ समयानुसार होता है. यहां द्वारिकाधीश को 11 बार भोग लगाया जाता है . चार बार उनकी आरती होती है. सुबह मंगला आरती से द्वारिकाधीश को जगाया जाता है और शृंगार आरती में सजाया जाता है दोपहर के बाद संध्या आरती होती है और शयन आरती के बाद उन्हें सुलाया जाता है.

कृष्ण की यह नगरी भारत के प्राचीन नगरों में से एक है. हमेशा से यह मंदिर श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है. आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार धामों में से इसे एक धाम माना जाता है. भारतीय धर्म ग्रंथों में बद्रीनाथ, द्वारिका, जगन्नाथ पुरी और रामेश्वरम को चार धाम कहा गया है जो कि भारत में पूरब,पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में व्याप्त हैं. इसमें पूर्व में जगन्नाथ पुरी पश्चिम में द्वारिका उत्तर में बद्रीनाथ और दक्षिण में रामेश्वरम् स्थित हैं .

द्वारिका को सप्तपुरी में भी शामिल किया गया है . सप्तपुरी में ये सात शहर अयोध्या, मथुरा,द्वारिका, वाराणसी, हरिद्वार,उज्जैन और कांचीपुरम् हैं. द्वारिका मंदिर पर हमेशा लहराता हुआ 52 गज का ध्वज रोजाना पांच बार बदला जाता है. मंदिर का ध्वज यह दर्शाता है कि जब तक सूरज चांद रहेगा तब तक श्री कृष्ण इस पृथ्वी पर 
रहेंगे . 

द्वारिका में द्वारिकाधीश मंदिर के अलावा श्री रुक्मणी मंदिर, श्री गोमती घाट, श्री छप्पन सीढ़ी मंदिर , श्री पंचतीर्थ, श्री प्राचीन कुशेश्वर मंदिर, श्री हरी कुंड, श्री गोपाल घाट, श्री गीता मंदिर, श्री भद्रकाली मंदिर , श्री संगम घाट, श्री शारदा पीठ ,श्री सरस्वती मंदिर, श्री सिद्धेश्वर मंदिर, श्री अखंड रामधुन मंदिर, श्री गायत्री मंदिर, श्री जलाराम मंदिर, श्री बेट द्वारका मंदिर, श्री नागेश्वर मंदिर, गोपी तालाब ,हनुमान डांडी, चौरासी धूनी आदि देखने योग्य स्थल हैं.

श्री द्वारकाधीश मंदिर में द्वारकाधीश की एक मीटर ऊंची, चतुर्भुज विष्णु स्वरूप श्याम मूर्ति है. मंदिर परिसर में प्रवेश हेतु दो द्वार हैं- उत्तर प्रवेश द्वार को मोक्ष द्वार कहते हैं. 
दक्षिण प्रवेश द्वार को स्वर्गद्वार कहते हैं. यहीं 56 सीढ़ियां भी हैं. हरि-गृह (भगवान कृष्ण के आवासीय स्थान) पर जो मंदिर है. उस मंदिर परिसर में श्री कृष्ण का पूरा परिवार मूर्ति स्वरूप में विद्यमान है. भगवान कृष्ण के सामने माता देवकी हैं. पीछे रानी निवास में उनकी पत्नियां हैं , बाएं ओर दाऊ( बलराम जी) और दाएं ओर उनके पुत्र और पौत्र प्रद्युम्न और अनिरुद्ध जी हैं. आज भी द्वारिका वासी श्री कृष्ण को राजा की तरह पूजते हैं.

भक्तगण गोमती घाट में स्नान कर मंदिर परिसर में जाकर भगवान के दर्शन एवं पूजन अर्चन करते हैं. वैसे तो द्वारिका में देखने योग्य बहुत से स्थान है पर कुछ ऐसे स्थान हैं जहां लोगों को जरुर जाना चाहिए.

पंचनंदा तीर्थ - द्वारिका से कुछ ही दूरी पर पंचनंदा तीर्थ है. यहां जानें के लिए हमें गोमती घाट के पास के बड़े से पुल जिसे सुदामा सेतु कहते हैं, से होकर उस पार जाना पड़ता है. यहां पांच कुएं बने हैं जिसमें हर कुएं के पानी का स्वाद अलग-अलग है . इन पांचों कुओं को पांच पांडवों के नाम पर बनाया गया है . 
इस तीर्थ के पास ही श्री स्वामी नारायण जी का भी एक बहुत ही सुंदर मंदिर है. स्वामी नारायण जी को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में देखा जाता है. मंदिर के पास ही एक बहुत ही बड़ा सुंदर वृक्ष है ऐसी लोक मान्यता है कि इस वृक्ष के नीचे दुर्वासा ऋषि तपस्या करते थे .

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग- द्वारिका से लगभग 17 किलोमीटर की दूरी पर नागेश्वर ज्योतिर्लिंग है ,जोकि महादेव का मंदिर है . यह ज्योतिर्लिंग शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है. 
   गीता मंदिर -द्वारिका से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर गीता मंदिर है, जो भगवतगीता और उसकी शिक्षा के लिए समर्पित है.

गोपी तालाब- यह द्वारिका से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित है. यहां पर गोपियों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए जल समाधि ली थी . ऐसी लोक मान्यता है कि सभी गोपियां पीली मिट्टी में बदल गई . लोग इसे गोपी चंदन कह कर अपने माथे पर लगाते हैं. 

रुक्मणी मंदिर- रुक्मणी जी का यह मंदिर द्वारिका से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण रुक्मणी जी को कृष्ण से 12 वर्षों तक दूर रहना पड़ा था. इसके साथ ही दुर्वासा ऋषि ने द्वारिका में पीने योग्य पानी न मिलने और अनाज न पैदा होने का भी श्राप दिया था. इस श्राप का कारण यह था कि जब दुर्वासा ऋषि को श्री कृष्ण और रुक्ष्मणी जी ने नेवता दिया कि हमने विवाह किया है आप द्वारिका आकर भोजन आदि कर हमें आशीर्वाद दें. दुर्वासा ऋषि ने उनके सामने यह शर्त रखी थी कि मेरे रथ में आप दोनों पति-पत्नी जुड़कर अगर खींचेंगे तभी मैं द्वारिका आऊंगा . तब दोनों जन श्रीकृष्ण और माता रुक्मणी रथ को खींचने के लिए तैयार हुए. रुक्मणी जी को कुछ दूर रथ खींचने के पश्चात अत्यधिक प्यास लगी उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा. श्री कृष्ण ने अपने दाहिने पैर का अंगूठा जमीन में दबाया जिससे वहां गंगा की धारा निकली. इस धारा से श्री कृष्ण ने माता को पानी पिलाया. उन्होंने पीछे बैठे दुर्वासा ऋषि को नहीं पूछा. इस पर वे क्रोधित हो गए और कृष्ण को श्राप दिया कि आपकी नगर में पीने योग्य पानी नहीं मिलेगा ना वहां अन्न ही पैदा होगा.

आज भी द्वारिका में बारिश के पानी को स्टोर कर पीने के लिए उपयोग में लाया जाता है. इस क्षेत्र के अगल- बगल में भी न तो खेती होती है न पीने योग्य पानी ही मिलता है.
  बेट द्वारका - यह द्वारिका से लगभग 32 किलोमीटर दूरी पर स्थित है. यहां पर भगवान श्री कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा से भेंट की थी. यहां पर दोनों मित्रों कृष्ण, सुदामा की प्रतिमाओं की पूजा की जाती है. ऐसी लोक मान्यता है कि बिना बेट द्वारिका गए द्वारिका की आपकी यात्रा पूर्ण नहीं होती है . इस मंदिर में चावल दान करने की भी परंपरा है.
  द्वारिका में अरब सागर का बीच भी श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहता है. यहां पर लोग सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा देखने के लिए पहुंचते हैं. 

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि कृष्ण की नगरी द्वारिका पुरातन काल से ही न केवल तीर्थ स्थल है बल्कि इसका पर्यटन महत्व भी रहा है. इन सबके अतिरिक्त जो सबसे बड़ी बात है या जो कहा जा सकता है कि द्वारिका ने ही कान्हा को श्रीकृष्ण बना दिया था, एक राजा के रूप में. मथुरा से प्रारम्भ हुआ जीवन द्वारिका आते आते इतने संघर्षों, इतने तूफानों में बदल गया कि स्वयं कृष्ण अपने कान्हा रूप को मथुरा, वृंदावन में छोड़कर आए तो उसके बाद वे वहां लौटे ही नहीं.

सम्भवतः एक राजा के रूप में श्रीकृष्ण को प्रेम नगरी वृंदावन कैसे अपनाती ? वहां तो श्रीकृष्ण कान्हा के रूप में ही हृदय में बसे हुए हैं.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

पत्नी की लंबी उम्र के लिए पति रखते हैं अशून्य शयन व्रत, जानिए पूजन विधि एवं कथा

सावन में बाबा विश्वनाथ का दर्शन-पूजन हुआ महंगा, सभी व्यवस्थाओं में 25 से 30 फीसदी की बढ़ोतरी

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर जिसने भी गुरु बनाए हैं , वह उनका दर्शन एवं पूजन अवश्य करें

जया पार्वती व्रत का पूजन विधि

Leave a Reply