विभाजन के समय प्रतिपद् आदि सभी तिथियां अग्नि आदि देवताओं को तथा सप्तमी भगवान सूर्य को प्रदान की गई. जिन्हें जो तिथि दी गई, वह उसका ही स्वामी कहलाया. अत: अपने दिन पर ही अपने मंत्रों से पूजे जाने पर वे देवता अभीष्ट प्रदान करते हैं
ज्योतिष 5 पक्ष तिथि वार
चन्द्र मास के दो पक्ष, 30 तिथियां एवं सप्ताह के 7 वार.
पक्ष व तिथि
सूर्य से चन्द्र की दूरी ही तिथियों का आधार है. 12 अंश की दूरी से एक तिथि का निर्माण होता है. जब सूर्य और चन्द्र एक ही अंश (३४९ वें अंश से ००० या ३६० अंश तक) पर हो तो अमावस्या और अधिकतम (169 वें अंश से 180 अंश तक) दूरी पर हों तो पूर्णिमा होती है. 360÷12=30 तिथियां.
तिथियां संख्या में कुल तीस हैं, पंद्रह तिथियां शुक्ल पक्ष (बढ़ता चन्द्र/सुदी) की तथा 15 तिथियां कृष्ण पक्ष (घटता चन्द्र/बदी) की हैं
पक्ष 15 तिथियों (लगभग 15 दिन) का होता है. चाँद के महीने में दो पक्ष होते, एक जब चन्द्र घट रहा होता है और दूसरा जब चन्द्र बढ़ रहा होता है. घटते पक्ष को कृष्ण तथा बढ़ते पक्ष को शुक्ल कहते हैं.
दोनो पक्षों की प्रतिपदा (पहली) से चतुर्दशी (चौदहवीं) तक की चौदह तिथियों ने नाम व स्वामी देवता एक समान है. इसलिए प्रतिपदा से पूर्णिमा तक शुक्लपक्ष की पंद्रह तिथियां तथा अमावस्या सहित कुल सोलह नाम हैं. लेकिन अमावस्या के लिए संख्या ३० का प्रयाग करते हैं सोलह का नहीं, क्योंकि “अमवस्या” शुक्लपक्ष की पंद्रहवीं तिथि (पूर्णिमा) के बाद कृष्णपक्ष की पंद्रहवीं तिथि अर्थात् तीसवीं तिथि है.
उत्तर भारत में कृष्णपक्ष को चन्द्र मास का प्रथम पक्ष तथा शुक्ल पक्ष को दूसरा मानते हैं, इस प्रकार अमावस्या की संख्या 15 तथा पूर्णिमा की संख्या30 होनी चाहिए, लेकिन है उल्टा और ये सिर्फ प्रचलन की बात नहीं, शास्त्रों में भी उल्टा ही लिखा है. आप जानते तो हैं लेकिन शायद आपने इस बात पर ध्यान न दिया हो कि “हमारा पंचांग शुक्ल पक्ष से ही आरंभ होता है, लेकिन हर महीना कृष्ण पक्ष से”। कहने का मतलब यह है कि हमारा नया वर्ष महीने के बीच से शुरु होता है. यदि हर नये विक्रमी संवत् का पहला पक्ष शुक्ल होता है तो महीने का पहला पक्ष भी शुक्ल ही होना चाहिए था, न कि कृष्ण पक्ष. हालांकि ज्योतिष में ढेरों बिना तर्क की बातें हैं जैसे कि “दशा” लेकिन परिणामों को देखकर विश्वास करना ही पड़ता है. लेकिन चान्द्र मास का कृष्ण पक्ष से आरंभ होना; न तो तर्क है और न ही कोई परिणाम. हालांकि कुछ लोग तर्क देते हैं “पूरणमासी”, लेकिन ये नामकरण तो प्रचलन के बाद का है.
मैं यहां उत्तर भारत में प्रचलित और प्रमाणिक ग्रंथों के मतानुसार लिख रहा हूँ.
16 कलाओं के सोलह नाम तथा सोलह ही देवता है. जोकि इस प्रकार हैं-
तिथियां देवता मतांतर से
1 प्रतिपदा अग्नि देव ब्रह्मा
2. द्वितीया ब्रह्मा विधाता
3 तृतीया गौरी विष्णु
4 . चतुर्थी गणेश यम
5 पंचमी नाग देव चन्द्रमा
6 . षष्ठी कार्तिकेय
7 . सप्तमी सूर्य देव इन्द्र
8 अष्टमी शिव वसु/दुर्गा
9 . नवमी दुर्गा अष्टवसु/सर्प
10 दशमी यमराज/धर्मराज
11 . एकादशी विश्वेदेव शिव
12 . द्वादशी विष्णु सूर्य
13 . त्रयोदशी कामदेव
14 . चतुर्दशी शिव कलि
15 पूर्णिमा चन्द्रमा विश्वदेव
30 . अमावस्या पितृ
सूर्य ने अग्नि को प्रतिपदा, ब्रह्मा को द्वितीया, यक्षराज कुवेर को तृतीया और गणेश को चतुर्थी तिथि दी है. नागराज को पंचमी, कार्तिकेय को षष्ठी, अपने लिए सप्तमी और रुद्र को अष्टमी तिथि प्रदान की है. दुर्गादवी को नवमी, अपने पुत्र यमराज को दशमी, विश्वेदेवगणों को एकादशी तिथि दी गई है. विष्णु को द्वादशी, कामदेव को त्रयोदशी, शंकर को चतुर्दशी तथा चंद्रमा को पूर्णिमा की तिथि दी है. सूर्य के द्वारा पितरों को पवित्र, पुण्यशालिनी अमावास्या तिथि दी गई है. ये कही गई पंद्रह तिथियां चंद्रमा की हैं. कृष्ण पक्ष में देवता इन सभी तिथियों में शनै: शनै: चंद्रकलाओं का पान कर लेते हैं.ध्यानमात्र से ही सूर्यदेव अक्षय गति प्रदान करते हैं.दूसरे देवता भी जिस प्रकार उपासकों की अभीष्ट कामना पूर्ण करते हैं, संक्षेप में वह इस प्रकार है:
पुनर्वसु नक्षत्र में अदिति की पूजा करनी चाहिए. पूजा से संतृप्त होकर वे माता के सदृश रक्षा करती हैं. पुष्य नक्षत्र में उसके स्वामी बृहस्पति अपनी पूजा से प्रसन्न होकर प्रचुत सद्बुद्धि प्रदान करते हैं. आश्लेषा नक्षत्र में नागों की पूजा करने से नागदेव निर्भय कर देते हैं, काटते नहीं. स्वाती नक्षत्र में वायुदेव पूजित होने पर संतुष्ट जो परम शक्ति प्रदान करते हैं. विशाखा नक्षत्र में लाल पुष्पों से इंद्राग्नि का पूजन करके मनुष्य इस लोक में धन-धान्य प्राप्त कर सदा तेजस्वी रहता है.
हर तिथि के होते हैं अलग-अलग देवता
हमारे शास्त्रों में तिथि को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. जिस तिथि के जो देवता बताये गये हैं, उन देवताओं की पूजा, उपासना उसी तिथि में करने से सभी देवता उपासक से प्रसन्न हो उसकी अभिलाषा को पूर्ण करते हैं.
प्रतिपदा: प्रथम तिथि
इसे प्रथम तिथि भी कहा गया है, इस तिथि के स्वामी अग्नि देव हैं. इनकी उपासना से घर में धन-धान्य, आयु, यश, बल, मेधा आदि की वृद्धि होती है.
द्वितीया
इस तिथि के स्वामी ब्रह्मा जी हैं. इस दिन किसी ब्रह्मचारी ब्राह्मण की पूजा करना एवं उन्हें भोजन, अन्न वस्त्र का दान देना श्रेयस्कर होता है.
तृतीया
इस तिथि में गौरी जी की पूजा करने से सौभाग्य की वृद्धि होती है. कुबेर जी भी तृतीया के स्वामी माने गये हैं. अतः इनकी भी पूजा करने से धन-धान्य, समृद्धि प्राप्त होती है.
चतुर्थी
इस तिथि के स्वामी श्री गणेश जी हैं जिन्हें प्रथम पूज्य भी कहा जाता है. इनके स्मरण से सारे विघ्न दूर हो जाते हैं.
पंचमी
इस तिथि के स्वामी नाग देवता हैं. इस दिन नाग की पूजा से भय तथा कालसर्प योग शमन होता है.
षष्ठी
इस तिथि के स्वामी स्कंद अर्थात् कार्तिकेय हैं. इनकी पूजा करने से व्यक्ति मेधावी, सम्पन्न एवं कीर्तिवान होता है. अल्पबुद्धि एवं हकलाने वाले बच्चे के लिए कार्तिकेय की पूजा करना श्रेयस्कर होता है. जिनकी मंगल की दशा हो या कोई कोर्ट केस में फंसा हो उसके लिए कार्तिकेय की पूजा श्रेष्ठ फलदायी है.
सप्तमी
इस तिथि के स्वामी सूर्य हैं. सूर्य आरोग्यकारक माने गये हैं साथ ही जगत के रक्षक भी. इसलिए अच्छे स्वास्थ्य एवं आरोग्यता हेतु विशेषकर जिसे आंखों की समस्या हो उसके लिए इस दिन चाक्षुषी विद्या का पाठ करना माना गया है.
अष्टमी
इस दिन के स्वामी रुद्र हैं. अतः इस तिथि में वृषभ से सुशोभित भगवान सदाशिव का पूजन करने से सारे कष्ट एवं रोग दूर होते हैं.
नवमी
इस तिथि के दिन दुर्गा जी की पूजा करने से यश में वृद्धि होती है. साथ ही किसी प्रकार की ऊपरी बाधा एवं शत्रु नाश के लिए आज के दिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए.
दशमी
इस तिथि के देवता यमराज हैं. इस दिन इनकी पूजा करने से ये सभी बाधाओं को दूर करते हैं एवं मनुष्य का नरक तथा अकाल मृत्यु से उद्धार करते हैं.
एकादशी
इस तिथि के देवता विश्वेदेवा हैं. इनकी पूजा करने से वो भक्तों को धन धान्य एवं भूमि प्रदान करते हैं.
द्वादशी
इस तिथि के स्वामी श्री हरि विष्णु जी हैं. इनकी पूजा करने से मनुष्य समस्त सुखों को भोगता है, साथ ही सभी जगह पूज्य एवं आदर का पात्र बनता है. इस दिन विष्णु सहस्रनाम का पाठ करना होता है. परंतु इस दिन तुलसी तोड़ना निषिद्ध है.
त्रयोदशी
इस तिथि के स्वामी कामदेव हैं. इनकी पूजा करने से व्यक्ति रूपवान होता है एवं उम व सुंदर पत्नी प्राप्त करता है. साथ ही वैवाहिक सुख भी पूर्णरूप से मिलता है.
चतुर्दशी
इसके स्वामी भगवान शिव हैं. अतः प्रत्येक मास की चतुर्दशी विशेषकर कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन शिव जी की पूजा, अर्चना एवं रुद्राभिषेक करने से भगवान शिव मनोकामना पूर्ण करते हैं एवं समस्त ऐश्वर्य एवं सम्प प्रदान करते हैं.
पूर्णिमा
इस तिथि के देवता चंद्र हैं. इनकी पूजा करने से मनुष्य का समस्त संसार पर आधिपत्य होता है. विशेषकर जिनकी चंद्र की दशा चल रही हो उनके लिए पूर्णिमा का व्रत रखना एवं चंद्र को अघ्र्य देना सुख में वृद्धि करता है. जिनके बच्चे अक्सर सर्दी जुकाम, निमोनिया आदि रोगों से ग्रसित हों उनकी मां को एक वर्ष तक पूर्णिमा का व्रत रखना चाहिए तथा चंद्र को अघ्र्य देकर अपना व्रत करना चाहिए.
अमावस्या
इस तिथि पर पितरों का आधिपत्य है. अतः इस दिन अपने पितरों की शांति हेतु अन्न वस्त्र का दान देना एवं श्राद्ध करना श्रेयस्कर है. इससे प्रसन्न हो पितर देवता अपने कुल की वृद्धि हेतु संतान एवं धन समृद्धि देते हैं.
कैसे करे पूजन
रोज सुबह जल्दी उठें और ब्रहम मुहूर्त में स्नान के बाद घर के मंदिर में ही तिथि के स्वामी की पूजा का प्रबंध करें. अगर मंदिर में तिथि स्वामी की मूर्ति या फोटो न हो तो उनके नाम का ध्यान करते हुए मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं की पूजा करें. पूजा में कुमकुम, दीपक, तेल, रुई, धूपबत्ती, फूल, अक्षत – चावल, प्रसाद के लिए फल, मिठाई, नारियल, पंचामृत, सूखे मेवे, शक्कर, पान, दक्षिणा आदि अवश्य रखें. पूजा में धूप-दीप जलाएं और परेशानियों को दूर करने की प्रार्थना करें.
तिथि
दो नये चन्द्रोदय के मध्य के समय को चन्द्र मास कहते है और यह 29.5 दिन के समकक्ष होता है. एक चन्द्र मास में 30 तिथि अथवा चन्द्र दिवस होते हैं. तिथि को समझने के लिए हम यह भी कह सकते है कि चन्द्र रेखांक को सूर्य रेखांक से 12 अंश उपर जाने में लिए जो समय लगता है वह तिथि है.
इसलिए प्रत्येक नये चन्द्र और पूर्ण चन्द्र के बीच में कुल चौदह तिथियां होती हैं. शून्य को नया चन्द तथा पन्द्रहवीं तिथि को पूर्णिमा कहते हैं. तिथियां शून्य यानि अमावस्या से शुरु होकर पूर्णिमा तक एक क्रम में चलती है और फिर पूर्णिमा से शुरु होकर अमावस्या तक उसी क्रम को दूबारा पूरा करती हैं तो एक चन्द्र मास पूरा होता है.
तिथियों के नाम-
सभी तिथियों की अपनी एक अध्यात्मिक विशेषता होती है जैसे अमावस्या पितृ पूजा के लिए आदर्श होती है, चतुर्थी गणपति की पूजा के लिए, पंचमी आदिशक्ति की पूजा के लिए, छष्टी कार्तिकेय पूजा के लिए, नवमी राम की पूजा, एकादशी व द्वादशी विष्णु की पूजा के लिए, तृयोदशी शिव पूजा के लिए, चतुर्दशी शिव व गणेश पूजा के लिए तथा पूर्णमा सभी तरह की पूजा से सम्बन्धित कार्यकलापों के लिए अच्छी होती है.
सूर्य और चंद्रमा के अंतराल (दूरी) से तिथियां निर्मित होती हैं. अमावस्या के दिन सूर्य एवं चंद्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं. अत: उस दिन सूर्य और चंद्रमा का भोग्यांश समान होता है. चंद्रमा अपनी शीघ्र गति से जब 12 अंश आगे बढ़ जाता है तो एक तिथि पूर्ण होती है- ‘भक्या व्यर्कविधोर्लवा यम कुभिर्याता तिथि: स्यात्फलम्’। जब चंद्रमा सूर्य से 24 अंश की दूरी पर होता है तो दूसरी तिथि होती है. इसी तरह सूर्य से चंद्रमा 180 अंश की दूरी पर होता है तो पूर्णिमा तिथि होती है और जब 360 अंश की दूरी पर होता है तो अमावस्या तिथि होती है.
तिथि क्षय एवं वृद्धि- ग्रहों की आठ प्रकार की गति होती है. इत: ग्रहों की विभिन्न गतियों के कारण ही तिथि क्षय एवं वृद्धि होती है. एक तिथि का क्षय 63 दिन 54 घटी 33 कला पर होती है. जिसमें एक सूर्योदय हो वह शुद्ध, जिसमें सूर्योदय न हो वह क्षय और जिसमें दो सूर्योदय हो वह वृद्धि तिथि कहलाती है. क्षय और वृद्धि तिथियां शुभ कार्यों में वर्ज्य और शुद्ध तिथि शुभ होती है. तिथियों की गणना शुक्ल पक्ष से प्रारंभ होती है.
तिथियों के अनुसार शुभ जानकारी -
नंदा
प्रतिपदा
षष्ठी
एकादशी
भद्रा
द्वितीया
सप्तमी
द्वादशी
जया
तृतीया
अष्टमी
त्रयोदशी
रिक्ता
चतुर्थी
नवमी
चतुर्दशी
पूर्ण
पंचमी
दशमी
पूर्णिमा
नोट -- शुक्ल पक्ष में नंदा , भद्रा , जया , रिक्त , और पूर्ण क्रम से अशुभ , मध्य और शुभ होती है.
अर्थात शुक्ल पक्ष में ऊपर लिखी हुई
प्रथम खंड की पांच तिथियाँ अशुभ होती है.
द्वितीया खंड की पाँच तिथियाँ मध्यम
और तृतीया के पाँच तिथियाँ उत्तम होती है.
इसी तरह कृष्ण पक्ष में--
प्रथम खंड की पाँच तिथियाँ शुभ होती है.
द्वितीया की पाँच तिथियाँ मध्य होती है.
तृतीया से पाँच तिथियाँ अशुभ होती है.
Koti Devi Devta
अंक ज्योतिष के अनुसार जानें 26 नवंबर, 2022 तक का राशिफल
वैदिक ज्योतिष में कुंडली के छठे भाव में ग्रहों का प्रभाव
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुंडली में मंगल कमजोर हो तो ऋण लेने की स्थिति बनती है!
Leave a Reply