प्रतिदिन प्रातः स्मरणीय मंत्र एवं स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित .
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा.
यः स्मरेत्पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः॥
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ .
निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।।
ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् .
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं, तत्त्वमस्यादिलक्षम् .
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधी: साक्षीभूतम् .
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरूं तं नमामि ।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: .
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवै नम: ।।
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं .
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् .
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् .
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।।
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्.
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्.
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे.
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः.
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥
एतेशां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति.
कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः॥
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्.
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्.
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥
शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत् में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान् बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके
शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोsस्तुते ।।
सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी, कल्याण करने वाली, सब के मनोरथ को पूरा करने वाली, तुम्हीं शरण ग्रहण करने योग्य हो, तीन नेत्रों वाली यानी भूत भविष्य वर्तमान को प्रत्यक्ष देखने वाली हो, तुम्ही शिव पत्नी, तुम्ही नारायण पत्नी अर्थात भगवान के सभी स्वरूपों के साथ तुम्हीं जुडी हो, आप को नमस्कार है.
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी .
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ।।
अहिल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा .
पंचकन्या ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ।।
गीता गंगा च गायत्री सीता सत्या सरस्वती.
ब्रह्मविद्या ब्रह्मवल्ली त्रिसंध्या मुक्तगेहिनी।।
अर्धमात्रा चिदानन्दा भवघ्नी भयनाशिनी.
वेदत्रयी पराऽनन्ता तत्त्वार्थज्ञानमंजरी।।
इत्येतानि जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानसः.
ज्ञानसिद्धिं लभेच्छीघ्रं तथान्ते परमं पदम्।।
गीता, गंगा, गायत्री, सीता, सत्या, सरस्वती, ब्रह्मविद्या, ब्रह्मवल्ली, त्रिसंध्या, मुक्तगेहिनी, अर्धमात्रा, चिदानन्दा, भवघ्नी, भयनाशिनी, वेदत्रयी, परा, अनन्ता और तत्त्वार्थज्ञानमंजरी (तत्त्वरूपी अर्थ के ज्ञान का भंडार) इस प्रकार (गीता के) अठारह नामों का स्थिर मन से जो मनुष्य नित्य जप करता है वह शीघ्र ज्ञानसिद्धि और अंत में परम पद को प्राप्त होता है |
यदि किसी का दूसरे देवता के लिये आग्रह हों तो उन देवता का चित्र भी रखा जा सकता है. शास्त्रों में गायत्री के बिना अन्य सब साधनाओं का निष्फल होना लिखा है. इसलिये यदि अन्य देवता को इष्ट माना जाय और उसकी प्रतिमा स्थापित की जाय तो भी गायत्री का चित्र प्रत्येक दशा में साथ रहना ही चाहिये.
अच्छा तो यह है कि एक ही इष्ट गायत्री महाशक्ति को माना जाय और एक ही चित्र स्थापित किया जाय. उससे एकनिष्ठा और एकाग्रता का लाभ होता है. यदि अन्य देवताओं की स्थापना का भी आग्रह हो तो उनकी संख्या कम-से-कम रखनी चाहिये.
जितने देवता स्थापित किये जायेंगे, जितनी प्रतिमाएं बढ़ाई जायेंगी- निष्ठा उसी अनुपात से विभाजित होती जायेगी. इसलिये यथासंभव एक अन्यथा कम-से-कम छवियाँ पूजा स्थली पर प्रतिष्ठापित करनी चाहिये.
पूजा-स्थली के पास उपयुक्त व्यवस्था के साथ पूजा के उपकरण रखने चाहिये. अगरबत्ती, पंच-पात्र, चमची, धूपबत्ती, आरती, जल गिराने की तस्तरी, चंदन, रोली, अक्षत, दीपक, नैवेद्य, घी, दियासलाई आदि उपकरण यथा-स्थान डिब्बों में रखने चाहिये. आसन कुशाओं का उत्तम है. चटाई में काम चल सकता है.
आवश्यकतानुसार मोटा या गुदगुदा आसन भी रखा जा सकता है. माला चन्दन या तुलसी की उत्तम है. शंख, सीपी मूँगा जैसी जीव शरीरों से बनने वाली मालाएं निषिद्ध हैं. इसी प्रकार किसी पशु का चमड़ा भी आसन के स्थान पर प्रयोग नहीं करना चाहिये
पूजा उपचार के लिये प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है. स्थान और पूजा उपकरणों की सफाई नित्य करनी चाहिये. जहाँ तक हो सके नित्यकर्म से शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर ही पूजा पर बैठना चाहिये. रुग्ण या अशक्त होने की दशा में हाथ-पैर, मुँह आदि धोकर भी बैठा जा सकता है.
पूजा का न्यूनतम कार्य तो निर्धारित रखना ही चाहिये. उतना तो पूरा कर ही लिया जाय. यदि प्रातः समय न मिले तो सोने से पूर्व निर्धारित कार्यक्रम की पूर्ति की जाय. यदि बाहर प्रवास में रहना हो तो मानसिक ध्यान पूजा भी की जा सकती है. ध्यान में नित्य की हर पूजा पद्धति का स्मरण और भाव कर लेने को मानसिक पूजा कहते हैं.
प्रात: कर-दर्शनम
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती.
करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम॥
सबसे पहले शरीर, मन और इन्द्रियों को- स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की शुद्धि के लिये आत्म-शुद्धि के पंचोपचार करने चाहिये. यही संक्षिप्त ब्रह्म-संध्या है.
(1) बायें हाथ में एक चम्मच जल रख कर दाहिने से ढंका जाय. पवित्रीकरण का मंत्र अथवा गायत्री मंत्र पढ़ कर उस जल को समस्त शरीर पर छिड़का जाय,
(2) तीन बार, तीन चम्मच भर कर, तीन आचमन किये जांय. आचमनों के तीन मंत्र पुस्तकों में हैं, वे याद न हों तो हर आचमन पर गायत्री मंत्र पढ़ा जा सकता है.
(3) चोटी में गाँठ लगाई जाय. अथवा शिखा स्थान को स्पर्श किया जाय. शिखा बंधन का मंत्र याद न हो तो गायत्री मंत्र पढ़ा जाय.
(4) दाहिना नथुना बन्द कर बायें से साँस खींची जाय. भीतर रोकी जाय और बायाँ नथुना बन्द करके दाहिने छेद से साँस बाहर निकाली जाय. यह प्राणायाम है. प्राणायाम का मंत्र याद न हो तो गायत्री मंत्र मन ही मन पढ़ा जाय.
(5) बाईं हथेली पर जल रख कर दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियाँ उसमें डुबोई जांय और क्रमशः मुख, नाक, आँख, कान, बाहु, जंघा इन पर बाईं और दाईं और जल का स्पर्श कराया जाता, यह न्यास है. न्यास के मंत्र याद न होने पर भी गायत्री का प्रयोग हो सकता है. यह शरीर मन और प्राण की शुद्धि के लिये किये जाने वाले पाँच प्रयोग हैं. इन्हें करने के बाद ही देव पूजन का कार्य आरंभ होता है.
स्नान मन्त्र
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती.
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥
देव पूजन में सबसे प्रथम धरती-माता का- मातृ-भूमिका, विश्व-वसुन्धरा का पूजन है. जिस धरती पर जिस देश समाज में जन्म लिया है वह प्रथम देव है, इसलिये इष्टदेव की पूजा से भी पहले पृथ्वी पूजन किया जाता है. पृथ्वी पर जल, अक्षत, चंदन, पुष्प रख कर पूजन करना चाहिये. पृथ्वी पूजन के मंत्र याद न हों तो गायत्री मंत्र का उच्चारण कर लेना चाहिये.
पृथ्वी क्षमा प्रार्थना
समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते.
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥
इसके बाद इष्टदेव का पूजन किया जाय-
नित्य पूजा विधि –
आह्वान, आमंत्रण के लिए अक्षत,स्नान के लिए जल,स्वागत के लिए चंदन अथवा रोली,सुगंध के लिए अगरबत्ती,सम्मान के लिए पुष्प,आहार के लिए नैवेद्य कोई फल मेवा या मिठाई
अभिवन्दन के लिए आरती कपूर अथवा दीपक की.
यह सात पूजा उपकरण सर्वसाधारण के लिए सरल हैं. पुष्प हर जगह- हर समय नहीं मिलते. उनके अभाव में केशर मिश्रित चन्दन से रंगे हुए चावल प्रयोग में लाये जा सकते हैं. प्रथम भगवान की पूजा स्थली पर विशेष रूप से आह्वान आमंत्रित करने के लिये हाथ जोड़कर अभिवन्दन करना चाहिये और उपस्थित का हर्ष व्यक्त करने के लिए माँगलिक अक्षतों (चावलों) की वर्षा करनी चाहिये.
इसके बाद जल, चंदन, अगरबत्ती, पुष्प, नैवेद्य, आरती की व्यवस्था करते हुए उनका स्वागत, सम्मान करना चाहिये. यह विश्वास करना चाहिये कि भगवान सामने उपस्थित हैं और हमारी पूजा प्रक्रिया को- भावनाओं को ग्रहण स्वीकार करेंगे. उपरोक्त सात पूजा उपकरणों के अलग-अलग मंत्र भी हैं. वे याद न हो सकें तो हर मंत्र की आवश्यकता गायत्री से पूरी हो सकती है. इस विधान के अनुसार इस एक ही महामंत्र से कभी पूजा प्रयोजन पूरे कर लेने चाहिये.
यहाँ प्रमुख ईश्वर और उनसे सम्बंधित मंत्रो को बताया गया है श्रद्धानुसार अपने इष्टदेव के मंत्र को भाव विभोर होकर बोलना चाहिए
गणपति स्तोत्र
गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:।
द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥
विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।
द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥
विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्.
विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय.
लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय.
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं.
प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥
आदिशक्ति वंदना,
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके.
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥
शिव स्तुति
कर्पूर गौरम करुणावतारं,
संसार सारं भुजगेन्द्र हारं.
सदा वसंतं हृदयार विन्दे,
भवं भवानी सहितं नमामि॥
विष्णु स्तुति,
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्.
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥
श्री कृष्ण स्तुति,
कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम.
नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥
सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि.
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्.
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्॥
श्रीराम वंदना
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्.
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥
श्रीरामाष्टक
हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा.
गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥
हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते.
बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥
एक श्लोकी रामायण
आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्.
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्.
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्
सरस्वती वंदना
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता.
या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता.
सा माम पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्याऽपहा॥
हनुमान वंदना
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्.
दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्.
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्.
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं.
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥
इसके बाद जप का नम्बर आता है. मंत्र ऐसे उच्चारण करना चाहिये, जिससे कंठ, होठ और जीभ हिलते रहें. उच्चारण तो होता रहे पर इतना हल्का हो कि पास बैठा व्यक्ति भी उसे ठीक तरह से सुन समझ न सके. माला को प्रथम मस्तक पर लगाना चाहिये फिर उससे जप आरंभ करना चाहिये. तर्जनी उंगली का प्रयोग नहीं किया जाता, माला घुमाने में अंगूठा, मध्यमा और अनामिका इन तीनों का ही प्रयोग होता है. जब एक माला पूरी हो जाय तब सुमेरु (बीच का बड़ा दाना) उल्लंघन नहीं करते उसे लौट देते हैं.
अधिक रात गये जप करना हो तो मुँह बन्द करके- उच्चारण रहित मानसिक जप करते हैं. साधारणतया एक माला जप में 6 मिनट लगते हैं. पर अच्छा हो इस गति को और मंद करके 10 मिनट कर लिया जाय. दैनिक उपासना में- जब कि दो ही माला नित्य करनी हैं, गति में तेजी लाना ठीक नहीं. माला न हो तो उंगलियों पर 108 गिन कर एक माला पूरी होने की गणना की जा सकती है. घड़ी सामने रख कर भी समय का अनुमान लगाया जा सकता है.
और अंत में शांति पाठ अवश्य करना चाहिए
ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:,
पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥
॥ॐ शान्ति: शान्ति:
Koti Devi Devta
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-पूजन में ध्यान रखने योग्य सामान्य नियम और सावधानियां
पार्थिव श्रीगणेश पूजन करने से सर्व कार्य सिद्धि होती
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