बैद्यनाथ की जय शिव महिम्न स्तोत्रम

बैद्यनाथ की जय शिव महिम्न स्तोत्रम

प्रेषित समय :20:15:43 PM / Tue, Dec 27th, 2022

बैद्यनाथ की जय शिव महिम्न स्तोत्रम 

महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिर:
अथाऽवाच्य: सर्व: स्वमतिपरिणामावधि गृणन
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवाद: परिकर:
हे हर !!! 
आप प्राणी मात्र के कष्टों को हराने वाले हैं. मैं इस स्तोत्र द्वारा आपकी वंदना कर रहा हूं जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न भी हो पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं. जिस प्रकार एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार ही आसमान में उड़ान भर सकता है उसी प्रकार मैं भी अपनी यथाशक्ति आपकी आराधना करता हूं.
अतीत: पंथानं तव च महिमा वाहनसयो:
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि
स कस्य स्तोत्रव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय:
पदे त्ववार्चीने पतति न मन: कस्य न वच:
हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन, ना ही वचन द्वारा ही संभव है. आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात यह भी नहीं और वो भी नहीं... आपका संपूर्ण गुणगान भला कौन कर सकता है? यह जानते हुए भी कि आप आदि व अंत रहित हैं परमात्मा का गुणगान कठिन है मैं आपकी वंदना करता हूं.
मधुस्फीता वाच: परमममृतं निर्मितवत:
तव ब्रह्मनकिं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवत:
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी, अपनी सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना कर रहा हूं कि इससे मेरी वाणी शुद्ध होगी तथा मेरी बुद्धि का विकास होगा.
तवैश्वयंर् यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधिय:
हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं. तीनों वेद आपकी ही संहिता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे ही प्रकाशित हैं. आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है. इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है.
किमीह: किंकाय: स खलु किमुपाय्त्रिरभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च
अतक्र्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दु:स्थो हतधिय:
कुतर्कोऽयं कांश्चित मुखरयति मोहाय जगत:
हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं. वह कहते हैं कि अगर कोई परम पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वह कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वह इस सृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं. वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता.
अजन्मानो लोका: किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने क: परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे...
हे परमपिता !!! इस सृष्टि में सात लोक हैं (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)। इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे संभव हो सका? यह किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य यह है कि आप पर किसी प्रकार का संशय नहीं किया जा सकता.
आदि शंकराचार्य के 'निर्वाण शतकम' का पद्यानुवाद
शिवोहं शिवोहं, शिवोहं शिवोहं, शिवोहं शिवोहं
मूल रचना
मनो बुध्यहङ्कार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिह्वा न च घ्राणनेत्रम् .
न च व्योम भूमिर्-न तेजो न वायुः
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 1 ॥
अहं प्राण सञ्ज्ञो न वैपञ्च वायुः
न वा सप्तधातुर्-न वा पञ्च कोशाः .
नवाक्पाणि पादौ न चोपस्थ पायू
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 2 ॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहो
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः .
न धर्मो न चार्धो न कामो न मोक्षः
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 3 ॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मन्त्रो न तीर्धं न वेदा न यज्ञः .
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 4 ॥
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभूत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् .
न वा बन्धनं नैव मुक्ति न बन्धः .
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 5 ॥
न मृत्युर्-न शङ्का न मे जाति भेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्म .
न बन्धुर्-न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहम् ॥ 6 ॥
'याम्से सदंगे नगरेतिम्ये विभूषिंग विविधैश्य भोगे: सद् भक्ति मुक्ति प्रदमीशमेंक श्री नागनाथ शरणं प्रदद्ये'
अंग देश के दक्षिण में स्थित अतिरम्य नगर में भक्ति मुक्ति प्रदान करने वाले एकमात्र नागनाथ की शरण में आता हूं, जो विविध भोगों से संपन्न होकर सुंदर आभूषणों से भूषित हो रहे हैं. अंग प्रदेश वर्तमान में पूर्णिया, मुंगेर एवं भागलपुर प्रमंडलीय क्षेत्र आते हैं.
इनसे दक्षिण में निषध प्रदेश वर्तमान में संतालपरगना प्रमंडलीय भू-भाग है. निषध प्रदेश के अधिपति राजा महाराज नल थे. महाभारत के वनपर्व में उल्लिखित है निषधाधिपतिर्नल: नल के नाम पर संतालपरगना प्रमंडल के जामताड़ा जिले के नाला प्रखंड है. दुमका को दारूका का अपभ्रंश माना गया है, जो व्याकरण से भी सिद्ध होता है. पाणिकिन-अष्टाध्यायीमें पतंजलि ने लिखा है-
एकैकस्य शब्दस्य बहवो अपभ्रंशा तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य, गावी, गोणी गाती गोतलिके, इत्येवमाद योपभ्रंशा
याम्ये सदंगे नगरेतिरम्ये का अर्थ दक्षिण के सदंग नगर से बताया है. परंतु दक्षिण भारत में सदंग नामक नगर कहीं नहीं है. यदि सदंग नामक नगर दक्षिण भारत में है भी तो वह दारूक वन में नहीं हो सकता. चूंकि दारूक वन की स्थिति निषध प्रदेश में है और इस प्रमंडल में दारूका वन की स्थिति वैद्यनाथधाम से तीन योजन की दूरी पर पूर्व की दिशा में मानी गयी है जो वर्तमान में बासुकिनाथधाम में होना सिद्ध होता है.
यथा बासुकि प्रदूरावीत्वा त्वयंते पार्वतीपते, समर्पयेम तस्मात्वं बासुकिर्नाथ ईरीत:
फौजदारीनाथ की पूजा किये बिना पूजा अधूरी
पंडित कन्हैयालाल पाण्डेय 'रशेस'
किंवदंतियों के मुताबिक प्राचीन समय में बासुकि नाम का एक किसान कंद की खोज में जमीन पर हल चला रहा था तभी उसके हल का फाल किसी पत्थर से टकरा गया और वहां रूधिर बहने लगा. इसे देखकर बासुकि भागने लगा तब आकाशवाणी हुई 'तुम भागो नहीं मैं नागेश्वरनाथ हूं, मेरी पूजा करो...'तभी से यहां पूजा होने लगी है. कहा जाता है कि उसी बासुकि के नाम से इस मंदिर का नाम बासुकिनाथधाम पड़ा है.फौजदारीनाथ की पूजा नहीं करने से पूजा अधूरी मानी जाती है इसलिए बाबा वैद्यनाथ की पूजा करने के बाद भक्तों की भीड़ यहां जुटती है.  बासुकिनाथ में शिव का रूप नागेश है. यहां पूजा में अन्य सामग्री तो चढ़ाई जाती है लेकिन दूध से पूजा का अलग महत्व है. नागेश का दूध से पूजा करने से भगवान शिव प्रसन्न रहते हैं.  
 बैद्यनाथ महादेव की कथा
एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर स्थिर होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की. उस राक्षस ने अपना एक-एक सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिये. इस प्रकिया में उसने अपने नौ सिर चढ़ा दिया तथा दसवें सिर को काटने के लिए जब वह उद्यत (तैयार) हुआ, तब तक भगवान शंकर प्रसन्न हो उठे. प्रकट होकर भगवान शिव ने रावण के दसों सिरों को पहले की ही भाँति कर दिया. उन्होंने रावण से वर माँगने के लिए कहा. रावण ने भगवान शिव से कहा कि मुझे इस शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति प्रदान करें. शंकरजी ने रावण को इस प्रतिबन्ध के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यदि इस लिंग को ले जाते समय रास्ते में धरती पर रखोगे, तो यह वहीं स्थापित (अचल) हो जाएगा. 
यह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुकूल फल देने वाला है. इस वैद्यनाथ धाम में मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर एक विशाल सरोवर है, जिस पर पक्के घाट बने हुए हैं. भक्तगण इस सरोवर में स्नान करते हैं. यहाँ तीर्थपुरोहितों (पण्डों) के हज़ारों घाट हैं, जिनकी आजीविका मन्दिर से ही चलती है. परम्परा के अनुसार पण्डा लोग एक गहरे कुएँ से जल भरकर ज्योतिर्लिंग को स्नान कराते हैं. अभिषेक के लिए सैकड़ों घड़े जल निकाला जाता हैं. उनकी पूजा काफ़ी लम्बी चलती है. उसके बाद ही आम जनता को दर्शन-पूजन करने का अवसर प्राप्त होता है.
कोटि रुद्र संहिता के अनुसार
श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार लिखी गई है.  
राक्षसराज रावण अभिमानी तो था ही, वह अपने अहंकार को भी शीघ्र प्रकट करने वाला था. एक समय वह कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था. बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा. उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया. राक्षस कुल भूषण उस रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया. उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था. तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया.वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था. 
भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया. भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा– ‘देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए. मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ. 
भगवान शिव द्वारा ऐसा कहने पर ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहता हुआ राक्षसराज रावण उस शिवलिंग को साथ लेकर अपनी राजधानी लंका की ओर चल दिया. भगवान शंकर की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग (पेशाब करने) की प्रबल इच्छा हुई. सामर्थ्यशाली रावण मूत्र के वेग को रोकने में असमर्थ रहा और शिवलिंग को एक ग्वाल के हाथ में पकड़ा कर स्वयं पेशाब करने के लिए बैठ गया. एक मुहूर्त बीतने के बाद वह ग्वाला शिवलिंग के भार से पीड़ित हो उठा और उसने लिंग को पृथ्वी पर रख दिया. पृथ्वी पर रखते ही वह मणिमय शिवलिंग वहीं पृथ्वी में स्थिर हो गया.
जब शिवलिंग लोक-कल्याण की भावना से वहीं स्थिर हो गया, तब निराश होकर रावण अपनी राजधानी की ओर चल दिया. उसने राजधानी में पहुँचकर शिवलिंग की सारी घटना अपनी पत्नी मंदोदरी से बतायी. देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने लिंग सम्बन्धी समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये. 
इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया. जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है. इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है.
एक अन्य प्रसंग के अनुसार ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य (सप्त ऋषियों में से एक) की तीन पत्नियाँ थी. पहली से कुबेर, दूसरी से रावण और कुंभकर्ण, तीसरी से विभीषण का जन्म हुआ. रावण ने बल प्राप्ति के निमित्त घोर तपस्या की. शिव ने प्रकट होकर रावण को शिवलिंग अपने नगर तक ले जाने की अनुमति दी. साथ ही कहा कि मार्ग में पृथ्वी पर रख देने पर लिंग वहीं स्थापित हो जाएगा. रावण शिव के दिये दो लिंग 'कांवरी' में लेकर चला. मार्ग मे लघुशंका के कारण, उसने कांवरी किसी 'बैजू' नामक चरवाहे को पकड़ा दी. शिवलिंग इतने भारी हो गए कि उन्हें वहीं पृथ्वी पर रख देना पड़ा. वे वहीं पर स्थापित हो गए.शिव पुराण में कई ऐसे आख्यान हैं जो बताते हैं कि शिव वैद्यों के नाथ हैं. कहा गया है कि शिव ने रौद्र रूप धारण कर अपने ससुर दक्ष का सिर त्रिशुल से अलग कर दिया. बाद में जब काफ़ी विनती हुई तो बाबा बैद्यनाथ ने तीनों लोकों में खोजा पर वह मुंड नहीं मिला. इसके बाद एक बकरे का सिर काट कर दक्ष के धड़ पर प्रत्यारोपित कर दिया. इसी के चलते बकरे की ध्वनि - ब.ब.ब. के उच्चरण से महादेव की पूजा करते हैं. इसे गाल बजा कर उक्त ध्वनि को श्रद्धालु बाबा को खुश करते हैं. पौराणिक कथा है कि कैलाश से लाकर भगवान शंकर को पंडित रावण ने स्थापित किया है. इसी के चलते इसे रावणोश्वर बैद्यनाथ कहा जाता है. यहां के दरबार की कथा काफ़ी निराली है.
Koti Devi Devta

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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