भगवान श्रीकृष्ण के रहस्य विश्व (विराट) स्वरूप
इस रूप का विस्तृत वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 11 में है, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्ध में विश्वरूप दर्शन कराते हैं. यह युद्ध कौरवों तथा पाण्डवों के बीच राज्य को लेकर हुआ था. इसके संदर्भ में वेदव्यास कृत महाभारत ग्रंथ प्रचलित है. परंतु विश्वरूप दर्शन राजा बलि आदि ने भी किया है. भगवान श्री कृष्ण नें गीता में कहा है
"पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः.
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥
अर्थात्- हे पार्थ! अब तुम मेरे अनेक अलौकिक रूपों को देखो. मैं तुम्हें अनेक प्रकार की आकृतियों वाले रंगो को दिखाता हूँ. विश्वरूप अर्थात् विश्व (संसार) और रूप. अपने विश्वरूप में भगवान संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन एक पल में करा देते हैं. जिसमें ऐसी वस्तुऐं होती हैं जिन्हें मनुष्य नें देखा है परंतु ऐसी वस्तुऐं भी होतीं हैं जिसे मानव ने न ही देखा और न ही देख पाएगा.
संजय को हुए थे विश्वरूप दर्शन:-- महाभारत में संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्त हुई जिससे वह कुरुक्षेत्र का हाल धृतराष्ट्र को कहने लगा. कुरुक्षेत्र में विश्वरूप का दर्शन करने का सौभाग्य अर्जुन को मिला.
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्.
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्.
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता.
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥
अर्थात- संजय धृतराष्ट्र के समक्ष भगवान विराट के स्वरूप का वर्णन करता है-- अनगिनत नेत्रों से युक्त प्रभु नारायण अनेक दर्शनों से संपन्न हैं. कई प्रकार के दिव्य अस्त्र शस्त्र धारण कियें हैं, दिव्य आभूषण तथा अद्भुत सुगंध से युक्त प्रभु सुशोभित हैं. अनेक अश्चर्यों से युक्त हैं. सीमारहित (असीमित आकार वाले) तथा किसी एक दिशा में नहीं भगवान सभी दसों दिशाओं की ओर मुख किये हैं. कदाचित् प्रभु विश्वरूप से उत्पन्न प्रकाश की बराबरी आकाश में अनगिनत सूर्योदय हो तब उनसे निकला प्रकाश ही कर पाएँ.
शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी के द्वितीय अध्याय (पुरूसुक्त) में लिखा है--
हरि: ॐ सहस्त्रशीर्षापुरुष:सहस्त्राक्ष:सहस्त्रपात्॥ सभूमिगूँसर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठ्ठद्दशांगुलम्॥१॥ पुरुषऽएवेदगूँसर्वंयद्भूतंयच्चभाव्यम्॥ उतामृतत्वस्येशानोयदन्नेनातिरोहति॥२॥
इस महानारायण पुरुष की इतनी सब विभूतियाँ हैं अर्थात् भूत भविष्य वर्तमान में विद्यमान सब कुछ उसी की महिमा का एक अंश है. वह विराट् पुरुष तो इस संसार से अतिशय अधिक है. इसीलिये यह सारा विराट् जगत् उसका चतुर्थांश है. इस परमात्मा का अवशिष्ट तीन पाद अपने अमृतमय (विनाशरहित) प्रकाशमान स्वरूप में स्थित है.
ॐ नमो स्त्वनंताय सहस्त्रमूर्तये, सहस्त्रपादा क्षिशिरोरूहावहे.
सहस्त्र नाम्ने पुरूषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युगधारिणे नमः॥
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार स्वरूप वर्णन:-गीता में बताया गया है, भगवान में अदिति के १२ पुत्र (द्वादशादित्य), ८ वसु, ११ रूद्र, दोनो अश्विनीकुमार, ४९ मरुद्गण, स्वर्ग, नरक, मृत्युलोक
लक्ष्मी जी को हुए थे विश्वरूप दर्शन :-- एक कथा के अनुसार महर्षि भृगु के घर एक रूपवती कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम लक्ष्मी रखा गया. वह कन्या भगवान विष्णु की कथा सुनकर
नारद जी को हुए थे विश्वरूप दर्शन- देव ऋषि नारद पूर्वजन्म में गंधर्व थे. एक बार ब्रह्मलोक में एक सभा बुलाई गई जिसमें कई देवता भगवन्नाम संकीर्तन के लिये एकत्र हुए. वहाँ नारद भी अपनी स्त्रियों के साथ पधारे. भगवान के संकीर्तन सभा में भगवन्नाम छोड़कर विनोद करते नारद को ब्रह्मा ने शूद्र होने का श्राप दिया. इस कारण नारद जी का जन्म शूद्र कुल में हो गया. इनके जन्म पश्चात ही पिता की मृत्यु हो गई. माता दासी का कार्य कर नारद जी का भरण पोषण करती थी.
एक समय इनके ग्राम में कुछ महात्माओं का आगमन हुआ तथा वे चतुर्मास्य व्यतीत करने के लिये वहीं रुक गए. नारद जी बचपन में भी सुशील थे तथा खेल कूद छोड़कर उन महात्माओं की मन से सेवा करते थे तथा वहीं अपना दिन व्यतीत करते थे, तन्मयतापूर्वक भगवत्कथा सुना करते थे. महात्माओं की सेवा से इनके पूर्वजन्म के पाप धुल गए.
महात्माओं ने जाते जाते नारद को भगवन्नाम संकीर्तन का उपदेश दिया. सर्पदंश से नारद की माता का भी स्वर्गवास हो गया. भिक्षुक की भाँति भोजन के लिये किसी के घर के सामने खड़ा रहता तब भोजन प्राप्त होती थी, पंचवर्षीय नारद इन कष्टों को भगवान की इच्छा समझकर टालते थे. नारद को अन्य बालक भी सताते थे. नारद ने महात्माओं के विधि अनुसार जाप किया तब प्रभु विष्णु ने उन्हें अपने चतुर्भुज रूप में दर्शन दिया.
तत्पश्चात इन्हें प्रभु के दर्शन नहीं हुए. अंत में उन्होंने कठिन तपस्या की तब जाकर भगवान विष्णु नें उन्हें अपने विश्वरूप का दर्शन कराया और कहा कि-
"नारद! अगले जन्म में तुम ब्रह्मा के मानस पुत्र तथा मेरे पार्षद के रूप में जन्म लोगे, तब तुम हर दिन मेरा दर्शन करोगे।"
अगले जन्म में नारद भगवान विष्णु के अवतार के रूप में ब्रह्मा के मानस पुत्र हुए.
राजा बलि जी को हुए थे विश्वरूप दर्शन - भगवान ने बलि के ऊपर कृपा कर उसे भी विश्वरूप का दर्शन कराया.
तभी शुक्राचार्य आते हैं, वे बलि को सूचित करते हैं कि यह छोटा ब्राह्मण साक्षात् परम् ब्रह्म परमात्मा है परंतु बलि दान देने से नहीं कतराता. अंत में शुक्राचार्य संकल्प पात्र के छिद्र में कीट बनकर बैठ जाते हैं. जब बलि दान संकल्प के लिये संकल्प पात्र से जल गिराने का प्रयास करता है तब उसमें से जल की एक बूँद भी नहीं गिरती.
भगवान वामन एक कुश के टुकड़े को उस छिद्र में डालते हैं जिससे शुक्राचार्य काने हो जाते हैं और वहाँ से प्रस्थान करते हैं. बलि का दान संकल्प पूर्ण होता है तत्पश्चात् बलि वामन से आग्रह रखूँ?" तब बलि कहता है, "हे पालनहार! आप अपने चरणकमल को मेरे मस्तक पर रखकर मुझे अनुग्रहित करें.
और प्रभु नें अपना एक पैर बलि के मस्तक पर रखा तथा उसे सुतल लोक में स्थान दिया. बलि प्रभु का नित दर्शन करना चाहते थे इस कारण वे भी बलि के साथ सुतल लोक चले गए. अभी तक उनका अंश राजा बलि के द्वारपाल के रूप में सुतल लोक में स्थापित हैं.
उसने भगवान को बंदी बनाने का असफल प्रयास किया. भगवान ने उसे भयभीत करने हेतु विश्वरूप से साक्षात्कार कराया. उसे हजारों सूर्य का तपन महसूस हुआ, कर्ण, धृतराष्ट्र, शकुनि, भीष्म सब में उसे कृष्ण दिखने लगा तथा इससे वह अत्यंत भयभीत हो उठा.
इस प्रकार प्रभु ने दुर्योधन को भी विश्वरूप दर्शन कराया.
अर्जुन को हुए थे विश्वरूप दर्शन- कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन को भी प्रभु ने विश्वरूप से अवगत कराया.
अर्जुन ने युद्ध में अपने विपरीत अपने ही संबंधियों को पाया जिससे असमंजस में पड़ गया कि वह धर्म कर रहा है कि अधर्म. प्रभु श्री कृष्ण जो उनके सारथि के रूप में वहाँ उपस्थित थे उन्होनें अर्जुन को भगवद्गीता कह सुनाया. प्रभु ने कहा कि "हे पार्थ! तुम्हें अपने प्रिय जनों की मृत्यु का भय है न? तो सुन लो, मनुष्य का केवल शरीर ही नष्ट होता है परंतु उसके अंदर की आत्मा न आग से जल सकती है न ही शस्त्रो से छिन्नभिन्न होती है. जिस प्रकार मानव वस्त्र बदलता है उसी प्रकार आत्मा भी शरीर बदलती है.
"नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः.
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥"
गीता के विश्वरूप दर्शन योग नामक ११वें अध्याय में भगवान द्वारा अर्जुन को विश्वरूप दर्शन देने के विषय में विस्तारपूर्वक बताया गया है.
अर्जुन बोले "हे जगत्पिता! मैं आपमें सचराचर ब्रह्मांड का दर्शन कर रहा हूँ. मैं आपमें मुनिवरों, देवताओं, कमलासन पर विराजित ब्रह्मा, सपरिवार महादेव तथा दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ. आपको अगणित भुजाओं, नेत्रों, पेटों, मुखों वाला देख रहा हूँ.
हे परात्पर ब्रह्म! न मुझे आपका अंत दिख रहा है, न ही मध्य तथा न ही आदि (प्रारंभ) दिख रहा है. मैं आपको हजारों सूर्यों से अधिक प्रकाशमय गदा, चक्र, शंख आदि से युक्त देख रहा हूँ.
आपको प्रारंभ तथा समाप्ति से रहित, सूर्य तथा चंद्र रूपी नेत्रों वाले, सारे जगत् को आपके तेज से संतृप्त होते हुए देख रहा हूँ.
Koti Devi Devta
Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-धर्मराज दशमी व्रत को रखने से सभी तरह की मनोकामनाएं पूर्ण होती
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