आषाढ गुप्त नवरात्रि में माँ की उपासना के लिये दुर्गा सप्तशती अनुष्ठान विधि

आषाढ गुप्त नवरात्रि में माँ की उपासना के लिये दुर्गा सप्तशती अनुष्ठान विधि

प्रेषित समय :20:47:00 PM / Sat, Jun 24th, 2023

दुर्गा सप्तशती के अध्याय पाठन से संकल्प अनुसार कामनापूर्ति ..
1- प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए.
2- द्वितीय अध्याय- मुकदमा झगडा आदि में विजय पाने के लिए.
3- तृतीय अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिये.
4- चतुर्थ अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिये.
5- पंचम अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिए.
6- षष्ठम अध्याय- डर, शक, बाधा ह टाने के लिये.
7- सप्तम अध्याय- हर कामना पूर्ण करने के लिये.
8- अष्टम अध्याय- मिलाप व वशीकरण के लिये.
9- नवम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये.
10- दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये.
11- एकादश अध्याय- व्यापार व सुख-संपत्ति की प्राप्ति के लिये.
12- द्वादश अध्याय- मान-सम्मान तथा लाभ प्राप्ति के लिये.
13- त्रयोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिये.
दुर्गा सप्तशती का पाठ करने और सिद्ध करने की विभिन्न विधियाँ ..

सामान्य विधि 
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है. आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं. 
वाकार विधि 
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है. इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है. 
संपुट पाठ विधि 
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है.
सार्ध नवचण्डी विधि 
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं. एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है. (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है. एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है. इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है. पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है. वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है. 
शतचण्डी विधि 
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं. इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए. वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें. शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है. जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए. पांचवें दिन हवन होता है. 
इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (१००८) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है.
कुछ लोग दुर्गा सप्तशती के पाठ के बाद हवन खुद की मर्जी से कर लेते है और हवन सामग्री भी खुद की मर्जी से लेते है ये उनकी गलतियों को सुधारने के लिए है.
दुर्गा सप्तशती के वैदिक आहुति की सामग्री.
प्रथम अध्याय- एक पान देशी घी में भिगोकर 1 कमलगट्टा, 1 सुपारी, 2 लौंग, 2 छोटी इलायची, गुग्गुल, शहद यह सब चीजें सुरवा में रखकर खडे होकर आहुति देना.
द्वितीय अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, गुग्गुल विशेष
तृतीय अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 38 शहद
चतुर्थ अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं.1से11 मिश्री व खीर विशेष,
चतुर्थ अध्याय- के मंत्र संख्या 24 से 27 तक इन 4 मंत्रों की आहुति नहीं करना चाहिए. ऐसा करने से देह नाश होता है. इस कारण इन चार मंत्रों के स्थान पर ओंम नमः चण्डिकायै स्वाहा’ बोलकर आहुति देना तथा मंत्रों का केवल पाठ करना चाहिए इनका पाठ करने से सब प्रकार का भय नष्ट हो जाता है.
पंचम अध्ययाय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 9 मंत्र कपूर, पुष्प, व ऋतुफल ही है.
षष्टम अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 23 भोजपत्र.
सप्तम अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 10 दो जायफल श्लोक संख्या 19 में सफेद चन्दन श्लोक संख्या 27 में इन्द्र जौं.
अष्टम अध्याय  प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक संख्या 54 एवं 62 लाल चंदन.
नवम अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या श्लोक संख्या 37 में 1 बेलफल 40 में गन्ना.
दशम अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 5 में समुन्द्र झाग 31 में कत्था.
एकादश अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 2 से 23 तक पुष्प व खीर श्लोक संख्या 29 में गिलोय 31 में भोज पत्र 39 में पीली सरसों 42 में माखन मिश्री 44 मेें अनार व अनार का फूल श्लोक संख्या 49 में पालक श्लोक संख्या 54 एवं 55 मेें फूल चावल और सामग्री.
द्वादश अध्याय  प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 10 मेें नीबू काटकर रोली लगाकर और पेठा श्लोक संख्या 13 में काली मिर्च श्लोक संख्या 16 में बाल-खाल श्लोक संख्या 18 में कुशा श्लोक संख्या 19 में जायफल और कमल गट्टा श्लोक संख्या 20 में ऋीतु फल, फूल, चावल और चन्दन श्लोक संख्या 21 पर हलवा और पुरी श्लोक संख्या 40 पर कमल गट्टा, मखाने और बादाम श्लोक संख्या 41 पर इत्र, फूल और चावल.
त्रयोदश अध्याय प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 27 से 29 तक फल व फूल.
मुख्य पाठ विधि

यह विधि यहाँ संक्षिप्त रूपसे दी जाती है. नवरात्र आदि विशेष अवसरों पर तथा
शतचण्डी आदि अनुष्ठानों में विस्तृत विधि का उपयोग किया जाता है. उसमें यन्त्रस्थ कलश, गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तर्षि, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी, 50 क्षेत्रपाल तथा अन्यान्य देवताओं की वैदिक विधि से पूजा होती है. अखण्ड दीप की व्यवस्था की जाती है. देवीप्रतिमा की
अंगन्यास और अग्न्युत्तारण आदि विधि के साथ विधिवत् पूजा की जाती है.नवदुर्गापूजा, ज्योति:पूजा, वटुक-गणेशादि सहित कुमारीपूजा, अभिषेक, नान्दीश्राद्ध, रक्षाबन्धन, पुण्याहवाचन, मंगलपाठ, गुरुपूजा, तीर्थावाहन, मन्त्र - स्नान आदि, आसनशुद्धि, प्राणायाम, भूतशुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा, अन्तर्मातृकान्यास, बहिर्मातृकान्यास, सृष्टिन्यास, स्थितिन्यास, शक्तिकलान्यास, शिवकलान्यास,
हृदयादिन्यास, षोढान्यास, विलोमन्यास, तत्त्वन्यास, अक्षरन्यास, व्यापकन्यास, ध्यान, पीठपूजा, विशेषाघ्घ्य, क्षेत्रकीलन, मन्त्रपूजा, विविध मुकद्राविधि, आवरणपूजा एवं प्रधानपूजा आदि का
शास्त्रीय पद्धति के अनुसार अनुष्ठान होता है. इस प्रकार विस्तृत विधि से पूजा करने की इच्छा वाले भक्तों को अन्यान्य पूजा-पद्धतियों की सहायता से भगवती की आराधना करके पाठ आरम्भ करना चाहिये.
पाठ विधि आरम्भ

साधक स्नान करके पवित्र हो आसन-शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके शुद्ध आसन पर बैठे; साथ में शुद्ध जल, पूजन सामग्री और श्रीदुर्गासप्तशती की पुस्तक रखे. पुस्तक को अपने सामने काष्ठ आदि के शुद्ध आसन पर विराजमान कर दे. ललाट में अपनी रुचि के अनुसार भस्म, चन्दन अथवा रोली लगा ले, शिखा बाँध ले; फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्व-शुद्धि के लिये चार बार आचमन करे. उस समय अग्रांकित चार मन्त्रों को क्रमशः पढ़े-
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा.ॐ ऐं हीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः
स्वाहा ॥
तत्पश्चात् प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करे; फिर 'पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ०' इत्यादि मन्त्र से कुशकी पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नांकित रूप से
संकल्प करे-
अमुकशर्मा (अपने गोत्र का उच्चारण करें) अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुग्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-
विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टि धनधान्य समृद्धयर्थं श्रीनवदुर्गाप्रसादेन सर्वा-पन्निवृत्तिसर्वाभीष्ट फलावाप्तिधर्मार्थ काममोक्षचतुर्विध पुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वती देवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गला कीलकपाठ-केदतनत्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्ण जप सप्तशतीन्यास-ध्यान सहित चरित्र सम्बन्धि विनियोगन्यास ध्यानपूर्वकं च 'मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः .' इत्याद्यारभ्य 'सावर्णिर्भविता मनुः' इत्यन्तं दुर्गा सप्तशती पाठं तदन्ते न्यासविधि सहित नवार्ण मन्त्र जपं वेद तन्त्रोक्त देवीसूक्त पाठं रहस्यत्रय पठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये.
इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की
विधि से पुस्तक की पूजा करे, 
पुस्तक पूजाका मन्त्र

ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः .
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता: स्म ताम् ॥
(वाराहीतन्त्र तथा चिदम्बरसंहिता)
ध्यात्वा देवीं पञ्चपूजां कृत्वा योन्या प्रणम्य
च.
आधारं स्थाप्य मूलेन स्थापयेत्तत्र पुस्तकम्॥
इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका-बहिर्मातृका आदि न्यास करे, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताये अनुसार नौ कोष्ठों वाले यंत्र में अंगों यन्त्र में महालक्ष्मी आदिका पूजन करे, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गा सप्तशती का पाठ आरम्भ किया जाता है. कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ही सप्तशती के छः अंग माने गये हैं. इनके क्रम में भी मतभेद है. चिदम्बर-संहिता में पहले अर्गला फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है. "
किंतु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है . उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गयी है. जिस प्रकार सब मन्त्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवचरूप बीज का, फिर अर्गलारूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलकरूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिये.  यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है.
'सप्तशती-सर्वस्व' के उपासना-क्रम में पहले शापोद्धार करके बाद में षडंगसहित पाठ करने का निर्णय किया गया है, अतः कवच आदि पाठ के पहले ही शापोद्धार कर लेना चाहिये. कात्यायनी-तन्त्र में शापोद्धार तथा उत्कीलन का और ही प्रकार बतलाया गया है.
अर्थात् सप्तशती के अध्यायों का तेरह- एक, बारह-दो, ग्यारह-तीन, दस-चार, नौ-पाँच तथा आठ-छ:के क्रम से पाठ करके अन्त में सातवें अध्याय को दो बार पढ़े. यह शापोद्धार है और पहले मध्यम चरित्रका, फिर प्रथम चरित्र का, तत्पश्चात् उत्तर चरित्र का पाठ करना उत्कीलन है. कुछ लोगों के मत में कीलक में बताये अनुसार 'ददाति प्रतिगृहणाति' के नियम से कृष्ण पक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी तिथि में देवी को सर्वस्व-समर्पण करके उन्हीं का होकर उनके प्रसाद रूप से प्रत्येक वस्तु को उपयोग में लाना ही शापोद्धार और उत्कीलन है. कोई कहते हैं- छ: अंगों सहित पाठ करना ही शापोद्धार है. अंगों का त्याग ही शाप है. कुछ विद्वानों की राय में शापोद्धार कर्म अनिवार्य नहीं है, क्योंकि रहस्याध्याय में यह स्पष्टरूप से कहा है कि जिसे एक ही दिन में पूरे पाठ का अवसर न मिले, वह एक दिन केवल मध्यम चरित्र का और दूसरे दिन शेष दो चरित्रों का पाठ करे. इसके सिवा, जो प्रतिदिन नियमपूर्वक पाठ करते हैं, उनके लिये एक दिन में एक पाठ न हो सकने पर एक, दो, एक, चार, दो, एक और दो अध्यायों के क्रम से सात दिनों में पाठ पूरा करने का आदेश दिया गया है. ऐसी दशा में प्रतिदिन शापोद्धार और कीलक कैसे सम्भव है. अस्तु, जो हो, हमने यहाँ जिज्ञासुओंके लाभार्थ शापोद्धार और उत्कीलन दोनों के विधान दे दिये हैं .
साधक गण समयाभाव होने पर अपनी सुविधानुसार ही पाठ करें पूजा पाठ तप और जपादि में भाव की महत्ता सर्वोपरि मानी गयी है इसलिये केवल भाव शुद्ध रखें.

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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