धूमिल का काव्य -एक अवलोकन

धूमिल का काव्य -एक अवलोकन

प्रेषित समय :21:56:48 PM / Fri, Jan 19th, 2024
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राजेश कुमार सिन्हा
सुदामा पांडे “धूमिल” समकालीन हिन्दी कविता के प्रतिनिधि के रूप मे चर्चित उस शख्सियत का नाम है जिनकी विरल और विशिष्ट परिवेश से जुड़ी काव्य चेतना निःसंदेह अद्भुत है .इनकी कविताओं मे सहज सरल और चोटिल भाषा के वागबाण हैं जो पढ़ने और सुनने वाले को घायल करते हैं साथ ही इन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि मानो हम अपने ही अन्तर्मन से संवाद कर रहे हों. इनकी कविताओं का प्रवाह और उसका पैनापन सीधे पाठक के दिल और दिमाग दोनों को स्पर्श करता है और उसे सोचने पर विवश कर देता है. इनकी तमाम कवितायें उस आम आदमी का प्रतिनिधित्व करती हैं जो आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश को अपने सीने मे दबाये नजर आता है. धूमिल ने बहुत कम लिखा है शायद उनका कुल जमा तीन काव्य संग्रह क्रमशःसंसद से सड़क तक,कल सुनना मुझे और सुदामा पाण्डेय का प्रजातन्त्र ही है, पर संघर्ष की जिस चेतना को वे अपनी कविताओं मे रूपायित करते हैं वह इस कदर प्रभावी है कि उन्हें हम बिना किसी विशेष तर्क के जन पक्षधर कवि मान लेने मे कोई संकोच नहीं करते. धूमिल का हिन्दी साहित्याकाश मे उदय उस समय हुआ था जब 1960 के बाद हिन्दी साहित्य अपनी दिशा से भटक कर अनेक वादों मे बंट गया था और नई कविता या साठोतरी कविता से जुड़े साहित्य सर्जक दिशा विहीन हो गए थे.यह कहने मे कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि धूमिल ने बहुत कम समय मे एक गंभीर कवि के रूप मे अपनी विशेष जगह बना ली थी. धूमिल की मृत्यु सिर्फ 39 वर्ष की आयु मे ब्रेन ट्यूमर की वजह से हो गई थी और उनका निजी जीवन भी सुखमय नहीं रहा था. धूमिल जब सिर्फ 11 वर्ष  के थे तभी उमके पिता की मृत्यु हो गई थी और तभी से अपने पूरे परिवार की  जिम्मेवारी उठाने का जो सिलसिला धूमिल ने शुरू किया वह उनकी मृत्यु तक चलता रहा.धूमिल के स्वभाव मे एक तरह का अक्खड़पन था
एक तरह का विद्रोह था जो उन्हें व्यवस्था से मिली प्रतिकूल स्थितियों और पारिवारिक दायित्व का पूर्ण रूप से निर्वाह न कर पाने की वजह से आ गया था.
“किस्सा जनतंत्र “ उनकी एक बहुत ही चर्चित कविता रही है जो सामाजिक यथार्थ को हु बहू दिखा देती है. यहाँ उन्होने दिखाया है कि कैसे बेवसी और लाचारी के बीच भी एक आदमी किस तरह अपने परिवार को समायोजित करके चलता है ,
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुहदुब्बर
पेट भर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है
सही अर्थों मे धूमिल जनाक्रोश के कवि हैं वे जनता के आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं और उस दौर की राजनीति का विरोध भी करते हैं जहाँ उनकी जनवादी चेतना उभर कर आती है. सच तो यह है कि उन्हें मानवतावाद अच्छा लगता है जिसका प्रभाव इनकी रचनाओं मे कहीं न कहीं दिख ही जाता है. धूमिल इस बात के समर्थक हैं कि जब तक लोग अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगे तब तक उनमे बदलाव नहीं हो सकता क्योंकि सत्ता पर काबिज लोग सीधी तौर पर कही गई बात को कभी भी नहीं समझते हैं,
जब खून मे दौड़ती है आग
चेहरा आँसू से धुलता है
उस वक़्त इतिहास का हरेक घाव
तजुर्बे की दीवार मे
मुक्के सा खुलता है ऐ साथी
धूमिल की अधिकांश कवितायें संवादी या सवाल उठाने वाली कवितायें हैं जहाँ वे किसी न किसी अव्यवस्था को दिखलाने या उस पर सवाल उठाने की कोशिश करते हैं.“प्रजातन्त्र के विरुद्ध “कविता मे कवि ने सरकारी तंत्र मे व्याप्त अव्यवस्था को दर्शाया है. उन्होने इस बात को पूरी शिद्दत के साथ कहने की सफल कोशिश की है कि एक गरीब आदमी या आर्थिक रूप से कमजोर आदमी किस तरह अपनी दुर्दशा मे उलझ कर रह जाता है और उसके पास इस दुष्चक्र से निकलने का एक ही तरीका बचता है वह है आत्महत्या-
हाँ यहीं कहीं होगा
किसी बद्दू मुहावरे की आड़ मे
ख़ुदकुशी की रस्सी लटकाता हुआ
पेट से लड़ते – लड़ते जिसका हाथ अपने प्रजातन्त्र पर
उठ गया है
धूमिल अपनी विशिष्ट अंदाज के राजनीतिक व्यंगों के लिए भी जाने जाते हैं जो उनकी कविताओं को एक अलग पहचान देता है साथ ही उसमे तात्कालिकता का प्रभाव भी देखने को मिलता है. “रोटी और संसद “धूमिल की सबसे चर्चित और सटीक राजनीतिक व्यंग कविता है जिसमे उस बिचौलिये पर कटाक्ष किया गया है जो सरकारी योजनाओं का लाभ आम आदमी तक नहीं पहुंचाने मे नकारात्म भूमिका दिखाता है,
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ
यह तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है ?
धूमिल की कविताओं मे समाज मे व्याप्त आर्थिक विषमता को ले कर भी काफी कुछ कहा गया है. धूमिल ऐसा मानते हैं कि समाज मे व्याप्त आर्थिक विषमता का असर समाज और व्यक्ति दोनों पर पड़ता है नतीजतन इन दोनों का की वास्तविक पहचान गौण हो जाती है और एक ऐसा माहौल तैयार हो जाता है जहां कुछ भी पारदर्शी नहीं होता अथार्त सब कुछ एक छ्द्म आवरण मे नजर आता है और अमानवीयता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाती है . धूमिल के अनुसार आर्थिक असमानता किसी आतंक से कम  नहीं होती,
जादुई आतंक के साथ
जहां व्याकरण भाषा की सारी संभावनाएं खो चुकी है
और अर्थशास्त्र एक पौसरे मे
बदल गया है
धूमिल के अनुसार आर्थिक असमानता का सीधा असर आम आदमी की रोजी रोटी पर पड़ता है
एक छोटा  सा जोड़ भाग
बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबत्ती-बाल किशुन को आधे मे आधा
कुल रोटी छै
धूमिल जनता के आवाज के प्रतिनिधि कवि हैं जिनकी कविता बेशक विद्रोह की कविता है. उनकी कविता मे परंपरा ,सभ्यता ,सुरुचि ,शालीनता और भद्रता का विरोध है क्योंकि इन सबकी आड़ मे जो हृदय पलता है उसे धूमिल पहचानते हैं. धूमिल इस बात को जानते हैं कि व्यवस्था अपनी रक्षा के लिए इन सबका उपयोग करती है,इसलिये वे इन सबका विरोध करते हैं और इसी विरोध के कारण उनकी कविता मे एक प्रकार की आक्रामकता मिलती है जिसके मूल मे अक्सर आम आदमी होता है .
धूमिल ने “मोचीराम” मे आम आदमी की पूरी ज़िंदगी को उतारा है जो वास्तविकता और अनुभव के बीच की सच्चाई है और इनकी कविता का आम आदमी वक़्त की मार से बुरी तरह परेशान रहता है और अपनी ज़िंदगी की गाड़ी को किसी तरह से खींच रहा है, उसे वक़्त के गुजरने का इंतजार नहीं है बल्कि गुजरने की जल्दी मे वह वक़्त को पीछे छोड़ देना चाहता है,
अपनी उपस्थिति पर अनायास
खाँसता हुआ
मेरे पास रोज एक आदमी आता है
वक़्त के साथ बेचैनी से बीतता हुआ
आदमी वह भी है जो
आदमी के भेस मे
शातिर दरिंदा है
जो हाथों और पैरों से पंगु हो चुका है
मगर नाखून मे जिंदा है
धूमिल ने जितनी शिद्दत से आदमी के कई रूपो को गढ़ने का प्रयास कियाक है उससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है एक संघर्ष रत आदमी उनके काव्य रथ का सारथी है जो उनकी तमाम रचनाओं के मूल मे हमेशा होता है .
यह कहने मे कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि काव्य जगत मे हुए तमाम आंदोलनों को चुनौती देते हुए धूमिल ने अपनी एक अलग शख्सियत हमेशा ही बनाए रखी. काशीनाथ सिंह का यह कथन बिलकुल सही जान पड़ता है –“धूमिल के आने तक आलोचना का मुँह कहानी की ओर था,वह आया और उसने आलोचना का मुँह कविता की तरफ कर दिय.,अकेले आलोचक ही नहीं कवि भी घूम गए . धूमिल ने अकविता,भूखी कविता और शमशानी कविता आदि की लालसाओं को हवा दे दिया और मूछों पर गुर्रा देता रहा, उस पट्ठे की तरह जो अखाड़े मे चुनौती देते हुए घूम रहा हो कि जो चाहे हाथ मिला ले”
धूमिल का एक चर्चित काव्य संग्रह है :”सुदामा पांडे का प्रजातंत्र जिसमे 61 कवितायें संकलित हैं मसलन रणनीति ,संसद समीक्षा,संयुक्त मोर्चा ,घर मे वापसी ,और लोकतन्त्र तथा अन्य कवितायें शामिल हैं “जो सही अर्थों मे प्रजातंत्र के नाम पर समाज के लिए तीखा व्यंग है,धूमिल लिखते हैं-
न कोई प्रजा है
न कोई प्रजातंत्र है
यह आदमी के खिलाफ
आदमी का खुलासा षड्यंत्र है
“संयुक्त मोर्चा” कविता मे धूमिल संसद मे बैठे जन प्रतिनिधियों पर तीखा व्यंग करते हैं –
तुम कहाँ रहते हो
संसद के पीछे
दाँत चियार रिश्वती हथेली पर
या काम रोको प्रस्ताव की सूची मे
“लोकतंत्र” कावता मे धूमिल ने गरीब और गरीबी के लिए जिम्मेदार लोगों को उनकी गलती का एहसास कराया है और वैसे लोगों को ललकारा भी है जो भूख के नाम पर लोगों को ठगने या धोखा देने का काम करते हैं .
न मैं पेट हूँ
   न मैं दीवार हूँ
        न पीठ हूँ
         अब मैं विचार हूँ
“संसद से सड़क तक”मे शामिल कवितायें भी बहुत चर्चित रही हैं इस संग्रह पर धूमिल को मध्य प्रदेश शासन परिषद का “मुक्तिबोध पुरस्कार” प्रदान किया गया है. इसमे शामिल कविताओं मे कविता ,अकाल दर्शन ,बसंत ,मोचीराम ,मकान और नक्सलवादी आदि काफी चर्चित हैं . मोचीराम मे जाति प्रथा पर तंज़ कसते हुए धूमिल लिखते हैं –
मेरे निगाह मे
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है
“अकाल दर्शन”कविता मे धूमिल देश की बढ़ती हुई आबादी और उससे उत्पन्न होने वाली भूख और बेरोजगारी की समस्या को सामने लाने की कोशिश की है
वह कौन सा प्रजातांत्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र मे
मेरे माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उससे उम्र की मेरे पड़ोस की महिला
के चेहरे पर
मेरे प्रेमिका के चेहरे जैसा लोच है
जब हम धूमिल के पूरे काव्य पर  नजर डालते हैं तो हमे ऐसा लगता है कि इन्हें जन पक्षधर कवि की जो उपाधि दी गई है वह सर्वथा उचित और न्याय
संगत है क्योंकि उनकी कविता मे व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करता सामान्य आदमी सही अर्थों मे सामान्य आदमी है जो सिर्फ अपनी  मेहनत अपनी प्रतिबद्धता के सहारे आगे बढ़ता है भले ही उसे तिरस्कार और उपेक्षा का शिकार क्यों न होना पड़े.इन सबके बीच धूमिल अपना साहित्य धर्म निभाते हुए भी बखूबी नजर आते हैं क्योंकि धूमिल ने अपने युग की धड़कन को सुना ,समझा और सार्वजनिक किया इतना ही नहीं उन्होने समकालीन परिवेश के विभिन्न पहलुओं को अपनी संवेदनाओं के सहारे मुखर वाणी प्रदान की. इनकी सामाजिक चेतना ने अपने आस पास के परिवेश और उसकी पीड़ा को समझा महसूस किया और उसे अपनी रचनाओं मे इतनी शिद्दत और एहसास के साथ पिरोया है ये रचनाएँ कालजयी बन गई हैं .

राजेश कुमार सिन्हा
खार(वेस्ट),मुंबई -52

Source : palpalindia ये भी पढ़ें :-

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